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रविवार, जुलाई 20, 2025

कहानी श्रृंखला - 58

पाँचवां काँधा 0 दीप्ति बबूटा पंजाबी से अनुवाद नीलम शर्मा ‘अंशु’
‘बड़ी जीजी का मोह बहुत हिलोरें मारता हैतो उठाए चारपाई और ले जाए। बेटी को गुस्सा ही न मार बैठे, भई बुढ़िया से पीछा छुड़ाने के लिए कहीं बहुओं ने उसका टेटुआ ही तो नहीं दबा दिया।’ लकवे से पीड़ित गुरदेव कौर की ज़ुबान जवाब दे गई थी, परंतु कान सलामत थे। चारों बहुओं में से किसी न किसी के शब्द तीर बन कर चुभते और दिल को भी घायल कर जाते। निजी नित्यक्रिया से अक्षम हुई तो बहुओं ने चारपाई बीच में से काट उसके नीचे तसला टिका दिया। कपड़े बदलने में मुश्किल हुई तो तन पर फतूही पहना कर, निचले हिस्से पर चादर डाल दी।कभी धूल का एक कण न सहने वाली सरदारनी अब फालतू सामान बन झाड़-पोंछ के लिए तरसती रहती। एक ही इंतज़ार। कब मौत आए, कब जान छूटे। जिस बेटे के सहारे जीती थी, उसने भी हड्डियों की गठरी संभालने से पल्ला झाड़ लिया था। सवाल उठा, जब माँ सबकी साझी है तो फिर उसकी ज़िम्मेदारी कोई एक अकेला क्यों उठाए? और, फैसला हो गया। माँ को बारी-बारी से महीना-महीना भर सभी बेटे अपने पास रखेंगे। पिता द्वारा मृत्यु से पूर्व माँ के नाम लिखी जायदाद का आकलन करवा कर जिस किसी का हाथ तंग न हो अपने नाम कर ले, बाकियों को हिस्सा दे दे। नहीं तो बेच दी जाए। बहनों को एक-एक तोला सोने की बालियां बनवा कर बाकी रकम चारों भाई आपस में बाँट लें। न कोई अकेला खाए, न किसी के पेट में ऐंठन हो। जिसके घर माँ अंतिम साँस लेगी, अंत्येष्टि की रस्में उसी के यहाँ निभाई जाएंगी। खर्च सभी भाईयों द्वारा साझे तौर पर किया जाएगा। लंबी उम्र भोग कर भगवान को प्यारी हुई माँ का संस्कार इस तरह किया जाए कि बिरादरी की आँखें फटी की फटी रह जाएं। सब कुछ निर्धारित कर गुरदेव कौर की चारपाई एक से दूसरे बेटे के दर के फेरे लगाने लगी। गली के चक्कर लगाती चारपाई मुहल्ले में लगने वाली मजलिसों के लिए जिह्वा और कर्ण रस बन गई थी। महीने का अंतिम सप्ताह जहाँ एक पुत्र के लिए सुकून और राहत भरा होता वहीं दूसरे के घर में महीने के मध्य से ही मातम पाँव पसारने लगता। शुक्र और मुसीबत की मुँह बोलती तस्वीर बनी गुरदेव कौर सूख कर काँटा हो गई थी। कई-कई दिन आँखों में नींद न ठहरती। सोती तो जगना भूल जाती। सीधी कर देते तो वह एक टक छत की तरफ देखते हुए बाँहें उलारने लगती। साइड बदल देते तो दरवाज़े की तरफ तकते हुए कुरलाने लगती। तंग आकर घर वालों ने उसका मुँह दीवार की तरफ कर दिया। दीवार की तरफ टकटकी लगाए वह आँखें झपकाना भूल जाती। खुली आँखें, अटल पड़ा तन परिवार के लिए आशा की किरण जगाता। दीया बाती बनाते। नीचे उतार कर अगली राह दिखाते। चलती साँस अंतिम न बनती और परिवार की उम्मीदों के खिले फूल मुरझा जाते। ‘यह न मरती। पता नहीं किन युगों का बदला ले रही है। रब जाने और कितना नरक भोगना लिखा है। बुलाओ रत्तो बुआ को। कुछ उपाय करे आकर। पता नहीं कहाँ जान अटकी है बुढ़िया की।’ *** उपाय करती गुरदेव कौर की ननद रत्तो, उसके गुणों का पिटारा खोल बैठती। ‘वक्त और बीमारी की मार से बिस्तर से लग गई। नहीं तो इसके जैसी साफ़-सुथरी सुघड़ महिला भला दूसरी कौन होती?’ गुड़ियों से खेलती गुरदेव कौर को शादी के दुपट्टे में लपेट भाईयों ने डोली में बिठा दिया। नन्हीं सी परी नाचती-कूदती हुई सोच रही थी कि जैसे वह अपनी गुड़ियों के ब्याह रचा कर डोली विदा करती है वैसे ही उसके माता-पिता उसके साथ वही गुड़ियों वाला खेल खेल रहे हैं। ससुराल में कदम रखने वाली नन्हीं मासूम सी जान के गले लाखों मुसीबतें। जेठ-जेठानी, देवर-ननद, सास-ससुर के बड़े परिवार में लंबा सा घूंघट काढ़े अपने गुड्डे के साथ छुपा-छुपी का खेल भी खेलना होगा इस बात से अन्जान। उसका गुड्डा स्वर्ण सिंह उससे लगभग सात-आठ साल बड़ा था। हल्की सी दाढ़ी। मौलवी से पाँच जमाते पास। सांसारिक हिसाब-किताब करता। कठपुतलियां नचाना जानता। कभी शाह की दुकान से मीठी गोलियां लाकर गुड़िया की मुट्ठी में भर देता तो कभी फूल-मखाणे। कभी उससे रूठ जाता, कभी साथ के मुहल्ले के बच्चों के साथ खेलने पर पीट देता। फिर लाड से उसके बालों में फूल-पत्ते टांक देता और दीये को फूंक मार कर बुझा कर उसके आँचल में बताशे डाल बहलाने लगता। गुड्डे के साथ खेलती गुड्डी कभी बहल जाती तो कभी रूठ जाती। रूठने-मनाने के खेल में वह घर के छोटे-छोटे कामों में सास का हाथ बंटाने लगी। गुणों का पिटारा सास, माँ से भी ज़्यादा लाड लडाती। गुरदेवां, गुरदेवां करते मुँह न थकता। बच्ची जान उस पर ज़्यादा बोझ न डालती और खेलने देती। हँसती, खेलती गुरदेव कौर साथ लगते मुसलमानों के मुहल्ले में जा बैठती। भाभी फातिमा के साथ रंग-बिरंगी सेवइयां बनाती। मेवे और चावल चुनती। कभी दूसरे छोर पर चौधरियों के मुहल्ले में रहती अम्मा नरैणो के चरखे की पूणी कातने लगती। दरी में बेल-बूटे बनाना सीखती स्वर्ण सिंह के चादरे (तहमद) पर मोर नचाने लगी। कब कपड़े आए, कब गोद हरी हुई सब कुछ से बेखबर अपने गुड्डे का हाथ थामे गृहस्थी की दौड-भाग में जुट गई। कोख से खिली कली ने किलकारी मारी। वह गुड़िया से गुड़िया की अम्मी बन गई। नन्हीं सी गुड़िया को गोद में उठाए हाथों में उछालती लोरियां सुनाती – हँस रे रुई के बावे, माँ वारी जावे....। तेरी दूर हों सारी बलाएं, माँ लाड लडाए...। घर के बुजुर्ग ने पोथी से वाक ले कर उस गुड़िया का नाम वीरपाल कौर रखा। तिस पर वीर लेकर आने की अरदास करते हुए वह वीरां हो गई। वीरपाल अभी मुश्किल से छह माह की हुई थी कि गुरदेव कौर के दिन पूरे हो गए। उसकी कोख में एक और प्राणी पलने लगा, अहसास तब हुआ जब पसली के एक तरफ हल्की सी सरसराहट सी महसूस हुई। लगा नाग से मिलती-जुलती शै घूम कर दूसरे कोने में जा घुसी हो। पीपल के नीचे वीरां के साथ वीर के खेलने की कल्पनाएं होने लगी। चांदनी और अंधियारी रातों का हिसाब-किताब कर बेटी होगी या बेटा की तकरीरें होने लगीं। बुजुर्ग महिलाएं गुरदेव कौर की नाभी से धागा नाप कर शर्तिया पुत्र होने की तसल्ली देतीं। दायां पैर पहले उठाती है, लड़का ही होगा। बीबी नरैणों ने पक्की मोहर लगाई और जचगी से पहले ही बताशों की टोकरी बाँट सभी शगुन के गीत गाने लगीं। पूनम का चाँद पूरे शबाब पर दमक रहा था। गुरदेव कौर के पेट में दर्द उठा और पसलियों में से धुआँ सा उठने लगा मानो। रात का दूसरा पहर शुरू हुआ। प्रसव वेदना से कराहती गुरदेव कौर के कानों में बेटे का पहला रूदन सुनाई दिया। माँ के मुँह से निकला, ‘चंदा’ मेरा ‘चंदा।’ चंदा की चूरी कूटने की रस्म तीन मुहल्लों ने साझे तौर पर निभाई गई। साझे चूल्हे पर भाँति-भाँति के पकवान बनाए गए। तीन मुहल्लों की साझी रग। कुश्तियां होती, अखाड़े लगते। सभी एक-दूसरे के सहारे पुष्पित-पल्लवित होते। मर्द काम-धंधों में साझेदारी निभाते तो गृहणियां भी चूल्हे-चौके से फारिग हो बड़े पीपल के नीचे चारपाई बिछा लेतीं। रस्सियां बटी जातीं, नाड़े अटेरे जाते, बाग-फुल्कारियों में रेशम से सुगंध भरते हुए दिल की गिरहें खोलतीं। देसी नुस्खे पूछे और बताए जाते। पीपल ही वैद और हकीम बन जाता। सावन का महीना आते ही पीपल तीज बन नाच उठता। *** कौन जानता था...? हँसी-ठिठोली के फव्वारों में से कोई एक कड़कड़ाती हुई बिजली ज़मीन पर गिरेगी, आसमान दो हिस्सों में बंट जाएगा। देखते-देखते हँसों की कतारों ने भेड़ियों का रूप धारण कर लिया। क्षत्रियों और चौधरियों के मुहल्ले एक तरफ। दूसरी तरफ मुसलमानों के मुहल्ले ललकारने लगे। ‘जान से ही जहान है। जैसे भी हो निकलने की करो। शांत होते ही लौट आएंगे मुहल्ले में। घर ढह भी जाए, तो ज़मीन कहीं नहीं जाती।’ घर के बुजुर्गों ने गहने वगैरह आँचल से बांध गुरदेव कौर और उसकी देवरानियों-जेठानियों को आगे कर लिया। देखते ही देखते पीपल की छाया वीरान हो गई। शाम हो रही थी।किसी तरफ सेभी स्वर्ण सिंह और उसके भाइयों की कोई खोज-ख़बर न मिली। गुरदेव कौर के मन में उबाल सा उठने लगा। दोनों बच्चों को सास की गोद में डाल बरसती आग में पति को ढूँढने निकल पड़ी। मील भर ही चल कर गई कि चीख-पुकार करते लोगों की भीड़ को मुहल्ले की तरफ आते देखा। ‘हाय मेरा गुड्डा और गुड़िया।’ रोते-बिलखते उन्हीं कदमों से घर की तरफ दौड़ पड़ी। अचानक उसके पैरों के पास बर्छी गिरी और किसी ने सर से कपड़ा खींच लिया। ज्यों ही मर्दाना बाँहों ने उसकी कमर के गिर्द घेरा डाला, वह दुर्गा बन दहाड़ी। आव देखा न ताव पूरे ज़ोर से अपनी उलटी टाँग वहशी के गुप्तांग में दे मारी। पीड़ा से कराहते हुए बल खाकर वह ज़मीन पर सिकुड़ गया। गुरदेव कौर ने बर्छी उठाई और उसके पेट के आर-पार कर दी। खून से लथ-पथ बर्छी हवा में लहराते हुए चंडी बन घर की तरफ दौड़ पड़ी। दोनों बच्चों को सीने से लगाया और भौंचक सी देखते हुए वह काफ़िले में जा मिली। स्वर्ण सिंह का ख़याल मन को तड़पा रहा था। अंतर्मन कराह उठता। तेरी सस्सी थलों में मारी फिरती कहाँ छुपा है मेरे चाँद वे मोड़ मुहार वे दिल के जानी तेरे बगैर अंधेरे वे मेरी रूह के राजा। अफ़रा-तफरी में छोटे-छोटे दो मासूमों को गोद में उठाए गुरदेव कौर काफ़िले से पिछड़ गई। बीयाबान। आदमी न परिंदा। वह कुछ मील चलती गई। फिर तन से प्राण निकलते से प्रतीत हुए। थक, हार कर एक पेड़ की आड़ में बैठ गई। वीरपाल और चन्न को आँचल में लिए उन्हें पलोसा। चन्न का बदन भट्ठी की भाँति तप रहा था और वीर भी नीम बेहोशी में ऊँघ रही थी। गुरदेव कौर की जान पर बन आई। घबरा कर उसने कुर्ती हटा कर लड़के को सीने से लगा लिया। दो दिन से भूखा पेट, दूध कहाँ से उतरता। सूखी छातियों को पीटते हुए गुरदेव कौर चीत्कार कर उठी। बच्चों को काँधे से लगाया और जिधर मुँह हुआ उधर दौड़ पड़ी। अचानक पानी से भरे एक तालाब पर निगाह पड़ी। बच्चों को तालाब के किनारे लिटा कर सर से दुपट्टा उतारने के लिए सर की तरफ हाथ बढ़ाया। सर नंगा था। अपनी कुर्ती के सामने वाले घेरे से थोड़ा सा छोर फाड़ कर पानी में डुबो कर दोनों बच्चों के माथे पर पट्टियां रख दीं। बूंद-बूंद पानी उनके होठों से लगाया। बच्चों ने करवट ली। आँसुओं के सैलाब में दोनों बच्चों को बारी-बारी से चूमते हुए इधर-उधर नज़र दौड़ाई। कुछ फर्लांग की दूरी पर मुँह में रोटी का टुकड़ा लिए कुत्ता दौड़ा जा रहा था। गुरदेव कौर ने पत्थर उठाया और पूरे ज़ोर से कुत्ते पर दे मारा। कुत्ते के मुँह से रोटी गिर गई। उसने एक और पत्थर उठाया और कुत्ते का टाँगों पर दे मारा। कराहता हुआ कुत्ता भाग गया। गिरते-पड़ते रोटी का टुकड़ा उठाया। सूखा लकड़ी जैसा। पानी में भिगोया। कुछ नर्म हो गया। थोड़ा-थोड़ा सा तोड़ कर बच्चों के मुँह में डाला। ढलता हुआ दिन ख़ौफ़ बन सर पर मंडराने लगा। समझ न आए किधर जाए। रब का नाम ले दोनों बच्चों को गोद में उठा लिया। पैरों की सेध में कदम बढ़ाया ही था कि चन्न की गर्दन एक तरफ लुढ़क गई। तेज़ बुखार से वह फिर बेहोश हो गया था। गुरदेव कौर के हाथ-पाँव फूल गए। उसने दोनों बच्चों के मुँहों की तरफ देखा। दिल कड़ा करके वीरपाल को एक पेड़ के नीचे बिठाया और चन्न को गोद में ले कदम आगे बढ़ाया। पीछे मुड़ कर देखा वीरपाल बाँहें फैला कर रोए जा रही थी। माँ की ममता ने उछाल मारा। कदम रुके, फिर गोद के बच्चे को संभालते हुए दौड़ पड़ी। वह किधर दौड़ रही थी, होश नहीं। हल्का-हल्का अंधेरा छाने लगा था। लोगों की आवाज़ें कानों में पड़ी। सर पर बर्छे मंडराने लगे। आँखों के सामने अंधेरा छा गया और वह चक्कर खाकर ज़मीन पर गिर पड़ी। *** होश आया। सीने से लगी हिचकियां लेती वीरपाल बीबी, बीबी पुकार रही थी। गुरदेव कौर घबरा गई। ‘चन्न, मेरा चन्न कहाँ है?’ ‘ठीक है तेरा चन्नभी। बेटी को संभाल। कहाँ छोड़ आई थी अभागी उसे?’ उसका सर सहलाते हुए बीबी नरैणो ने पूछा। ‘चन्न कहाँ है बीबी? वीरां कैसी है? इनका बापू ? हम कहाँ हैं?’ उसकी आँखें फिर मुंदने लगीं। सुनसान-बीयाबान में अकेली बिलखती बच्ची को देख तेरा काका लाख रोकने के बावजूद न रुका और गोद में उठा लाया। वह तो मैंने पहचान लिया, कि भई यह तो गुरदेवां की वीरो है। जैसे भी हो सका अपने बच्चों के संग इसे भी लेते आए। अब संभाल इनको और होश से काम ले। शुक्र कर शरणार्थी कैंप में पहुँच गए हैं। कह कर नरैणो ने ला कर चन्न को भी उसकी गोद में डाल दिया। *** भारत-पाकिस्तान दो आज़ाद देश अस्तित्व में आ चुके थे। बंटवारे का शिकार हुए लोगों के पुनर्वास का काम शुरू हो चुका था। पाकिस्तान से ज़मीन-जायदाद के विवरण के अनुसार गुरदेव कौर के परिवार को विभाजित पंजाब के अलग-अलग स्थानों पर सौ एकड़ ज़मीन अलॉट हो गई। किसी मर्द का साया सर पर न बचा था। बूढ़ी सास और दादा ससुर के सहारे बाल-बच्चे ले सभी शरीकनों ने हुसैनी वाला बॉर्डर से कुछ किलोमीटर दूर अपने हिस्से आई ज़मीन पर आ डेरा डाला। गुरदेव कौर और उसकी देवरानियां-जेठानियां भाग-भाग कर रास्तों की धूल खंगालतीं। रहबर आँखों का नूर न बनते। वे बिलखतीं, तड़पतीं। न हवा तन को सुहाती जीवन को खोखला बनातीं कैसा हरियाला सावन दिल के महरमा वे हमें मिली जुदाइयां...। क्षत्रियों के मुहल्ले के सभी मर्द पता नहीं किस कुएं में जा गिरे थे, कोई खोज-ख़बर नहीं। धीरे-धीरे यकीन होने लगा, मुहल्ले पीछे छूट गए। अब इधर फिर से टोलियां बसानी पड़ेंगीं। अपने हाथों से गारा ढोया, ईंटें थापी, लिपाई की और गुरदेव कौर ने भी अपने बच्चों के लिए एक कोठरी बना ली। ज़िंदगी की गाड़ी फिर से चल पड़ी परंतु पीछे छूटीं मुहल्ले की बड़ी हवेली और पीपल की छांव में लगने वाली महफिलें दिल में टीसतीं। स्वर्ण सिंह की मधुर यादें दिल को मथतीं। रात भर करवटें लेते हुए बच्चों की तरफ ध्यान लगाती – सोने का पलंग बिछाऊं उस पर सलोने लल्ला को खिलाऊं तेरी दूर हों सारी बलाएं जगत के प्रकाश पिता का अंश बढ़ाना। लोरी कब वैराग्यपूर्ण गीत में बदल जाती पता ही नहीं चलता, टूट गए पायल के घुंघरू वे रूठ गए वन के मोर वे तू मोड मुहाड़ वे दिल के महरमां तेरे बिन जग अंधियारा वे रूह के राजा मैं खींचूं माटी में लकीरें। रो-रो आँसू भी सूख गए। आख़िर गुरदेव कौर और उसके बाकी शरीकों ने भाग्य के सामने हथियार डाल पीछे छूटे रिश्तों के तार तोड़ डाले। गुरदेव कौर ने शादी वाला सालू (दुपट्टा) संभाल कर रख दिया और सफेद दुपट्टा ओढ़ लिया। खुद ही खेती-बाड़ी करने की ठानी। बीयाबान बंजर धरती को खेतीयोग्य बनाना कौन सा आसान काम था। शरीकों के साथ साझी खेती शुरू की। वीरपाल और चन्न उसके बिना एक पल न रहते और वह उनके बिना। आठ-नौ महीने इस जद्दो-ज़हद में गुज़र गए। किसे मालूम था कि जीवन के पतझड़ में फिर से बहार दस्तक देगी और सूखे की मारी धरती फिर से उपजाऊ बन जाएगी। दोनों मुल्कों की सरकारों ने पीछे छूट गए लोगों को अपने-अपने मुल्क भेजने का प्रबंध किया। इसी अवसर ने गुरदेव कौर की उजड़ी दुनिया को फिर से आबाद कर दिया। प्रभात ने आँखें खोलीं तो गुरदेव कौर के जीवन के अंधियारे का ख़ात्मा हो गया था। स्वर्ण सिंह ने छहों भाईयों सहित उस मुहल्ले के चौराहे पर आ कदम रखा। आँखों के समक्ष आँखों के नूर को साक्षात् देख गुरदेव कौर की ऊपरी साँस ऊपर और निचली साँस नीचे रह गई। नए सपने बुनती गुरदेव कौर बच्चों के गिर्द चकरी की तरह घूमती रहती और स्वर्ण सिंह उसके गिर्द लट्टू बन घूमता रहता। धूप-माटी में माटी बनती गुरदेव कौर पर वह ठंडी छाह बना। खेती का काम खुद संभाल कर गुरदेव कौर को कच्ची हवेली की पटरानी बना कर रखा। वक्त से साथ ज़िंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर आने लगी। तिस पर एक के बाद गुरदेव कौर के घर तीन बेटियों और तीन बेटों ने जन्म लिया। चार बेटों की माँ गुरदेव कौर नम आँखों से कहती – ‘अपने खून से सींचे चार कांधों पर सवार हो कर रब के घर जाऊँगी।’ जो मोह चन्न से था, बावजूद इसके वैसा चाह कर भी बाकियों के साथ महसूस न करती। दूसरों के मुँह से निवाला निकाल कर चन्न के मुँह में डालने तक से गुरेज न करती। उस पर वारी वारी जाती परंतु स्वर्ण सिंह सभी को एक नज़र से देखता। खुद शिक्षित था इसलिए बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की उपेक्षा नहीं की। सात वर्षीय चन्न का स्कूल में दाखिला करवाया। पढ़ाई में अच्छा निकला। स्कूल उनके मुहल्ले से आठ-नौ किलोमीटर दूर शहर में था। पैदल आते-जाते बच्चे के घर पहुँचने तक माता-पिता दोनों की जान पर बनी रहती। बरसात आती तो मुहल्ले से शहर तक का कच्चा रास्ता दलदल का रूप ले लेता। जी कड़ा करके दो एकड़ खेत बेच कर शहर में एक बीघा ज़मीन खरीद कर हवेली बना ली। वक्त पर वीरपाल के हाथ पीले कर ससुराल विदा कर दिया। गोद में बेटी उठाए माँ का छठी जचगी करवाने आई वीरपाल से गुरदेव कौर आँखें न मिला पा रही थीं। सातवीं बार कोख हरी हुई तो चन्न की मंगनी हो चुकी थी। उधर चन्न की बारात निकली और इधर गुरदेव कौर को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। डोली घर आने तक चन्न की छोटी बहन का आगमन हो चुका था। आठवें प्रसव तक वह पोते-पोती और चार नाती-नतिनी वाली हो चुकी थी। छोटू ने माँ के साथ-साथ भाभी का भी स्तनपान किया। सास को संग ले अपनी नसबंदी करवाने गई चन्न की पत्नी ने सास की भी नसबंदी करवा दी। उधर से उजड़ कर इधर आकर जड़ें फूलने-फलने लगीं। दसवीं पास करते ही चन्न के लिए सरकारी द्वार खुल गए और वह पटवारी लग गया। खेतों की संख्या बढ़ने लगी। मवेशियों के लिए बाड़ा बनाया गया। आँगन में फल लगते, फूल महकते। घनी छाया में झूले की हिलोर का आनंद लेते बच्चों की किलकारियां रूह को सकून देतीं। स्वर्ण सिंह की हवेली मानो मेला बन गई। *** शहर के केंद्र में बनी स्वर्ण सिंह की हवेली के तीन तरफ सड़क थी। बाज़ार बढ़ते-बढ़ते हवेली से आ लगा। शहरी रंग में ढलते स्वर्ण सिंह ने भी वहाँ मार्केट बना डाला। स्वर्ण सिंह मुहल्ले में ही नहीं शहर के आस-पास भी सरदार स्वर्ण सिंह के तौर पर जाना जाने लगा। स्वर्ण सिंह सरदार हुआ तो गुरदेव कौर सरदारनी हो गई। चीज़ें रख-रख भूलती। एक उतारती, एक पहनती, बन-ठन कर रहती। बेटे-बेटियां भी अपनी-अपनी जगह दूधो नहाओ, पूतो फलो को चरितार्थ करते हुए गृहस्थ हो गए। बड़े कुटुंब वाली वीरपाल को साँस लेने की भी फुर्सत न मिलती परंतु माँ और चन्न से उसके मोह में कमी नहीं आई। छुटपन में माँ द्वारा पेड़ के नीचे छोड़ आने वाली घटना भले ही भूल गई थी, परंतु एकांत से हमेशा उस डर लगता। सोई हुई घबरा कर उठ जाती। माँ को तलाशने लगती। घड़ी भर माँ न दिखे तो घर सर पर उठा लेती। घर-गृहस्थी वाली होने पर दस-पंद्रह दिनों में मायके फेरा डाल जाती। माँ की रत्ती भर अनदेखी उससे सहन न होती और भाई-भाभियों से लड़ पड़ती। इन्सान घड़ी भर में तोला तो घड़ी भर में माशा। दंत कथाओं की भाँति सुनी-सुऩाई एक बार चन्न की पत्नी ने वीरपाल के मुँह पर सुना दिया- ‘अच्छा ख़ासा पीछा छुड़ा छोड़ आई थी माँ। बड़ी चौधराइन नरैणो उठा लाई इसे... हमारा लहू पीने के लिए। फिजूल का सरदर्द। हर दूसरे दिन मुँह उठाए आ जाती है।’ सुन कर चन्न को ऐसा गुस्सा आया, आँगन में रखा घोटना उठाया और पत्नी की धुनाई कर दी। सारा परिवार छुड़ाने में लगा परंतु वह किसी के काबू न आए। मायके की ख़ैरियत माँगती वीरपाल अपने घर लौट गई। चन्न की पत्नी ने ऐसा बखेड़ा खड़ा किया कि बात बंटवारे तक आ पहुँची। स्वर्ण सिंह ने समझदारी से काम लिया। जितने बेटे उतने चूल्हे। उस हवेली के पाँच हिस्से कर दिए। चार बराबर हिस्से चार बेटों के और पाँचवां हिस्सा गुरदेव कौर के नाम करके चालू बरस की फसल का मुनाफा बेटियों में बाँट दिया। दो दुकानें बेटियों के नाम कर दीं। गुरदेव कौर का हिस्सा जब तक वे दोनों ज़िंदा हैं दोनों का। उनकी मृत्यु के बाद दोनों में से बाद में रहने वाले की जिस घर में देख-भाल की जाएगी उस का होगा। मृत्यु के बाद की रस्मों का सारा खर्च उस हिस्से में से किया जाएगा। बड़ी हवेली में वृक्षों की जगह दीवारों ने हथिया ली थी। *** अपने-अपने घरों में सभी आनंद से रह रहे थे। चन्न और वीरपाल अपने बच्चों को ब्याह कर दादा-दादी और नाना-नानी बन गए थे। पौत्र-वधु से गुरदेव कौर बहुत स्नेह करती थीं। वह भी दादी सास का सास से भी ज़्यादा आदर-सत्कार करती। चन्न की बीवी बहू पर लाख निगाह रखती परंतु फिर वह सास की नज़र बचा कर गुरदेव कौर के पास जा बैठती। पौत्र-वधु ने जब पुत्र को जन्म दिया तो गुरदेव कौर के पाँव ज़मीं पर न पड़ते। मूल से ब्याज प्यारा होता है और जब चक्रवर्ती ब्याज उस की तरफ बाहें फैला कर गोद में चढ़ने की ज़िद करता तो वह वारी-वारी जाती। आने-बहाने चक्कर लगा कर वह चन्न की दहलीज़ लांघ जाती। जहाँ समय पर ज़मीन-जायदाद की बंटवारा कर स्वर्ण सिंह ने पुत्रों में से लड़ाई की जड़ उखाड़ फेंकी थी, वहाँ हवेली में उठती दीवारों ने गुरदेव कौर को दु:खी कर दिया। उसे पीछे छूटी पिपली याद आती। फिल्म की भाँति चलती ज़िंदगी की रील उसे भीतर ही भीतर मथती रहती। हवेलियों की बनी महारानी बीबी खड़े चौबारे रंग करतार के छाई हरियावल और बंबियो से छर्राटे पूरबी हवाएं चले पंछी फिर क्योंकर उदास रे? *** काम करता स्वर्ण सिंह उड़ता फिरता। मजबूत तन। जीवन भर कभी पेट दर्द का चूरण तक न खाया। धीमी-धीमी उठती पीड़ा पसली में शूल सी बन बैठी, चंद दिनों में ही बिस्तर से लग गया। कैंसर किस शै को कहते हैं, वह क्या जाने भला। अंतिम स्टेज बता डॉक्टरों ने सेवा करने की सलाह दे घर भेज दिया। संक्राति का दिन। रात का अंतिम पहर। गुरुद्वारे के माइक से अमृत काल का वाक्य कानों में पड़ा। स्वर्ण सिंह ने अंतिम हिचकी ली। बेटों ने चारपाई से उतार दीया बाती की कि पंछी उडारी मार गया। पति का बिछोड़ा गुरदेव कौर के लिए असह्य हो गया। बुत बनी एक टक स्वर्ण सिंह के मृतक शरीर को तकती जाए। आँखों से एक आँसू तक न गिरा। वीरपाल का रूदन पत्थर दिलों को भी दहलाता – एक बार आँखें खोल वे मेरे बाबला अम्मड़ी के सामने छाया अंधेर वे जग के नूर हमारा हुआ मंदा हाल वे जिंद के रखवाले हमें भी ले चल साथ वे रूह के राजा। चन्न ने माँ को आलिंगन में ले चीत्कार किया और गुरदेव कौर भी बिलख पड़ी। छाती पीट-पीट कर विलाप किए जाए। उसे संभालना मुश्किल हो गया। गश पर गश आती जाए। अंतिम दर्शनों के लिए स्वर्ण सिंह का मृतक शरीर शोक-स्थल पर रखा गया। गुरदेव कौर पति के शव के साथ लिपट गई। जैसे-तैसे उसे अलग किया गया। चारों पुत्रों ने पिता की अर्थी को काँधा दिया। शवयात्रा ने दहलीज लाँघी और गुरदेव कौर को पक्षाघात का दौरा पड़ गया। एक बुजुर्ग ने चावल के दानों जितनी अफीम अपनी जेब से निकाल कर उसकी ज़ुबान के नीचे रखी, परंतु कोई फ़ायदा न हुआ। अंतिम भोग की रस्म तक मातमपुर्सी के लिए लोग आते रहे। गुरदेव कौर को होश न थी। परमात्मा की इच्छा मान सब्र करने का हौसला देते सगे-संबंधी अपने-अपने घरों को लौट गए। जितने दिन वीरपाल रही माँ को एक मिनट के लिए अलग न छोड़ा। घर-गृहस्थी वाली थी सो रोती-बिलखती वह भी अपने घर लौट गई। *** ‘मरने वालों के साथ मरा तो नहीं जाता माँ, संभलो ज़रा।’ चन्न दूध में भिगो-भिगो कर निवाला माँ के मुँह में डालता। वह चौथाई भर रोटी खा लेती। संग-संग उसे शौच की हाजत होने लगती और कपड़े ख़राब हो जाते। चन्न की घरवाली पर मुसीबत टूट पड़ती। वह नल से पाइप लगा कर दूर से गुरदेव कौर पर पानी की बौछार करती पूरा घर सर पर उठा लेती। ‘जब एक दूसरे का विछोह नहीं सहा जाता था तो बुढ़िया को भी साथ ले मरता न। खुद तो मर गया स्यापा हमारे सिर छोड़ गया। ब्लड प्रेशर मुझे है, सूगर मुझे है। और छत्तीस रोग हैं। मुझसे नहीं संभाली जाती। न बाकी के किसी दूसरी कोख से पैदा हुए हैं? गंदगी में हाथ मारने का सारा ठेका चन्न का परिवार क्यों ले? बाकियों ने क्या जायदाद से हिस्से नहीं लिए?’ चन्न ने घरवाली की बहुत मिन्नतें की, ‘माँ मुझे बर्छियों के साये से बचा कर लाई थी। अब जब हमारी बारी आई है ममता का कर्ज़ उतारने की, ऐसा मत करो, तुम्हें रब का वास्ता है। माँ की साफ़-सफाई के लिए मैं मेड रखवा देता हूँ।’ ‘ठीक है डैडी। मैं भी देख लूंगी बीजी को। बड़ों की सेवा...।’ उसकी पुत्रवधु ने दादी सास की सेवा-संभाल का जिम्मा लेने की हामी भरी। ‘छोटा सा बच्चा है तेरी गोद में। दूसरा भले ही कल जन ले, आई बड़ी बड़ों की सेवा करने वाली।’ जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए हैं पैदा हुए और मुझसे आगे होकर चलेगी? तुम्हें क्या पता इस परिवार का। तुम हटो एक तरफ, आज मुझे दो-दो हाथ कर ही लेने दो।’ वह गली की तरफ बढ़ चली। ‘चुप होती हो या दूं तुम्हारी गर्दन पर एक....।’ चन्न ने पत्नी को डाँट लगाई, पर वह कहाँ रुकने वाली थी। ‘तुम्हारी सारी मर्दानगी मुझ पर ही चलती है। तब मुँह में दही जमा रखी थी...अपने हाथों पाला छोटा भाई तुम्हारा शरण। अभी तक मेरे नाखूनों में उसका गू... और वह साझी ज़मीन के खाते में लिया ट्रैक्टर बेच कर चुप रहा। कंपेन और ट्राली कहाँ गई, उसने पता तक नहीं चलने दिया। न वह क्या तुम्हारे माँ-बाबू जी की इच्छा के बिना शरणी के परिवार के पेट में उतर गया सब ? उनके कोई अलग पेट है क्या... ? मुझे भूल गया क्या खेत बेचा बापू ने और पैसा हड़प लिया देबी ने। आए मैदान में कौन आता है, आज निपटारा हो ही जाए।’ उसने छाती ठोकी और देवरानियां भी मुकाबले में आ डटी। ‘बात तो तुम्हारी ठीक है दीदी परंतु सोच लो। हिसाब मांगा तो तुम्हें सबकी भरपाई करनी मुश्किल हो जाएगी। माँ जी ने छुपा-छुपा कर जो तुम्हारी जेबें भरी हैं, किसी छुपा है क्या। दस-दस तोले के रानीहार तुमने गटक लिए। चाँदी की गगरियां, शिकंजी सेट...।’‘देखो भाई तुम दोनों बहुत सयानी हो। पतियों को पल्लू से बाँध कर नचा-नचा कर घर भर लिए। मारे तो गए हम मूर्ख। बेवकूफ था मेरा पति जो बड़े के चरण धोता और छोटे को गोद में लिए फिरता रहा ताउम्र। भला मानस उस वक्त चुप रहा, जब ज़मीन-जायदाद का बंटवारा हुआ था। सड़क किनारे नहर के साथ लगती ज़मीन बड़े भाई ने संभाल ली। सामने की दुकानें छोटे ने कब्जा लीं। बीच में रहा गया मेरा देबू। अब मैं करूंगी सारा हिसाब। देखती हूँ कैसे होता है हमारे साथ भेद-भाव।’ देवरानी-जेठानी को अगला-पिछला खंगालते सुन हरदेव की पत्नी भी मैदान में कूद पड़ी। वह भला क्यों पीछे रहती। औरतों का सुलगता अखाड़ा देख चारों भाई इकट्ठे बैठे। बीती ताही बिसार दे, अब आगे संभालने का फैसला ले कर उन्होंने औरतों का मुँह बंद कर दिया। सवाल उठा - ‘माँ कौन संभाले?’ चन्न से छोटा हरदेव यह कह कर चलता बना कि ‘बच्चों की छुट्टियां होने वाली हैं। होस्टल से साल भर में एक बार ही तो घर आते हैं वे। वह खुद काम के चक्कर में इधर-उधर रहता है। पत्नी बच्चों को देखेगी कि माँ को?’ सब से छोटे शरणजीत ने पत्नी के मानसिक रोगी होने का कह कर पल्ला झाड़ लिया, ‘आप लोगों को मेरी हालत पता तो है। मेरे वाली से तो हमारा ही खाना नहीं बनता। लकवे की मारी माँ का क्या संवारेगी?’ ‘आदमी हो ढंग का तो मौक़ा ले संभाल। बोलो, अब क्यों नहीं बोलते? मुँह में दही जमा रखी है क्या? वे लोग मलाइयां चाट, अब बीमारी की मारी बुढ़िया को संभालने से किनारा कर गए। मैं नहीं संभाल सकती फालतू का स्यापा...। संभाली जाती है तो संभालो, वर्ना मैं खुद कल को मायके चली।’ चन्न के सर पर स्वार उसकी घरवाली फुंकारती हुई, पाँव पटकते हुए भीतर चली गई। समस्या बनी गुरदेव कौर को कोई भी अपने साथ रखने को तैयार न था। एक-दूसरे की समस्या को समझते हुए सभी भाइयों द्वारा मिल कर लिए फैसले के अनुसार माँ की चारपाई बारी-बारी से महीने-महीने भर के लिए सभी बेटों के घर का चक्कर लगाने लगी। गुरदेव कौर को चन्न से छोटे बेटे के घर आए दूसरा दिन ही हुआ था। बच्चों को होस्टल से छुट्टियां हो गई थीं और वे घर आए हुए थे। छोटा पोता फ्रूटी लाया और चाचा के बच्चों के साथ मिल कर दादी के मुँह को लगा दी। गट-गट करके वह पूरी फ्रूटी पी गई। बच्चों की तरफ देख उसकी वांछे खिल गई। आँखें चमक उठीं। बच्चों ने दादी के गिर्द घेरा डाल लिया और उसकी चारपाई पर बैठ कर होस्टल की बातें सुनाने लगे। जैसे ही बहू की नज़र बच्चों पर पड़ी उसे ताप चढ़ गया। ‘इधर लाओ, पिलाऊं इसे फ्रूटियां। हग-हग कर बिस्तर भर देगी। धोएगा कौन ? तुम लोगों का बाप? चलो चाची के घर। चारपाई पर चढ़ बैठे हो। इन्फेक्शन हो गया तो और मुसीबत में डालोगे।’ ‘लाडी वीरे, दादी के मरने के बाद हम यह चारपाई संभाल कर रखेंगे। जब हमारी मम्मियां बूढ़ी होंगी चारपाई खरीदनी नहीं पडेगी।’ बच्चे हँसे। बहू ने बच्चों को बाँहों से घसीटा और देवर के घर धकेल आई। गुरदेव कौर ने खाना-पीना छोड़ दिया। हर वक्त मुँह से लार बहने लगी। ह़ड्डियों की गठरी बनी चमड़ी उधड़ने लगी और दिनों में ही सूख कर तीला हो गई। पिता को गुज़रे साल भर होने को आया था। वीरपाल के दिल को चैन कहाँ। हर वक्त ध्यान माँ में रहता। खुद बीमार रहने लगी तो बच्चों ने ज़िद करके घर में बंद कर लिया। न रहा गया तो छोटे बेटे की मिन्नतें कर साथ लिया और सिर्फ़ आने-जाने की बात कह मायके ले आई। मायके की गली का मोड़ मुड़ते ही वीरपाल का हलक सूख गया। गुरदेव कौर की चारपाई एक बेटे के घर से दूसरे के घर का रास्ता तय कर रही थी। बेटी थी, माँ का दु:ख कैसे सहती। चारपाई वहीं रखवा कर जी भर कर मन का गुब्बार निकाल मारा। ‘डूब मरो चुल्लु भर पानी में। चार बेटों के होते हुए माँ की चारपाई गली-द्वारों का चक्कर लगा रही है।’ ऊँचीआवाज़ें सुन कर गली-मुहल्ला इकट्ठा होने लगा। भाई-भाभी भी बाहर निकल आए। ‘चुप करो जीजी। बहुत सह लिया सारी उम्र तुम्हारा नखरा। इतना ही माँ का मोह हिलोरे मारता है तो ले जाओ और संभालो माँ को।’ छोटी भाभी बोली। ‘बस यही सुनना बाकी रह गया था। अगर तुम लोगों को लाज नहीं आती तो मुझे काहे की शरम। ठीक है माँ मेरे साथ ही जाएगी, परंतु कसम है तुम लोगों को, अगर इसका मरी का मुँह देखने आया कोई मेरे दर पर।’ गुस्से में बोलते हुए सिरहाने की तरफ से चारपाई को हाथ में ले लिया। ‘चल नहीं आते मरने पर, पर बताओ माँ के नाम के पाँचवे हिस्से का क्या करना है? बापू की वसीयत के मुताबिक जिसके दर पर माँ आख़िरी साँस लेगी उसे ही सारा हिस्सा मिलेगा।’ चन्न ने घरवाली से आगे होकर वीरपाल के हाथ से चारपाई छुड़वा कर वहीं रखवा ली। गुरदेव कौर ने कमज़ोर बाँहें फैलाई और होंठ फड़फड़ाए। वीरपाल ने माँ का माथा सहलाया और सीना ताने खड़े चन्न की तरफ तीखी निगाहों से देखते हुए पिंजर बनी माँ को उठा कर काँधे से लगा लिया। ***** लेखक परिचय (1) दीप्ति बबूटा विभिन्न समाचार पत्रों में 15 वर्षों का कार्य अनुभव। विभिन्न समाचारपत्रों औरपत्रिकाओं में कॉलम लेखन। स्कूलों में अध्यापन और बतौर प्रिंसीपल कार्य। फुलटाइमलेखन। तीन काव्य संग्रह, तीन कथा संग्रह। वेब सीरीज और फिल्मों के लिए लेखन।अंतर्राष्ट्रीय ढाहां पुरस्कार (2023) सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। साभार - राजभाषा रश्मि, मुंबई।

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