पंजाबी कहानी
छोटे आसमां में बड़ी उड़ान
0 गुरमीत कड़ियालवी
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’
मैंने मेरी बाँह पर सर टिकाए सो रही जेसिका के चेहरे को गौर से देखा। कितनी मासूमियत है। किसी शिशु की भाँति मुँह पर लालिमा है जैसे फाल्गुन – चैत्र की गुनगुनाती धूप में खिला गुलाब या किसी बच्चे ने सफेद दीवार पर सुर्ख रंग की पिचकारी मार दी हो।
इसकी जगह हरजीत को होना चाहिए था। सोचते ही उदास हो गया।
मानो जेसिका को अपनी बाँह पर सुला कर हरजीत से बदला ले रहा होऊं। दिन के वक्त
जेसिका के साथ यह सोच कर तस्वीरें भी खिंचवाई थीं कि किसी न किसी तरह हरजीत तक
पहुँचा दूंगा। हरजीत यह तस्वीरें देख कर भीतर तक तड़प उठेगी, बिलकुल उसी तरह जैसे
गैरी के साथ उसकी तस्वरें देख मैं तड़पता हूँ।
हरजीत के साथ गुज़रा वक्त न चाहते हुए भी आँखों के समक्ष
साकार हो आया। मैं हौले से जेसिका के सिर के नीचे से बाँह खींच कर, खिड़की के पास
आ खड़ा हुआ हूँ। दूर समंदर की तरफ देखा। समंदर के पानी से उठती लहरें शोर मचाती
हैं। समंदर अतृप्त सा प्रतीत होता है। मानो बरसों से अतृप्त हो, आस-पास की हर चीज़
को निगल जाने के लिए तत्पर है।
समंदर के बारे में सोचना छोड़ मैं अपने साथियों की
अतृप्ति के बारे सोचता हूँ। तीनों के भीतर अलग-अलग प्रकार की अतृप्ति है। तीनों की
अलग आवश्यकताएं। ट्रांसपोर्ट विभाग वाला सुभाष करप्शन के पैसों से कुप्पा हुआ
फिरता है। गाड़ी की पासिंग के बदले रिश्वत में मिले पैसों से जेब भरी रहती है।
हराम के पैसों ने उसकी आँखों ही नहीं, तन के सभी अंगों को भी हरामी बना दिया है।
पता नहीं उसके भीतर कितना लावा जमा हुआ है। जैसे बरसों से कोई औरत ही न देखी हो।
भुक्खड़ कहीं का। बैंकॉक के स्वर्णभूमि एयरपोर्ट पर उतरते ही उसकी लार टपकने लगी
थी। जिस दिन से आया है अपनी अतृप्ति को शांत करने में लगा है। हर वक्त कोई न कोई
युवती उसके कमरे में होती है। कभी कोई चीनी, कोई फिलिपाइन, कभी मलेशियन, कंबोडियन,
बांग्लादेशी या किसी अन्य देश की। उसके कहने के अनुसार ‘जितने दिन, उतने देश’। वह ज़्य़ादा से ज़्यादा युवतियों को देख लेना चाहता है।
‘आदमी को हर देश की औरत के जिस्म से आती
खुशबू की जानकारी होनी चाहिए। क्या समझे?’ सुभाष तर्क देता है। हर बात के साथ ‘क्या समझे’ कहने की आदत के कारण उसे जानने वालों ने
उसका नाम ही ‘क्या समझे’ रख दिया है।
पंकज अरोड़ा शहर की नामी हस्ती है। अरोड़ा ट्रेडिंग
कंपनी का मालिक। बड़े-बड़े अफसरों या नेताओं का बैंकॉक का चक्कर लगवा देता है।
पिछले साल इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के चेयनमैन बत्तरा और ईटीओ नवराज को लाया था। इस बार
सुभाष और पत्रकार अर्जुन विवेक को लेकर आया है। पंकज के शब्दों में, ‘इन्हें हल्का करने के लिए लाया हूँ। अपना
खौलता खून शांत कर लेंगे। अब ये साल भर इधर का रुख नहीं करेंगे, नहीं तो सुभाष
बाबू जैसे पगलाए कुत्ते हर किसी को काट खान को तत्पर रहते हैं।’
अर्जुन विवेक के बगैर अधिकतर अफ़सरों, नेताओं और
व्यापारियों का गुज़ारा नहीं होता। अर्जुन दोस्ती गाँठने में माहिर है। ज़िले में
आने वाले हर डी सी, एस एस पी और अन्य विभागों के बड़े अफसरों के आते ही दोस्ती
गाँठ लेता है। अर्जुन जिस अख़बार में पत्रकार है, वह देश का बड़ा अख़बार है। बड़े
अख़बार का पत्रकार कितना ही छोटा क्यों न हो, बड़ा ही होता है। प्रशासनिक
अधिकारियों का बड़ेपत्रकारों से यारी किए बिना काम कहाँ चलता है। बड़े अख़बार का
पत्रकार प्रशासन की छोटी सी गलती को बड़ी बना कर प्रस्तुत कर सकता है। फिर अर्जुन
की पत्रकारी निगाह तो चारों तरफ मशहूर है। उसकी कलम और आँख शिकार के पीछे-पीछे
दौड़ने में माहिर है। वह काले को सफेद और सफेद को काला बना सकता है। क्या अधिकारी
और क्या व्यापारी, विवेक के कायल हैं और उसे खुश करने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं
जाने देते।
अर्जुन मेरा फुफेरा भाई है परंतु कुछ मामलों में भाइयों
से भी बढ़कर है। बचपन से ही इकट्ठे खेलते रहे हैं। मुझसे ख़ासा मोह करता है। वह
हमारे पास ही ननिहाल में रह कर पढ़ा है। फूफा जी फौज में थे। जब तक लेह लद्दाख की
तरफ रहे, अर्जुन हमारे ही पास रहा। फिर जब फूफा का तबादला भोपाल हो गया तो परिवार
भी साथ चला गया। दसवीं तक अर्जुन ने भोपाल के सैन्य स्कूल में पढ़ाई की। पहले
चंडीगढ़ और फिर दिल्ली के अख़बारों से जुड़ने तक उसकी व्यस्तताएं बढ़ती गईं।
मिलना-जुलना बेशक कम हो गया परंतु ननिहाल से मोह कम नहीं हुआ। जब भी वक्त मिलता
गाहे-बगाहे चक्कर लगा जाता। अब जब से बतौर स्टाफ रिपोर्टर ननिहाल वाले ज़िले में आ
गया था – फिर से मेल-जोल बढ़ने लगा था।
वह जब भी आता मुझे उदास देख कर कहता, ‘इतनी उदासी अच्छी नहीं होती। उदासी आदमी
को भीतर ही भीतर घुन की भाँति खा जाती है।’
फिर वह सवाल बन कर मेरे सामने आ खड़ा होता – ‘यार! ऐसे कब तक
हरजीत की बेवफाई के लिए कुढ़ता रहेगा?’
थाईलैंड भी वही ज़बरदस्ती लेकर आया, ‘हरजीत को गए शायद चार साल होने को आए,
तुझे कभी हँसते नहीं देखा। तूने तब से तो कोई औरत भी नहीं देखी होगी क़रीब से। यार
इतने में तो आदमी के भीतर कुआँ बन जाता है। चलो तैयार हो जाओ, तुम्हें घुमा-फिरा
लाते हैं। चार दिन मौज-मस्ती हो जाएगी।’
‘काहे की मौज-मस्ती? अब तो...।’ मुझसे वाक्य
अधूरा ही रह गया।
‘भाई अमर, तू मत करना मौज-मस्ती।
मौज-मस्ती के लिए हम हैं न। चलो चार दिन हवा पानी बदल जाएगा। माहौल बदलने से आदमी
का मन भी बदल जाता है। और दुनिया के रंग भी देख लेना। तुम्हें दुनिया का पता तो
चले, कैसे भूखी घूमती है। अच्छे-भले आदमी की लार टपकती है। दुनिया भर के सैलानी
आते हैं थाईलैंड घूमने के लिए। सब के सब भुक्खड़, युगों-युगांतरों से अतृप्त। पैसे
वाले बंदे – ज़्यादातर वहीं जाते हैं। अपनी तृष्णा को शांत करने के लिए। यार क्या
पता लगता है – पबों, क्लबों में थिरकती जवानी देख कर शायद तुम्हारे भीतर भी कुछ
हलचल हो जाए। शायद दबी तृष्णा जग जाए।’ इधर-उधर की हाँक कर
उसने ज़बरदस्ती अपने साथ तैयार कर लिया था।
जेसिका की नींद खुल गई थी। मेरी तरफ देख हल्का सा
मुस्कुराई। मेरे पास आकर खिड़की से बाहर मचलते समंदर को देखने लगी। सर मेरे कांधे
पर टिका दिया।
‘समंदर भी मेरी तरह बेचैन ही रहता है।’ मैं मुँह में ही बडबड़ाया। जेसिका को भला क्या समझ आना था। वह समंदर की
तूफानी लहरों की तरफ इशारा करने लगी। लहरें पताया बीच से थोड़ी दूर बनी जगमगाती
गगनचुंबी इमारतों को आलिंगन करने के लिए मचल रही थीं। जेसिका मेरे भीतर मचलते शोर
से अनभिज्ञ, अठखेलियां करतीं लहरों की तरफ देख मुस्कराई। मैंने उसके मुस्कुराते
चेहरे की तरफ देखा। मुस्कान ने मेरे भीतरी तूफान को और तेज़ कर दिया। मैं हरजीत के
बारे सोचने लगा। शादी के बाद हरजीत इसी तरह कब मुस्कुराई थी?
शादी से तीसरे दिन हरजीत और मैं घूमने-फिरने के लिए
निकले थे। माँ के तो अभी ठीक तरह से शगुन भी पूरे न हो पाए थे। ससुराल से आई बहनों
का भी अभी भाभी से बातें करके मन नहीं भरा था। अभी तो बिरादरी की महिलाएं नई
दुल्हिन को देखने आ रही थीं। हम दोनों सब कुछ छोड़-छाड़ कर हिमालय की रंगीन
वादियों में आ गए थे। वादियां हरजीत की पाजेबों की रुन-झुन से झंकृत हो उठी थी।
कलियों से ख़ास किस्म की खुशबू आने लगी। रंग-बिरंगे फूल हम दोनों की हँसी से और भी
खूबसूरत हो गए थे। झरनों से बहती चाँदी को हम अंजुरी भर-भर कर एक-दूसरे पर उछालते।
पानी से भीगी वह शोभा सिंह द्वारा बनाई तस्वीर की सोहणी जैसी प्रतीत होती। हम
हाथों में हाथ थामें पहाड़ी ढलानों पर अठखेलियां करते। वह पल भर में आगोश में आ
गिरती। चीड़ के दरख्तों पर बैठी छोटी-छोटी पहाड़ी चिड़ियां हमारी चुहल पर ताली बजाकर
हँसती। इधर-उधर भागी फिरती गिलहरियां अगले पंजों पर खड़ी होकर हमारी तरफ हैरान
होकर देखतीं।
‘मुझे तो बचपन से ही घूमने का बहुत शौक
है। मेरा वश चले तो सारी दुनिया ही घूम लूं।’ हरजीत ने मेरे
कंधे पर सर टिकाते हुए कहा था।
‘इसमें कौन सी बड़ी बात है। घूम लेंगे
सारी दुनिया। घूमने-फिरने लायक तरख्वाह हमें मिल ही जाती है। निकल लिया करेंगे हर
साल। वादियां, पर्वत, जंगल, बेले और मरुस्थलों को हँसना-खेलना सिखा जाया करेंगे।’ हँसते-हँसते मैंने हरजीत को अपने आलिंगन में ले लिया था।
पूरे बीस दिनों तक पहाड़ों की कंदराओं में हँसी बिखेरने
के बाद हम लौटे थे। माँ बाबूजी की खुशी देखते ही बनती थी।
शरीके वाले कहते, अभी कल आई और आज रसोई में भी घुसा दिया
बहू को। न भाई मैं तो छह महीनों तक अपनी बहू को काम को हाथ न लगाने दूंगी। सारी
उम्र पड़ी है काम करने को। मुझे तो शौक पूरे करने हैं। अभी मेरे हाथ-पाँव चलते
हैं। मैं खुद ही कर लूंगी सारे काम। माँ ने हरजीत के हाथों से बर्तन छीन लिए थे।
वह तो हरजीत को ज़मीन पर पाँव भी मुश्किल से ही रखने देती थी। बेटी-बेटी करते उसका
मुँह न थकता।
‘हरजीत के रंग से तो घर का आँगन भी गुलाबी
हो गया। न भाई, मैं इसे धूप में नहीं निकलने देती – कहीं रंग ही न ख़राब हो जाए।’ जब भी कोई पड़ोसन घर होकर जाती, माँ नज़र उतारने बैठ जाती। हम माँ के
वहम, भ्रमों पर हँसते।
बाबूजी प्यार से हरजीत को ‘जीते शेरा’ कहते।
हरजीत दो-तीन दिनों के लिए मायके क्या जाती, घर के दर-ओ-दीवार उदास हो जाते। मुझे
भी ऐसा जान पड़ता मानों कोई मेरी रूह निकाल ले गया हो। अधूरा-अधूरा सा जान पड़ता।
हरजीत मेरा अभिन्न अंग बन गई थी। जैसे मैं हरजीत के लिए बना था और हरजीत मेरे लिए।
शादी का एक बरस एक दिन की भाँति गुज़र गया। उस दिन शादी
की वर्षगाँठ ही थी जिस दिन हरजीत की कैनेडा वाली मौसेरी बहन जैस्मीन और उसका पति
मिलने आए थे। यह दिसंबर-जनवरी के ठंडे दिन थे। जैस्मीन के कहे अनुसार इन दिनों
टोरांटों की सड़कों और घरों पर घुटने-घुटने बर्फ जमी हुई थी। हड्डियों को कंपाने
वाली सर्दी की इस रुत में प्रवासी पंछी वतन की तरफ उड़ान भरते हैं। बहन और जीजा के
आगमन पर हरजीत उड़ती फिर रही थी। उसकी हसरतों को मानों पंख लग गए हों। हमारा पूरा
परिवार प्रवासी मेहमानों की आव-भगत में जुटा था। जैस्मीन बात-बात में कैनेडा का
बखान करती, ‘हमारे वहाँ कैनेडा में
ऐसा, हमारे कैनेडा में वैसा....’
बातें सुनते-सुनते हरजीत की आँखें कभी सिकुड़ कर छोटी हो
जातीं और कभी चील के अंडों जितनी बड़ी हो जातीं।
‘जीजू! आप पी आर का
केस क्यों नहीं डाल देते। जैसे आप एम एस सी पास हैं। फिर दीदी हरजीत की ऐजुकेशन के
नंबर भी काउंट हो जाएंगे। एक साल के भीतर आप कैनेडा मूव कर जाएंगे। जाते ही आपको
15 डॉलर प्रति घंटा मिलने शुरू हो जाएंगे। यहाँ क्या बनता होगा?’ जैस्मीन ने अजीब ढंग से कंधे उचकाए और मुँह बनाया था। जैस्मीन का सुझाव
सुनकर हरजीत का चेहरा खिल उठा था। मैं तनिक सा मुस्कुराया भर था।
जैस्मीन और उसके पति के चले जाने के बाद हमेशा खिल-खिली
सी रहने वाली हरजीत बुझी-बुझी सी रहने लगी। चेहरे पर तनाव पसरा रहता। उसका अधिकतर
समय मोबाइल पर गुज़रने लगा। जैस दीदी का फोन था। पूछने पर हमेशा एक ही जवाब मिलता।
‘अमर !जैस्मीन दीदी
ठीक ही कहती हैं – हमें कैनेडा के लिए अप्लाई करना चाहिए।’
मैंने अपने पापा से बात की है। उनका भी यही सुझाव है। बल्कि उन्होंने तो किसी
परिचित इमीग्रेशन वाले से केस के बारे में बात भी कर ली है। आई थिंक आप जॉब से
महीने, बीस दिन की छुट्टी लेकर कोचिंग सेंटर ज्वॉइन कर लें। जैस दीदी कहती हैं पी
आर के केस के लिए आईलेटस् में सेवन ईच बैंड होने चाहिए। आई होप इतने बैंड तो आप
आसानी से ली ले लेंगे।’
‘जोत! क्या करेंगे
विदेश जाकर? तुम्हें पता है वहाँ जाकर लेबर करनी पड़ेगी? यहाँ अच्छी भली प्रोफेसरी करते हैं – व्हाइट कॉलर जॉब। ठीक है अभी पूरा
ग्रेड नहीं मिलता, कभी न कभी वह भी मिलने लगेगा।’ मैं बात को हँसी में टालने की कोशिश करता हूँ।
‘कैनेडा, कैनेडा ही है। सारी दुनिया ऐसे
ही भागी नहीं जा रही। लोग तो ज़मीन-जायदाद बेचकर चलते बन रहे हैं। हम तो फिर भी
लीगल वे में जाएंगे। आप खुद ही सोचिए विदेश अगर इतना ही बुरा हो तो लोग क्यों भागे
जा रहे हैं?’ हरजीत तो पूरी तरह सीरियस थी। उसके चेहरे की
रंगत ने बता दिया था कि उसे मेरी बात बिलकुल ही अच्छी नहीं लगी थी।
‘जोत, मेरा कोई विचार नहीं विदेश जाने का।’ मैंने स्पष्टीकरण देना ज़रूरी समझा।
‘आप जिस दिन देखने आए थे, मैंने तो उसी
दिन सोच लिया था कि अबरोड जाएंगे। अब जब दीदी और जीजू ने एन्करेज किया, मैंने तो
पक्का ही मन बना लिया। फिर अपने पास प्वाइंट भी तो बनते हैं। सबसे बड़ी प्रॉब्लम
होती है वहाँ जाने पर संभालने की। हमें तो वह भी नहीं होगी। जीजू और जैस दीदी हमें
जाते ही संभाल लेंगे। काम-धंधा भी खुद ही ढूँढ देंगे।’
‘प्वाइंट बनने या न बनने की बात नहीं है -
जब जाना ही नहीं विदेश।’
‘जो लोगों के समूह के समूह जाते हैं – सभी
पागल हैं क्या? हम
ही समझदार हो गए सबसे?’ इतने तीखे बोल हरजीत से पहली बार
सुने थे। मुझे झटका सा लगा था। मैंने महसूस किया, टोरांटो की सड़कों और घरों के
भीतर का ग्लेशियर हमारे घर की तरफ सरक आया था।
अब वह हर दिन सोते समय विदेश जाने का राग अलापने लगी थी।
‘मैं तो यह सोचती थी – मैंने तो यह सोचा
था।’ हमारा कमरा तनाव से भरा रहता । उसकी पाजेबों की रुन-झुन
में गुस्सा साफ़ झलकता था।
‘हरजीत देखा-दिखाई के समय हम लोगों को
बात-चीत के लिए देर तक एकांत में बैठने का मौका मिला था। तुम्हें उसी दिन बता देना
चाहिए था। मैं तब भी यही कहता जो आज कह रहा हूँ। फिर तुम अपने हिसाब से निर्णय कर
सकती थी।’
‘न मुझे यह तो बताइए, विदेश जाने में
दिक्कत क्या है? कोई नुकसान है?’
‘न कोई दिक्कत है, न ही कोई नुकसान। हाँ,
मुझे तो फायदा भी कोई नज़र नहीं आता। जोत कुछ ही लोग बाहर जा रहे हैं, अधिकतर तो
यहीं है और वे यहाँ ही रहेंगे। तुम मुझे अधिकतर लोगों में शामिल कर सकती हो, बड़ी
बात तो यह है कि मैं माता-पिता को छोडकर कहीं नहीं जाने वाला।’
‘एक ही ज़िद पकड़ रखी है आपने। इन्सान
अपने परिवार की खुशी के लिए क्या नहीं करता? इन्सान को तो
बहुत कुछ की तिलांजलि भी देनी पड़ती है। कल को बच्चे होंगे, उनका भविष्य तो सेफ
होगा न। वहाँ और यहाँ की सुविधाओं की तुलना करके तो देखें। अमर! इंडिया का आसमां बहुत छोटा है, यहाँ अपनी उड़ान भी छोटी ही होगी। कैनेडा का आसमां बहुत विशाल है - अपनी उड़ान भी
बड़ी होगी। तभी तो दीदी जीजू बार-बार जोर डाल रहे हैं। उन्हें क्या फायदा। हमारी
भलाई के लिए ही तो कह रहे हैं। आप समझते क्यों नहीं?’ हरजीत
की बातें सुनकर मेरा सर फटने लगता। वह दिन में पता नहीं कितनी बार दीदी-दीदी,
जीजू-जीजू की रट लगे रखती। मैं चुपचाप बाहर निकल जाता।
टोरांटों की सड़कों वाली बर्फ अब हमारे रिश्तों पर जम गई
थीं। यह ग्लेशियर दिनों-दिन गाढ़ा होता जा रहा था। इस ग्लेशियर के ऊपर से गुज़रने
वाली ठंडी हवा माँ और बाबू जी के पास भी चली गई। उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर
आईं। आँगन में घूमती हरजीत को देख माँ कहती, ‘हमारे आँगन में तो चाँद रात-बिरात सीढ़ियां लगा कर उतर आया।’ अब वह उदास उदास सी रहने लगी। उसे आँगन में उतर रही अमावस्या की आहट
सुनाई देने लगी।
‘बेटा! ज़िंदगी तुम
दोनों को गुज़ारनी है। हम तो कच्चे घड़े का पानी हैं। कब तक रहेंगे? बेटा अमर, बहू जैसा कहती है कर लो।’ मुझे समझाते
हुए माँ ने लंबी साँस ली।
माँ ही नहीं बाबू जी ने भी मुझे समझाने में अपना पूरा
ज़ोर लगा दिया। मेरी न से तंग आकर एक दिन उन्होंने हरजीत के सामने हाथ जोड़ दिए
थे।
‘जीते शेरा! यह तो
पहले से ही हठी है, मेरी बेटी तू ही ज़िद छोड़ दे। देखो तुम्हारी कोई देवरानी
जेठानी नहीं है। यहाँ का सब कुछ तुम लोगों का ही तो है। दोनों से ही ख़त्म नहीं
होगा। फिर अमर की नौकरी भी है। अगर करनी चाहो तो, तुम्हें भी मिल सकती है। फिर
किसलिए टेंशन लेना। ज़िद छोड़ दो मेरे शेरा।’
बाबू जी के जुड़े हाथ देख मुझे उन पर गुस्सा भी आया और
तरस भी। उससे कई गुणा गुस्सा हरजीत पर जिसने बाबू जी के जुड़े हाथों की तरफ नज़र
उठा कर भी नहीं देखा था। और माथे की सलवटें गहरी करते हुए कमरे में जा घुसी थी।
बाबू जी कितनी ही देर तक उसी मुद्रा में खड़े रहे।
मेरे और हरजीत के बीच शीतयुद्ध चलने लगा और इस जंग में
माँ-बाबू जी बेकार ही पिस रहे थे।
‘ऐमर!’ जेसिका ने
अपने हाथों से मेरा मुँह अपनी तरफ घुमाया और मुझे यादों के समंदर से निकाल कर वापस
कमरे में पहुँचा दिया। माथे पर हल्का सा चुंबन दिया और बाँह के घेरे में ले मुझे
बेड पर बिठा लिया। अपने रुमाल से हौले-हौले मेरा चेहरा साफ़ करने लगी। मुझे यूं
लगा मानो मेरी उदासी को पोंछ कर दूर फेंक देना चाहती हो।
‘फैमिली याद आ रही है?’ जेसिका ने मेरा चेहरा दोनों हाथों में थाम कर पूछा।
‘ऊहूं!’ मैंने उसके दोनों हाथ हटाकर मुँह दूसरी तरफ
घुमा लिया और बड़ी सफाई से आँखों में उतर आई नमी को छुपा लिया।
‘कभी-कभी मैं भी अपनी फैमिली को बहुत मिस
करती हूँ।’ कुछ देर चुप रहकर फिर अपने परिवार के बारे में
बताने लगी – ‘माँ-बाप और छोटे भाई बहनों को मिस करती हूँ।
वौंग के साथ गुज़ारे दिनों को याद करती हूँ तो बहुत उदास हो जाती हूँ। मुझे लगता
है आप भी अपनी गर्ल फ्रेंड संग बिताए दिनों को याद कर उदास हो रहे होंगे। राईट? या वाइफ को मिस कर रहे हैं?’ जेसिका की टूट-फूटी
अंग्रेजी उसके जज़्बातों को मुझ तक पहुँचाने के ले काफ़ी है।
मैंने जल्दी से सर घुमा कर जेसिका की तरफ देखा। थाईलैंड
की लाखों सेक्स वर्करों के बारे सोचते हुए, ‘इनका परिवार भी होता है?’ सवाल मेरे ज़ेहन में कौंध
गया। जेसिका ने मेर भीतर मचलते सवाल को पढ़ लिया।
‘मेरे परिवार के बारे सुनकर सोच में पड़
गए? अधिकतर लोग यह सोचते हैं। अधिकतर क्या, यहाँ आने वाले
सभी लोग यही सोचते हैं या वे सोच सकते हैं। तुम्हारा ऐसा सोचना भी स्वभाविक है।’
‘इन्हें भी तो किन्हीं माँओं ने जन्म दिया
होगा।’ मुझे अपनी सोच पर ग्लानि हुई।
‘मेरे माता-पिता और भाई-बहन दूर-दराज के
एक गाँव में रहते हैं। जीवन में उन्होंने बहुत दु:ख देखे
हैं। बहुत ही कठोर दु:ख। बेशक अच्छा खाना-पीना मिलने लगा है
परंतु अभी भी बहुत गरीब हैं। मैंने उनसे बढ़िया घर बना कर देने का वादा किया था जो
पूरा कर दिया है। पिता के पास थोड़ी सी ज़मीन थी, मैंने और लेकर दी है। अब वे वहाँ
रबड़ के वृक्षों की खेती कर सकेंगे। मैं भाई-बहनों की पढ़ाई का खर्च भी उठाती रही
हूँ। दोनों ने इसी साल कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म कर ली है। अब वे किसी रोज़गार से जुड़
जाएंगे। मुझ पर बोझ बिलकुल ख़त्म हो जाएगा। हम अब पेरेंटस् को खुश रख सकेंगे। ठीक
किया न मैंने?’
‘बिलकुल ठीक किया तुमने। पेरेंटस् को खुश
रखना भला ग़लत कैसे हो सकता है?’
मेरी सकारात्मक प्रतिक्रिया सुन वह बाग-बाग हो गई। अपने
खुले बालों को झटक कर पीछे किया। बालों से अजीब सी खुशबू निकल कर सारे कमरे में
फैल गई। जेसिका के घुंघराले बाल देख हरजीत के घने काले बाल याद हो आए। उसके बाल
कंधों से नीचे तक आते थे। स्नान के बाद वह बाल खुले रख कर चलती तो ऐसा लगता मानों
सैंकड़ों काले नाग फन फैलाए खड़े हों। हवा संग उड़ते बाल आसमां में पंक्तिबद्ध हो
उड़ती कूंजों का भ्रम देते। हरजीत बालों को हल्के से झटक कर दाहिने-बाएं करते हुए
क़त्ल कर चल देती। मैं गौर से उसकी तरफ देखता रहता। वह शरमा जाती।
‘अब बस भी कीजिए, टकटकी लगाए देखे जा रहे
हैं। बिलकुल पागल लगते हैं।’
‘लगता क्यों? हो गया
हूँ। सचमुच का पागल। तुम्हारी खूबसूरती ने बना दिया है।’
‘आप मुझे नज़र लगा देंगे। अपनों की नज़र
ज़्यादा लगती है।?’
‘मेरी नहीं लगती, मैं नज़रबट्टू हूँ।’ मेरी बात पर ज़ोर से हँसने लगती है।
सचमुच हरजीत को मेरी नज़र लग गई थी। जब से जैस्मीन और उसका पति गए हैं वह बिलकुल ही बदल गई है। अब वह बाल खुले छोड़ कर नहीं झटकती। उसके बालों के नागों ने डसना छोड़ दिया था। कूंजें अब आसमां में नहीं उड़तीं।
‘दीदी और जीजू हर तरह हमारी मदद करना
चाहते हैं। अगर आपको आईलेटस् नहीं करनी तो दीदी ने......सजेस्ट किया है।’... हरजीत ने नई तजवीज़ पेश करने के लिए भूमिका बनाई। किसी बुरी ख़बर का
अंदाज़ा लगाते हुए मेरा दिल जोर से धड़कने लगा।
‘जैस्मीन दीदी अपने देवर गैरी के साथ मुझे
वहाँ निकाल ले जाएंगी। उन्होंने गैरी को मना लिया है।’ मैंने
हडबड़ा कर सर उठाया।
‘जैस दीदी कहती हैं – गैरी के साथ मेरी
पेपर मैरेज करवा कर मुझे बुलवा लेंगी।’ हरजीत की बात सुनकर
मन भर वजनी पत्थर मेरे सर पर आ गिरा था। मैं अवाक सा खड़ा हरजीत का मुँह देखता रह
गया।
‘पहले हम दोनों को लीगल डायवोर्स लेना
होगा। डायवोर्स के बाद ही मेरी गैरी से पेपर मैरेज हो सकेगी। वहाँ जाकर मैं गैरी
को तलाक दे दूंगी। हम री-मैरेज कर लेंगे और आपको वहाँ मंगवाने के लिए मैं अप्लाई
कर दूंगी दैटस् ईजी वे। कोई रिस्क भी नहीं। थैंक गॉड। दीदी जैस और जीजू दोनों बड़े
नाइस हैं। हमारे लिए बहुत सैक्रिफाइस कर रहे हैं।’ हरजीत
दीदी-जीजू का राग अलापे जा रही थी परंतु मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
‘अमर यह सब कुछ महज़ पेपर वर्क ही होगा।
डायवोर्स, मैरेज – डायवोर्स, अगेन मैरेज। लोग ऐसा ही तो कर रहे हैं। दीदी बताती
हैं कि कई इंडियन ने तो पांच-पांच मैरेजेस भी करवाई हैं।’
हरजीत को क्या जवाब देता? अगर विदेश ही जाना होता, आईलेटस् करना मेरे लिए कौन सा मुश्किल काम था? मैं समझ गया कि हरजीत अपनी तरफ से फैसला कर बैठी थी। उसका वापस लौटना
मुश्किल है। उसे वापस लौटने के लिए कहना अभी उचित भी नहीं। हरजीत द्वारा आधी-आधी
रात तक फोन पर चैटिंग को मैंने कभी गंभीरता से नहीं लिया था। अब बात स्पष्ट हो गई
थी – हरजीत लगातार गैरी के संपर्क में थी।
‘तुम कुछ भी करने के लिए आज़ाद हो हरजीत।
मैं ब्लैंक पेपर पर साइन कर देता हूँ – जहाँ चाहो इस्तेमाल कर लेना। कोर्ट-कचहरी
जहाँ मेरे कुछ लिखने-लिखाने की ज़रूरत हो, बता देना मैं तुम्हारे साथ चले चलूंगा।
बहुत खुशी की बात है कि तुमने फैसला कर लिया है। तुम्हें अपने सपने पूरे करने
चाहिएं। कैनेडा का आसमां बहुत विशाल है, तुम उस आसमां में बड़ी से बड़ी उड़ान भर
सकोगी। मेरी फिक्र मत करना। मेरी उड़ान बहुत छोटी है, मैं इंडिया के छोटे से आसमां
के साथ ही ठीक रहूंगा। मैं इसी में खुश हूँ।’ मैंने हरजीत
द्वारा प्रस्तुत तजवीज़ में रंग भर दिए थे।
हरजीत खुश थी। मैं भी खुश दिखने का ढोंग कर रहा था। माँ
और बाबूजी को पता चला तो उनके सर की छत हिल गई।
‘बचकानी हरकतें करते हो तुम लोग भी। दोनों
ज़िद पकड़ कर बैठ गए। ऐसा कैसे हो जाएगा? ब्याह-तलाक कोई
गुड्डे-गुडिडयों का खेल है?’ माँ ने अपनी तरफ से समझाने की
भरसक कोशिशों के बाद समझ लिया कि हरजीत के लिए यह गुड्डे-गुडिडयों के खेल से भी
आसान था।
‘अच्छा जैसी तुम लोगों की मर्ज़ी।’ माँ-बाबू जी ने हथियार डाल दिए। उनकी नम आँखों का सामना करने की मुझमें
हिम्मत नहीं थी। मैं बहाना बना कर घर से
बाहर आ गया था।
‘ऐमर! मेरे ग्रैंड
पेरेंटस् वियतनाम से आए थे। हमारे देश पर अमेरिका ने हमला कर दिया था। बहुत सालों
तक युद्ध चलता रहा। अमेरिका द्वारा फेंके गए बारूद से सब कुछ तबाह हो गया था। बमों
ने उपजाऊ भूमि जला दी। मेरे ग्रैंड फादर अमेरिकी फौज की गोलियों का निशाना बने,
हमारे बड़े-बुजुर्ग भूखों मरने लगे। अन्य बहुत से लोगों की भाँति मेरी ग्रैंड माँ
अपने बच्चो को ले थाईलैंड आ गई। मेरे पिता तब लगभग सात साल के थे। यहाँ आकर
उन्होंने बहुत बुरे दिन देखे। भूख पक्की दोस्त बन गई थी। बचपन में ग्रैंड माँ से
अमेरिका द्वारा की गई तबाही के बारे में सुनती रही हूँ।’
जेसिका ने अपने परिवार की बदनसीबी की कहानी सुनाई।
‘ओह! बदनसीबियां
सारी दुनिया में एक जैसी होती हैं।’ मेरे भीतर से आह निकली।
बेशक यह आह अपनी मातृभाषा में थी परंतु जेसिका ने मेरे शब्दों में उदासी और
हमदर्दी को महसूस कर लिया था। शायद दु:ख और हमदर्दी की भाषा
सारी दुनिया में साझी होती है।
‘यहाँ तो लोग अय्याशी करने आते हैं.....
तुम इस मकसद से नहीं आए हो। समझ नहीं आ रहा कि तुम क्या लेने आए हो। जिस दिन से आए
हो मुझे साथ लिए फिरते हो। मैं तुम्हारी बाँहों पर सर रखकर सो जाती हूँ – तुम जगते
रहते हो। तुम्हें बिलकुल भी नींद नहीं आती। मैंने महसूस किया है कि किसी ने
तुम्हारी नींद का क़त्ल किया है।’ जेसिका मेरे दोनों हाथों
को अपने छोटे-छोटे और मुलायम हाथों में लेकर धीरे-धीरे दबाने लगी।
मैं कहना चाहता हूँ – ‘मेरी नींदों का क़त्ल करने वाले आजकल अपने नए सजना संग कैनेडा के विशाल
आसमां में उड़ान भर रहे हैं।’ परंतु मैंने कहा नहीं।
हम काफ़ी देर ख़ामोश रहे। शायद जेसिका मेरे अंदरूनी
ज़ख्मों के बारे सोच रही हो परंतु मैं जेसिका जैसी जिस्म बेचने वाली लाखों
युवतियों के बारे में सोचने लगा।
थाईलैंड में एक मिलियन से भी ज़्यादा औरतें जिस्मफरोशी
के धंधे में हैं। अगर सीधे और साफ़ शब्दों में कहा जाए तो मुल्क की अर्थव्यवस्था
चलती ही इनके भरोसे है। विश्व भर के देशों से संपन्न लोग जहाज़ों में भर कर बैंकॉक
के इंटरनेश्नल एयरपोर्ट पर उतरते हैं। अन्य कामों वालों तो कम ही आते हैं, शायद
अपने सुभाष जैसे ही अधिक होते हैं, भीतर जमे पड़े जंग को उतारने वाले। थाईलैंड
एयरवेज के दिल्ली इंटरनेश्नल एयरपोर्ट से इड़ान भरते ही अर्जुन विवेक ने अपने
ज्ञान का बहुमूल्य खज़ाना मेरे सामने खोल कर रख दिया था।
‘द्वितीय विश्वयुद्ध में थाईलैंड लंबे समय
तक अमरीकी फौजियों की छावनी बना रहा। तुम्हें पता ही है अमरीका यहाँ से हज़ारों
मील दूर है। घर से कई-कई महीने दूर बैठे अमरीकी फौजियों ने अपनी अंदरूनी ज्वाला को
किसी तरह शांत तो करना ही था। और सुनो, अमरीकी सरकार अपने फौजियों को स्पेशल खर्च
देती थी इस काम के लिए। यार इतना समय औरत के बिना काटना कौन सा असान है। अमरीकियों
के अन्याय ने थाई औरतों को देह व्यापार में खींच लिया। समझ लो थाईलैंड की सेक्स इंडस्ट्री अमरीका का
प्रोडक्ट है। संभवत: तब से शुरू हुआ यह काम चल रहा है सो चल
रहा है। अब तो न सरकार रोकना चाहती है और न रोकती है। सच्ची बात तो यह है कि रोक
ही नहीं सकती। यूं समझ लो अगर यह इंडस्ट्री बंद हो गई तो आधे से ज़्यादा थाईलैंड
भूखा मर जाएगा। पूरे सफ़र में अर्जुन थाईलैंड के देहव्यापार मंडी के बारे में
व्याख्यान देता रहा।
अर्जुन की बातें सुनकर मैं सोचता रहा था – धक्काशाही
किसी की भी हो, किसी देश की या किसी वर्ग की, इसका शिकार औरतों को ही होना पड़ता
है। ख़ास तौर से गरीब औरतों को। काफ़ी समय पहले किसी किताब में पढ़ा था – प्राचीन
काल में आख्यान के अनुसार निम्न जाति की औरतों को ज़बर्दस्ती देवदासी बना कर धार्मिक
स्थलों पर रखा जाता था। ये बेबस मजबूर औरतें तीर्थ यात्रा पर आए उच्च जाति के
लोगों की हवसपूर्ति के लिए खिलौने की भाँति इस्तेमाल की जाती थीं।
‘ऐमर! आज चार दिन हो
गए तुम्हारे साथ रहते हुए। तुमने हवस पूर्ति के लिए न सही सहचर्य के लिए मुझे अपने
साथ रखा है न। मेरी मज़दूरी तो बनती है न? तुम्हारे केस में
इसे मज़दूरी न भी कहें– रेंट तो कह ही सकते हैं कि नहीं?
कितने बाट मिलेंगे मुझे?’ जेसिका के सवाल ने मुझे यादों से
बाहर निकाला। मुझे महसूस हुआ, यह सब जेसिका ने मेरा ध्यान बंटाने के लिए ही किया
वरना चार दिनों में उसने पैसों के बारे तो कोई बात ही नहीं की। शायद उसे मेरे भीतर की शून्यता का कुछ आभास हो
गया हो।
‘जितने चाहिए खुद ही निकाल लो। मैं तो
कहता हूँ सारे ही रख लो। मेरे किस काम के? मैं क्या करूंगा?’ मैंने
पर्स जेसिका के हाथ में दे दिया। उसने पर्स से पैसे निकाले और बड़े सलीके से अपनी
पर्स में रखे। अपनी हरकत का प्रतिक्रम देखने के लिए रहस्यमयी निगाहों से मेरी तरफ
देखा। प्रतिक्रम मैं मुस्कुरा उठा।
‘तुम्हें पैसों की ज़रूरत नहीं?’
‘क्या करना है?
मैंने पहले वाले शब्द ही दोहराए।’
‘बाकी टुअर कैसे होगा?’
‘इसकी फ़िक्र पंकज को होगी या अर्जुन
विवेक को जो मुझे ज़बरदस्ती लेकर आया। खाने-पीने और रहने का सारा खर्च वे ही कर
रहे हैं। अपने लिए मुझे कोई शॉपिंग करनी नहीं और किस काम के लिए चाहिए तुम्हारे
देश की करंसी?’
‘सच?’
‘बिलकुल सच। कुछ नहीं चाहिए मुझे। इसीलिए
तो कहा कि सारे ले जाओ।’
‘ऐमर! तुम बहुत
अच्छे हो। औरत तुम्हारे साथ खुश रह सकती है। मेरे ख़याल से तुम्हारी पार्टनर
तुम्हारे साथ बहुत खुश है।’ जेसिका के शब्दों ने मुझे घायल
कर दिया।
‘ऐमर, हम जिस्म बेचते हैं – ईमान नहीं।
जितने बनते हैं, उतने ही लूंगी। तुमसे तो वह भी लेने नहीं बनते।’ जेसिका ने अपने पर्स से पैसे निकाल कर वापस मेरे पर्स में रख दिए।
‘जेसिका एक बात पूछूं? सच बताना।’
‘क्या?’
‘जेसिका तुम्हारा असली नाम है?’
‘तुम्हें क्या लगता है?’
‘मुझे तो नहीं लगता कि यह तुम्हारा असली
नाम है।’
‘हमारे धंधे वालों को तो पता नहीं कितने
नाम बदलने पड़ते हैं। हर देश के ग्राहक के अनुसार, ग्राहक के धर्म के अनुसार। कई
बार तो ग्राहक भी अपना मनचाहा नाम दे देते हैं।’
‘अगर कोई ग्राहक जिस्म से रूह तक पहुंच
जाए?’
‘पहुँच जाते हैं कई तुम जैसे। मेरी एक
फ्रेंड है सू-चैई। उसका दोस्त जर्मन है। यहीं मिला था ग्राहक के तौर पर। हर महीने
रुपए भेजता है। वे लोग अगले महीने शादी करने जर्मन चले जाएंगे।’
‘और अगर तुम्हें कोई मिल जाए दूर देश ले जाने
वाला?’ मैंने हाथ से जहाज़ उड़ाया।
‘अगर बहुत पहले मिल जाता तो चली जाती।’
‘अब नहीं।’
‘अब तो अगले साल मैरेज के बारे सोच रही
हूँ।’
‘मैरेज? किस से?’
‘बौंग के साथ। अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ।
दस बरसों से हम एक-दूसरे के लिए जी रहे हैं। वह लंबे समय से मेर इंतज़ार कर रहा
है। दूर के कस्बे में एक छोटी सी शॉप चला रहा है।’
‘बौंग को तुम्हारे इस धंधे के बारे में
पता है? उसी के लिए तो पैसे जमा कर रही हूँ। साल भर तक मेरे
पास अच्छी-ख़ासी सेविंग हो जाएगी। फिर मैं बौंग के पास चली जाऊँगी। हम लोग अपने
लिए एक टुकड़ा ज़मीन खरीद कर खेती करेंगे।’
‘बौंग एतराज तो करता होगा – स्वयं को
दूसरों को सौंप देती हो।’
‘बौंग जानता है, जो मुझे उसे सौंपना है वह
किसी को नहीं सौंपती। वह मैंने अपने भीतर संभाल रखा है।’
जेसिका के जवाब से मैं भीतर तक हिल गया।
‘अगर कोई दूर देश का बहुत अमीर व्यक्ति
मिल जाए? वह देश भी बहुत खूबसूरत हो। उस देश का आसमां भी
बहुत बड़ा हो जहां तुम बहुत बड़ी उड़ान भर सको। क्या तब भी नहीं जाओगी उसके साथ?’
‘बौंग से अधिक अमीर कौन होगा? बौंग मेरे लिए सब कुछ है। दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति – दुनिया का सबसे
खूबसूरत व्यक्ति। आसमां छोटा हो या बड़ा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। बौंग के साथ मैं
बहुत ऊँची उड़ान भरूंगी।’ जेसिका ने पूरे गर्व से कहा।
‘ऐमर! यह देखो हमारी
तस्वीर। उसने अपने मोबाइल की गैलरी में से अपनी और बौंग की एक तस्वीर निकाल कर
मुझे दिखाई।
जेसिका और बौंग फूलों लदे किसी पार्क में खड़े हैं। एक
दूसरे से लिपटे हुए। जेसिका ने बौंग के कंधे पर बिलकुल उसी तरह हाथ रखा है जैसे
हरजीत ने हिमाचल की रंगीन वादियों में तस्वीर खिंचवाते समय मेरे कांधे पर रखा था।
मेरी आँखें भर आईं। मेरा जी चाहा कि जेसिका के गले लगकर ज़ोर-ज़ोर से रोऊँ।
‘वाह! बौंग सचमुच बहुत
खूबसूरत है। जेसिका तुम भी खूबसूरत हो। आपकी जोड़ी दुनिया की सबसे खूबसूरत जोड़ी
होगी।’ जेसिका ने खुशी से बालों को पीछे के तरफ झटका तो मेरा
कमरा महक उठा।
‘जेसिका अपनी यह बात कभी मत भूलना किआसमां
छोटा हो या बड़ा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आसमां में उड़ने का शौक हो तो छोटे आसमां
में भी उड़ान भरी जा सकती है।’
मैंने अपने मोबाइल से जेसिका के साथ खींची तस्वीर डिलीट
कर दी। पर्स के सभी बाट निकाल कर जेसिका के मना करने पर भी उसके पर्स में डाल दिए।
*****
लेखक परिचय
गुरमीत कड़ियालवी
जन्म – 23-12-1968, एम.ए. (पंजाबी, राजनीतिशास्त्र) सहित सिविल इंजीनियरिंग डिप्लोमा। पंजाबी साहित्य जगत में बेहद लोकप्रिय नाम। लेखन में निरंतर सक्रिय।
अक्क दा बूटा, आतू खोजी, ऊणे, ढाल, तू हारी न बचनिया आदि लोकप्रिय कहानी संग्रहों सहित ओह इक्कीस दिन उपन्यास तथा बाल साहित्य की सात पुस्तकें प्रकाशित। अनेक कहानियां हिन्दी में अनूदित-प्रकाशित। कुछ कहानियों के नाट्य मंचन तथा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल।
विशेष – आतू खोजी पर लघु फिल्म। अनेक पुरस्कारों से समादृत। सच्चियां कहानियां पुस्तक के लिए 2023 के साहित्य अकादमी बाल साहित्य पुरस्कार की घोषणा। वर्तमान में जिला लोक कल्याण अधिकारी के रूप में कार्यरत।
नीलम शर्मा
‘अंशु’
अलीपुरद्वार जंक्शन, (पश्चिम बंगाल) में जन्म। पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला से पंजाबी में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
कोलकाता से प्रकाशित न्यूज़ मैगजीन से 7 वर्षौं तक बतौर संपादकीय सलाहकार संबंद्ध तथा आयकर विभाग की विभागीय पत्रिका का दो वर्षों तक संपादन।
विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाने वाली कोलकाता शहर की हिन्दी भाषी ख्यातिप्राप्त महिलाओं पर साप्ताहिक स्तंभ के तहत् लगभग 50 हफ्तों तक एक दैनिक समाचारपत्र में कॉलम लेखन।
विशेष
उल्लेखनीय -
सुष्मिता
बंद्योपाध्याय लिखित ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ वर्ष 2002 के कोलकाता
पुस्तक मेले में बेस्ट
सेलर रही (जिस
पर मनीषा कोयराला अभिनीत हिन्दी फिल्म एस्केप फ्राम तालिबान भी बनी)। स्व. नानक
सिह लिखित उपन्यास पवित्र पापी (जिस पर बलराज साहनी, परीक्षित साहनी, तनुजा अभिनीत मशहूर हिन्दी फिल्म भी बनी थी) का अनुवाद ।
कोलकाता के रेड लाइट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास ‘लाल बत्ती’ का हिन्दी अनुवाद। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक देबेश राय के बांग्ला उपन्यास ‘तिस्ता पारेर बृतांतों’ का साहित्य अकादमी के लिए पंजाबी में अनुवाद “गाथा तिस्ता पार दी”।
स्वतंत्र लेखन के साथ - साथ समवेत स्वर, संस्कृति सेतु तथा संस्कृति सरोकार नामक तीन ब्लॉगों का संचालन।
25 वर्षों से आकाशवाणी के एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी। भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्सीयतों पर ‘आज की शख्सियत’ कार्यक्रम के तहत् 75 से अधिक लाइव एपिसोड प्रसारित।
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साभार - नवनीत , दिसंबर - 2024
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