बांग्ला कहानी
शिखंडी - स्थूनाकर्ण संवाद
* विश्वदीप दे
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’
घना जंगल। सूर्य की रोशनी के लिए भी यह मार्ग
दुष्कर है। आकाश से आने वाली रोशनी भी घने
पत्तों के अभेद आवरण को ठीक से भेद नहीं पाती। बस जगह-जगह पर मामूली सी रोशनी की
आकृति बनती है।
रोशनी और अंधेरे के इस मार्ग पर चले जा रहा हैं
शिखंडी। हमारी कहानी के नायक या नायिका कह लें। इस जंगल ने इससे पहले उनका नारी
रूप देखा है। आज उनके पुरुष रूप को देख रहा है। स्वर्णजड़ित कवच, मुकुट, बाजूबंद, तलवार,
तीर-धनुष। सारे तन पर तीव्र पौरुष आलोकित है। सूखे पत्तों को पैरों से रौंदते हुए
वे चलते जा रहे हैं। पत्तों के रौंदे जाने की ध्वनि बार-बार इस जंगल को चकित करती
है। वे हैरान होकर सोचते हैं कि इस दुर्जय पुरुषाकार के पीछे उस दिन कहीं कोमल
असहाय नारीत्व के आभास का इंगित भी था। इस आश्चर्यद्वन्द्व ने जंगल की निस्तब्ध
प्रकृति में भी उत्तेजना सी भर दी है।
चलते-चलते अचानक रुक जाते हैं शिखंडी। गंतव्य
स्थल प्राय: निकट ही है। थोड़ी दूर ही स्थूनाकर्ण का भवन
है। कुछ देर में ही उन्हें अपना नारीत्व वापिस मिल जाएगा। पर क्यों ? एक प्रबल
अभिमान हवा के तेज झोंके के भाँति चक्कर काट रहा है। क्या होगा नारीत्व से ? महायोद्धा भीष्म को परास्त करने की प्रबल इच्छा मानों
और एक बार टूटे पात्र की भाँति चूर-चूर हो गई। कोशिश करके भी वे अपनी आँखों को
शांत नहीं कर पाए। नमकीन आँसुओं से भर उठी आँखों रूपी नदी। बहुत कठिनाईयों से
अर्जित यह पौरूष अस्थाई है यह पहले से मालूम था शिखंडी को। फिर ईश्वरीय कृपा की
बात स्मरण कर हर क्षण आशान्वित हैं वे। शूलपाणी महादेव के वरदान के अनुसार उसका
पुरुष तन ही भीष्म का मृत्युबाण साबित होगा। परंतु वह शायद असंभव ही रह गया। थोड़े
समय का यह पौरुष केवल राजा हिरण्यवर्मा द्वारा प्रेषित रमणियों के संग संभोग में
ही बीत गया।
खुद को धिक्कारना
चाहकर भी नहीं धिक्कार सके शिखंडी। उस यौनमिलन का भी तो प्रयोजन था। राजा
हिरण्यवर्मा के दूत के समक्ष पिता द्रुपद के लज्जित, संकुचित होने की दृश्य ने उन्हें वनवासी बनने को बाध्य
किया। अत: सबके समक्ष उस लज्जा से मुक्ति पाना आवश्यक था। क्या
सिर्फ़ यही ? सिर्फ़ इस लज्जा का निवारणमात्र ? और कुछ नहीं किया जा सकता इस पौरुष से ? हाँ, यह सच है कि पिता द्रुपद के सम्मान की रक्षा के लिए अपना
पुरुषत्व कुछ दिनों के लिए उन्हें दिया है यक्ष स्थूनाकर्ण ने। बदले में उनका
नारीत्व स्वीकार कर लिया है। इस शर्त पर कि प्रयोजन समाप्त हो जाने पर लौटा देना
होगा। उस वक्त वह पर्याप्त जान पड़ा था परंतु आज शिखंडी को समझ आया कि केवल इस
जन्म की लाज और अपमान ही नहीं बल्कि उनके दूसरे जन्म के उस प्रतिशोध के पूरा न
होने तक इस पौरुष का त्याग करना उचित नहीं होगा।
शिखंडी के मन में
पलायन की भावना जागृत होती है। इस जंगल से, स्थूनाकर्ण से दूर भाग जाने की प्रबल इच्छा। जिस नारीत्व
को उन्होंने एक बार त्याग दिया उससे दूर जाकर, स्थूनाकर्ण से मिले इस पौरुष को लेकर वे भीष्म के समक्ष
जाएंगे। महादेव के वरदान से फलीभूत हो उस अपराजेय महारथी को धूल में मिला देगें।
फिर इस पौरुष को वे लौटा देगें। भीष्म को इस पृथ्वी से हटा देने के बाद सिर्फ
पौरुष ही नहीं अपने प्राण भी त्याग सकते हैं शिखंडी।
अगले ही क्षण उनकी
आँखों के समक्ष उस महान यक्ष की दयाद्र दृष्टि घूम गई। याद आया, किस स्थिति में उनसे पहली मुलाक़ात हुई थी। बहुत पहले, माँ के गर्भ में रहने के दौरान। देवादिदेव महादेव ने स्वप्न
में दर्शन देकर कहा था, गर्भ में मौजूद संतान पुत्र ही होगी। इसलिए जन्म के बाद
से ही उनका लालन-पालन पुत्र की तरह किया गया था। यह मानकर कि देवता की बात सत्य
होगी ही। यहाँ तक कि उनकी शादी भी कर दी गई थी एक कन्या से। जबकि शिखंडी तब भी
शिखंडी ही थे। उन्हें समझ में आ गया था कि उनका राज़ खुल जाएगा। सारी दुनिया के
पास यह ख़बर पहुँच जाएगी कि राजपुत्र वास्तव में राजकन्या है। हुआ भी वही। उनके
अनावृत तन को देख घृणा, विस्मय से चकित रह गई थी हिरण्यवर्मा की सौंदर्यमयी
कन्या। तुरंत पिता के घर समाचार भिजवाया। क्रुद्ध हिरण्यवर्मा ने तुरंत दूत भेजा।
बताया कि वे शीघ्र ही सेना सहित इस छल का प्रतिउत्तर देने पहुँच रहे हैं।
उस दिन के बाद से
शिखंडी अपने पिता के घर पर न रह पाए। इस जंगल में आने को बाध्य हुए, इस यक्ष के वासस्थान पर। शिखंडी को याद आता है एक असहाय
रमणी की दिनोंदिन की तपसाधना, और क्रमश: क्षीण होते जाते तन को देख उसके समक्ष खड़े हो
आश्चर्यमिश्रित हँसी हँसे थे स्थूनाकर्ण। कहा था – ‘हे रमणी, आप मेरा पौरुष ग्रहण कर लें,
अपने व अपने परिवार के अपमान को धूल में मिलाकर इस दुर्दशा के ग्रास से अपनी रक्षा
करें। प्रमाणित करें कि महाराज द्रुपद ने कोई मिथ्याचार नहीं किया। आप वास्तव में
पुरुष ही हैं। स्वप्न की भाँति आधारहीन प्रतीत हुआ था शिखंडी को। दयावान यक्ष इस
प्रकार उनसे अपमान से मुक्ति की बात करेंगे, यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा
था।
इन
सब बातों को स्मरण कर पीछे लौटना रोक कर फिर से वे स्थूनाकर्ण के भवन की और बढ़
चले। पिता द्रुपद को जिसकी कृपा से छल के अभियोग से मुक्ति दिलाई अंतत: शिखंडी उसके साथ
छल न कर सके। इतना बड़ा अन्याय उनसे संभव नहीं था। दरअसल वेशभूषा पुरुष की होते
हुए भी वे पूर्णत: एक दयावान नारी थे।
अंतत: स्थूनाकर्ण के भवन पर आ पहुँचे
शिखंडी। स्थूनाकर्ण के सेवक ने उनसे प्रतीक्षा करने को कह भीतर अंत:पुर में संदेस भिजवाया। थोड़ी ही देर में अंत:पुर से एक सेवक ने आकर कहा, आप भीतर जाएं राजन। वे प्रतीक्षा कर रहे हैं।
अंत:पुर में प्रवेश करते हैं शिखंडी। खिड़की के पास खड़े दिखाई देते हैं
स्थूनाकर्ण। चुपचाप उनके पास आ खड़े होते हैं। कहा, ‘मैं लौट आया हूँ महामति।’ स्थूनाकर्ण हँस पड़े। उनकी शारीरिक मुद्रा से नारीमुद्रा बिंबित हो रही थी।
उन्होंने कहा, ‘मुझे पता था तुम आओगे। तुम्हें देख कर
सचमुच प्रसन्नता हुई।’
शिखंडी
ने झुक कर कहा, ‘आपके प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। आपकी
कृपा से मेरे माता-पिता के लज्जित, अपमानित चेहरों की कालिमा ख़त्म हुई। आपके
पुरुष चिहनों द्वारा मैंने अपने पौरुष को प्रमाणित किया है। मेरी परीक्षा हेतु दशार्णराज
हिरण्यवर्मा ने कुछ संदुर युवतियों को मेरे पास भेजा था। मैंने उन्हें तृप्त किया।
संभोग के बाद उन्होंने हिरण्यवर्मा की कन्या यानी मेरी पत्नी की अक्षमता पर
हँसी-मज़ाक तक किया। उनके अनुसार समस्या मेरी नहीं थी दशार्णराज की पुत्री की थी।’
सौंदर्यबालाओं की यौन तृप्ति की बात सुन
स्थूनाकर्ण क्रोध से लाल हो गए। शिखंडी मन ही मन लज्जित हो उठे। उन्हें याद आया,
एक अंत:पुरवासी के समक्ष पुरूष के तौर पर यह कहना उचित नहीं हुआ। यद्यपि थोड़ी देर
बाद परिस्थिति बदल जाएगी। तब गैर पुरुष के समक्ष दैहिक मिलन की बात के उल्लेख को
स्मरण कर शिखंडी ही शर्मिंदा होंगे। कैसी आश्चर्यजनक थी यह परिस्थिति। ऐसी घटना
क्या इससे पहले भी घटित हुई हैं। भविष्य में भी कभी घटित होगी क्या?
प्रसंग बदलते हुए शिखंडी ने कहा, ‘मेरे पिता द्रुपद का मान रख पाया। वे प्रमाणित करने में सफल रहे कि
उन्होंने कोई मिथ्याचरण नहीं किया था। उनकी संतान नारी न होकर पुरुष ही है।
हिरण्यवर्मा अपनी बेटी की भर्त्सना करके लौट गए। मेरा अभीष्ट पूर्ण हुआ। अब आप
अपना पौरुष वापिस स्वीकार करें।’
स्थूनाकर्ण शिखंडी की तरफ देखते रहे। उन्हें कुछ दिनों पहले की बात याद हो
आई। जब उन्होंने पहली बार शिखंडी को देखा था। तब वे शिखंडिनी थीं। एक नारी। लंबे
समय तक अनाहार रहने के कारण तन बहुत ही क्षीण और कृश्काय। नारीसुलभ कोमलता तब नष्ट हो चुकी थी। पूरे
चेहरे पर तीव्र हताशा नज़र आ रही थी। जीवन के प्रति भी निराशा। फिर भी उस उदास
चेहरे पर विद्यमान अभिमान की हल्की सा आभा ने उन्हें मुग्ध किया था। सिर्फ़ मुग्ध? ऐसे मग्न पहले कब हुए थे स्थूनाकर्ण। शिखंडिनी के रूप ने उन्हें आनंदविभोर
किया था। उन्हें महसूस हुआ था कि वे इस उदास मुखमंडल की प्रसन्नमुद्रा के लिए कुछ भी कर सकते हैं। क्यों लगा था ऐसा, यह बात वे कभी भी शिखंडी को नहीं बताएंगे। अपने मन की गुप्त कोठरी में
छुपाए रखेंगे जो कि उनके शेष जीवन की पूंजी होगी। यह सब सोचकर कुछ देर ख़ामोश रहे
स्थूनाकर्ण। फिर मृदु मुस्कान बिखेर कर कहा, ‘तुम्हारी ईमानदारी से मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ। तुम जो लौट कर आए हो देख कर
ही समझ आता है कि तुम लालचरहित हो। उस दिन तुम्हारी असहायता देख सचमुच बहुत दु:खी हुआ था। आज तुम्हें विजयी देख बहुत अच्छा लग रहा है। प्रार्थना करता हूँ कि जीवन के और भी कठिनतम युद्धों में भी तुम
विजयी बनो।’
पर यह कैसे संभव है? आज इसी क्षण तो मेरे क्षणस्थाई पौरुष के समापन पर मैं एक सामान्य नारी में
बदल जाऊंगा। फिर पिछले जन्म की भाँति एक बार फिर पराजित जीवन गुजारूंगा। मन ही मन विषाद-संलाप में संलिप्त शिखंडी को देख स्थूनाकर्ण ने कहा, ‘राजकुमार तुम कुछ छुपा रहे हो।’
‘आपने ठीक समझा, परंतु वह राज़ जानकर फिर आप मुझे निर्लोभ नहीं कहेंगे। हल्के से मुस्कुराकर
शिखंडी ने कहा, पिता द्रुपद का सम्मान बचाकर मेरे इस जीवन का अभीष्ट पूर्ण हो तो गया है, परंतु आपको मैं अपना पूरा इतिहास बता दूं। भीष्म की पराजय ही मेरा सर्वोच्च
लक्ष्य है। नारी बनकर मैं उनका विनाश कैसे करूंगा। पिछले जन्म में अंबा बनकर चाहा
था कि कोई पुरुष मेरे पक्ष में युद्ध करके महारथी भीष्म का वध करे परंतु आपको पहले
ही बताया है कि तेजस्वी योद्धा परशुराम किस प्रकार भीष्म को पराजित करने में असफल
रहे थे। हाँ, भीष्म भी उन्हें पराजित नहीं कर पाए। दोनों ही परस्पर एक दूसरे के लिए अजेय
थे, युद्ध के माध्यम से इस सत्य के प्रकट होते ही समझ आ गया था कि परशुराम जिसे
पराजित न कर पाए, उसे पराजित करने की क्षमता और किसी की नहीं होगी। उसी दिन मुझे समझ आ गया
कि खुद ही कोशिश करने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं। उस युद्ध में मेरी
मृत्यु भी हो जाए तो हो परंतु मुझे एक बार उसके सम्मुख उपस्थित होना है। अब आप ही
बताएं, पुन: नारीत्व प्राप्त करके अपेक्षित लक्ष्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है ?’
स्थूनाकर्ण ने मृदु मुस्कान से बिखेर कर कहा, ‘मैं तुम्हारी सत्यनिष्ठा देख कर चकित हूँ। तुम इस प्रबल प्रतिशोध की स्पृहा
को अस्वीकार कर मुझे मेरा पौरुष लौटाने आए हो, जिसे एक बार लौटा देने के बाद भीष्म के साथ युद्धस्थल में सामना करने का
स्वप्न सदा के लिए शायद नष्ट हो जाएगा। तुम सचमुच सत्यनिष्ठ हो। और जो सचमुच ईमानदार
हो, उसे एक बार अवश्य अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने का अवसर मिलता है।’
शिखंडी ने चौँक कर स्थूनाकर्ण की ओर देखा। स्थूनाकर्ण मानो कोई सांत्वना न
देकर भविष्यवाणी कर रहे हों। उनका दृष्टिकोण समझ कर स्थूनाकर्ण ने कहा, ‘तुम ठीक ही सोच रहे हो राजकुमार। मैं जो कह रहा हूँ, वह सांत्वना नहीं है। विश्वास है। दैव निर्देश कभी व्यर्थ नहीं होता।
महादेव की इच्छानुसार भीष्म के वध के लिए
युद्धस्थल में तुम्हारी उपस्थिति अपरिहार्य है। तुम लौट जाओ। अस्त्रविद्या ग्रहण
करो। उस क्षण की तैयारी करो।’
शिखंडी का पूरा शरीर सिहर उठा। स्थूनाकर्ण की ओर नज़रें टिकाए चुपचाप देखते
रहे। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वे अस्त्रविद्या की बात क्यों कह रहे हैं? कैसे संभव है यह? उत्तेजित स्वर में कह उठे शिखंडी, ‘किसी नारी को कोई अस्त्रविद्या देता है? हे स्थूनाकर्ण आपकी बात को मैं ठीक तरह से समझ नहीं पा रहा हूँ। कृपया
बताएं कि यह कैसे संभव है?’
‘अवश्य बताऊँगा, राजकुमार। तुम्हारे मन का अंधेरा मैं दूर करूंगा
परंतु उससे पहले मैं तुमसे अपने एक प्रश्न का उत्तर जानना चाहता हूँ। इधर कुछ
दिनों से इस एकाकी कक्ष में बैठे-बैठे बहुत बार यह प्रश्न मेरे मन में आया है।’
‘कौन सा प्रश्न?’ शिखंडी ने जानना चाहा।
‘अपने पिछले जन्म की पूरी गाथा से तुमने मुझे कील कर रख दिया है। वह सुनकर
मुझे लगा कि तुम्हारे पिछले जन्म की दुर्दशा के प्रधान खलनायक दो व्यक्ति हैं। एक
हस्तिनापुर के महारथी भीष्म, दूसरा तुम्हारी प्रियतम शाल्वराज। पहले ने विचित्रवीर्य़ की पत्नी बनाने के
लिए स्वयंवर से अंबिका और अंबालिका के साथ तुम्हारा हरण किया। शाल्वराज द्वारा
रोके जाने पर उन्होंने प्रबल उपेक्षा के साथ उसे परास्त किया परंतु तब तक उन्हें यह
नहीं मालूम था कि वह व्यक्ति तुम्हारा प्रियतम है। बाद में जब पता चला तो तुम्हें
कुछ वृद्ध ब्राह्मणों और एक धात्री के साथ शाल्वराज के पास भेज दिया। और दूसरा, शाल्वराज ने अन्यपूर्वा कहकर तुम्हारा तिरस्कार किया। भीष्म के स्पर्श से
तुम्हारे खुश होने का आरोप लगा कर तुम्हें त्याग दिया था। जबकि पूरी दुर्दशा के
लिए तुम भीष्म को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हो। उसकी मृत्यु ही तुम्हार लक्ष्य है। इसकी
वजह क्या है? बहुत सोचकर भी मैं यह समझ नहीं पाया।’
स्थूनाकर्ण का प्रश्न सुन शिखंडी को हैरानी हुई। एक सामान्य नारी की
जीवनगाथा ने इस यक्ष को इतना चिंतित किया। उन्होंने विस्मित होकर कहा, ‘इतने कौतुहलपूर्वक मेरी बात कभी किसी ने नहीं सुननी चाही। शाल्वराज द्वारा
अपमानित होकर नगर से बाहर तपस्वियों के आश्रम में जब मैंने रहना चाहा तब उन्हीं
तपस्वियों ने मुझे मेरे पिता काशीराज के घर लौट जाने को कहा। तपस्वी तो ज्ञानी
होते हैं, फिर भी वे मेरे कष्ट को सम्यक तौर पर समझ नहीं पाए। मेरे नाना राजर्षि होत्रवाहन अवश्य कुछ हद तक समझ पाए थे। परशुराम के प्रिय
अनुचर अकृतव्रण भी समझ पाए थे। समझ पाए थे इसीलिए उन लोगों ने मुझे परशुराम की
सहायता का आश्वासन दिया था। और परशुराम ने भी मेरे कष्ट के निवारण हेतु भीष्म के
साथ भीषण युद्ध किया था। इन सभी ने चाहा था कि भीष्म मुझे स्वीकार कर लें, परंतु जब परशुराम-भीष्म युद्ध आमीमांसित रह गया तब उन्होंने असहाय की भाँति मुझे मेरे हाल पर
छोड़ दिया। इसके बाद सही अर्थों में जब भीष्म के दंभ के समझ मैं अकेली पड़ गई थी, महेंद्र पर्वत पर जाने से पूर्व एक बार भी क्यों
गंभीरता से नहीं सोचा परशुराम ने। यद्यपि समझ आ गया कि प्रिय शिष्य को परास्त न कर
पाने के कारण अपने पौरुष को लेकर वे चिंतित थे। उस क्षण मानो मैं उतना महत्वपूर्ण
नहीं थी। आपने जितना समय लेकर मेरी इस विपदा के विषय में सोचा है, उन लोगों में से किसी ने नहीं सोचा था। यहाँ तक कि
आपने मेरे लिए अपना लिंग परिवर्तन तक कर लिया। शिखंडी का स्वर ज़रा सा काँप गया।
आँखों के कोनों में आँसुओं की बूंदें झिलमिलाने लगीं। खुद को संभालते हुए कहा, जो भी हो आप जानना चाहते हैं कि शाल्वराज के प्रति
मेरा क्षोभ कितना है। तो बता दूं कि उनके व मेरे पिता
काशीराज दोनों के ही प्रति मेरा क्षोभ असीम है। मेरे पिता ने यदि स्वयंवर न रचा कर
पहले ही शाल्वराज के साथ ब्याह दिया होता या खुद शाल्वराज ही ऐसा प्रस्ताव देते तो
मुझे भीष्म के हाथों अपहृत न होना पड़ता। अंबिका और अंबालिका दोनों के लिए स्वयंवर
सही फैसला था। परंतु एक वाग्दत्ता कन्या
के लिए यह फैसला बहुत बड़ी गलती थी और इसके लिए संपूर्णत: पूरी तरह से शाल्वराज और काशीराज दोनों ही
उत्तरदायी हैं। जबकि मेरे दुर्दशा में दोनों ने ही पूर्णत: मुझे अस्वीकार किया। बाद में जब भी भीष्म के
वाणों के सामने उसकी असमर्थता की पराकाष्ठा, पराजित चेहरा याद आया है, समझ गई कि वास्तव में उसका आहत पौरुष मेरा सामना
नहीं कर पा रहा था। इसीलिए......’
शिखंडी की बात पूरी होने से पहले ही स्थूनाकर्ण ने
पूछा, ‘मैं तुम्हारे कष्ट को समझ रहा हूँ परंतु यह वृतांत
सुनकर मुझे महसूस हुआ कि शाल्वराज के पराजित चेहरे के विपरीत क्या भीष्म के
आत्मगरिमा से परिपूर्ण चेहरे की तस्वीर ने कोई प्रभाव नहीं डाला? ग़लती हो तो माफ करना राजकुमार, किंतु सचमुच तुम्हें नहीं लगा कि जिस व्यक्ति ने
मेरे प्रियतम को अनायास ही ज़मीन पर लिटा कर, फिर उसका वध न करके जीवनदान दिया, क्या शौर्य और वीरता की दृष्टि से वह शाल्वराज से
बहुत-बहुत अधिक योग्य नहीं?’
शिखंडी को होठों पर करुण मुस्कान दौड़ गई, ‘यही इंगित शाल्वराज ने भी किया था परंतु ऐसी कोई
अनुभूति मुझे हुई थी या नहीं, मुझे नहीं मालूम। एक अजीब से उन्माद में थी मैं।
मैं कोई दैवी नारी नहीं। मैं बहुत साधारण हूँ। इतना कह सकती हूँ कि बहुत प्रकांड
पंडित भी अगले हज़ारों-हज़ारों सालों तक इसका समाधान नहीं कर पाएंगे।
घृणा के कितने पास होता है प्रेम, यह हिसाब मुझे नहीं मालूम। फिर भी पिछले जन्म में
सबसे ज्यादा असमर्थ महसूस किया था जब परशुराम के अनुरोध पर भी भीष्म ने मुझे
स्वीकार नहीं किया था। उसी क्षण से मेरा
कोई गंतव्य नहीं रहा। बाद में कठोर तपस्या से मुझे महादेव का वरदान प्राप्त होने
पर भी, परशुराम के प्रस्थान के बाद की अपनी उस असमर्थता
को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगी। तब लगा था कि ऐसी परिस्थिति में भी भीष्म ने मुझे
स्वीकार नहीं किया? एक नारी का ऐसा सर्वनाश करके भी उसके मन में दया न आई। उस दिन से मेरी
घृणा की अग्नि दिनोंदिन तीव्र होती गई। मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है उसका पतन।’
स्थूनाकर्ण बहुत ध्यान से शिखंडी की बातें सुन रहे
थे। समझने की कोशिश कर रहे थे प्रेम और
घृणा का इस परस्पर स्थिति को। समझ रहे थे अंबा, शिखंडिनी, शिखंडी जन्म से जन्मांतर, लिंग से लिंगांतर इस असहाय जीवन को सबसे अधिक आहत
किया है देवलीला ने। जिस देवलीला ने उनके जीवन को भी बदल दिया है।
थोड़ी देर चुप रहकर शिखंडी ने कहा, ‘आशा है कि आपके प्रश्न का उत्तर आपको मिल गया
होगा। अब यदि अनुग्रहपूर्वक मेरे प्रश्न का उत्तर दें। स्थूनाकर्ण ने गंभीरता से
कहा, मैंने अब तक जान-बूझकर ही उत्तर नहीं दिया राजकुमार क्योंकि मुझे
पता है कि उत्तर मिलने के बाद तुम मेरे इस भवन में एक क्षण भी रुकने के लिए राज़ी
नहीं होगे। द्रुत गति से राजप्रासाद में लौट जाओगे। बाद के प्रत्येक क्षण में खुद
को तीक्ष्ण से भी तीक्ष्ण कर लोगे.... और उस महामुहुर्त का इंतज़ार करोगे।
स्थूनाकर्ण की बातें शिखंडी को पहेली सी लगती हैं।
यद्यपि उस पहेली का उत्तर सार्थक है, यह क्रमश: स्पष्ट हो गया।
स्थूनाकर्ण ने कहा, ‘हाल ही में यक्षराज कुबेर यहाँ आए थे परंतु अब मैं
एक नारी हूँ, स्वाभाविक तौर पर अंत:पुर में थी। उन्हें मेरे इस लिंग परिवर्तन की बात
पता चल गई। यह जानकर उन्होंने प्रबल क्रोध में मेरे सामने आकर मुझे अभिशाप दिया।
एक आड़ी-तिरछी तीव्र विद्युत रेखा मानों शिखंडी को भेद गई, ‘अभिशाप? क्यों? हे स्थूनाकर्ण आपका अपराध क्या था?’
उत्तेजित शिखंडी की ओर देख स्थूनाकर्ण हँस पड़े। क्षीण
हँसी। ‘तुम्हारे साथ लिंग
विनिमय का अपराध। मैंने अपनी क्षमता का अपव्यवहार कर यक्षगणों को अपमानित किया है, यह कहकर मेरा तीव्र तिरस्कार किया यक्षराज कुबेर
ने। अभिशाप दिया, तुम जब तक जीवित रहोगे, मैं स्त्री ही बना रहूंगा और मेरा पौरुष धारण कर
तुम पुरुष ही बने रहोगे।’
रुद्ध गले से शिखंडी क्या कहें कुछ समझ नहीं पा
रहे थे। सिर्फ़ व्यथित मन से स्थूनाकर्ण की तरफ देखा । साथ ही एक गुप्त आनंदमय स्वरधारा
भी उनके मन के भीतर लगातार झंकृत हो रही थी।
अविचलित स्थूनाकर्ण ने कहा, ‘हे राजकुमार, अब युद्धस्थल में भीष्म का सामना करने में कोई रुकावट
नहीं। यह खुशी का समय है। बहुत दिनों की प्रतीक्षा अंतत: सार्थक हो रही है। अब देर मत करो। यथाशीघ्र लौट
जाओ तुम। अस्त्रविद्या ग्रहण करो।’
शिखंडी ने धीरे-धीरे कहा, ‘किंतु.... मेरा भला करने के क्रम में आपका बहुत बड़ा सर्वनाश
हो गया। इन्कार नहीं है कि शेष जीवन में मैं पुरुष ही बना रहूंगा, यह उपलब्धि मेरे लिए अमरत्व से भी बहुत बड़ी है परंतु आपकी इतनी बड़ी क्षति के बारे सोचकर.....’
‘क्षति?’ थोड़ा सा क्रोध का पुट शामिल हो गया स्थूनाकर्ण के
कंठस्वर में। ‘नारीत्व को सर्वनाश समझते हो तुम?’
शिखंडी – नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं नारीत्व को सर्वनाश
नहीं कह रहा। कभी भी नहीं। पर ये जो आप पुरुष से नारी बने.... यह अस्वभाविक घटना आपको सभी के कौतुहल का केंद्र
बना देगी। उसी दुर्भाग्य की बात सोच कर मैं शंकित हूँ। मुझे अवश्य पता है, मेरे इस पौरुष प्राप्ति का रहस्य़ अगर लोगों के
सामने आ गया तो बेवजह कौतुहल के विषैले तीर मेरी तरफ भी बढ़ेंगें। पर मुझे उससे
कोई फर्क़ नहीं पड़ता। अब अपने लक्ष्य के सिवाय किसी भी चीज़ से मुझे कोई शिकायत
नहीं। पर आप... सिर्फ़ मेरी भलाई के चक्कर में इस तरह.....’
स्थूनाकर्ण – ‘ठीक, यही एक विषय मेरे लिए भी विरक्तिकारक है। ये जो
मैं पुरुष से नारी बना इस विषय में बेवजह कौतुहल और एक अद्भुत नज़र मैनें यक्षगणों
में देखा है। मानो सभी जो आजीवन पुरुष या नारी हैं मैं उनसे एक अलग व्यक्ति हूँ।
लिंगांतर मानों धर्मांतरण के समान हो गया। या फिर उससे भी भयावह घटना। मुझे लगता
है युग-युगांतरों तक इस विषय में लोगों के मनोभाव नहीं
बदलेंगे। परंतु तुम इस सबके विषय में तनिक भी चिंतित मत होना। मेरे मन में कोई
अफसोस नहीं है। दैवों का अतिक्रमण क्या हमारे लिए संभव है। इसके अलावा एक ही जन्म
में नारी और पुरुष होने का सौभाग्य कितनों को मिलता है? तुम निश्चिंत मन से प्रस्थान करो राजकुमार।
परिकल्पना के अनुसार चतुष्पद धनुर्भेद शिक्षा ग्रहण करो। प्रार्थना करता हूँ कि जिस दिन गंगापुत्र भीष्म
से साक्षात होगा, उस युद्ध में विजय तुम्हारी ही हो।’
स्थूनाकर्ण की
बातों से आश्वस्त होकर कुछ समय बाद भवन से निकल आए शिखंडी। लौट चले राजप्रासाद की
ओर। स्थूनाकर्ण खिड़की के पास खड़े रहे। बाहर घने हरे वन की निस्तब्धता को देख क्रमश: उदास होने लगीं उनकी दोनों आँखें। सजल हो उठीं।
कुछ बातें करने को रह गईं। जो फिर कभी कही ही नहीं जाएंगी। उनकी उन गुप्त
अनुभूतियों और इच्छाओं को धारण कर गहरा घना जंगल और भी गंभीर स्तब्ध से भर उठा। सिर्फ
पक्षियों की अनुपम सीटियों और पत्तों के गिरने की आवाज़ के अलावा और कहीं भी कोई
आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी।
साभार - छपते छपते (कोलकाता) उत्सव विशेष 2018
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