पंजाबी कहानी
ख़ामोश महाभारत
* परमजीत धींगरा
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’
समराला
चौंक में सुबह-सुबह वाहनों के बेतरतीब शोर के साथ-साथ गहमा-गहमी भी थी। हर चेहरे
पर जल्दबाज़ी और तेज़ी थी, बस के रुकते ही यात्री तेज़ी से आगे बढ़ते और कुछ सामने
बोर्ड पढ़कर वापिस उसी जगह जा खड़े होते। नारियल की गरी, मरूंडा और छोटी-मोटी
चीज़ें बेचने वाले लपक-लपक कर बस में जा चढ़ते। कुछ कंडक्टर की फटकार के भय से
दरवाज़े पर आधे लटकते से आवाज़ें देने लगते।
चंडीगढ़ जाने वाली वॉल्वो के रुकते ही निरंजना उचक कर बस में
चढ़ गई और जोर से ताली बजाते हुए मर्दाना आवाज़ निकाली। उसकी आवाज़ सुन सुस्ता रहे
मुसाफिर चौकन्ने हो गए। कंडक्टर ने बाहर निकलते वक्त उसे कोहनी मार दी।
वह भड़क गई
– ‘मेरे बाप
के साले, अगर फिर कोहनी मारी तो तेरी बस तो क्या तू भी समराला चौंक नहीं लाँघ
सकेगा। भुलावे में मत रहना। बहन का दीवा – घर जाकर माँ-बहन को कोहनी मारना। बहन
चो..... कुत्ता।’ उसका
गुस्सा उबल रहा था। कंडक्टर खिसियाना सा
हो नीचे उतर गया। मूँछों को ताव दे रहे मुस्कुराते ड्राइवर की शक्ल ऊपर लगे शीशे
में काँप रही थी।
निरंजना ने
मर्दाना स्वर में हक़ से अपनी वसूली माँगी। उसके हाथ
में दस-दस, बीस-बीस नोटों की बनाई हुई गट्ठी थी।
ताली की कर्कश ध्वनि के साथ-साथ उसका मर्दाना भद्दा स्वर बस में गूँज रहा
था।
यात्री उसकी तड़क-भड़क को घूर रहे थे। उसकी चमकीली पोशाक, ज़री वाला दुपट्टा, कलाईयों
में मैचिंग चूड़ियां, गले में मोटा हार, हाथ की उंगलियों में नगीनों वाली
अंगूठियां,
नाखूनों पर नेलपॉलिश, चेहरे पर गहरा मेकअप, बालों में लगाए
रंग-बिरंगे क्लिप, सर पर काला चश्मा और दाहिने हाथ में मोबाइल – पहली नज़र में तो
यात्रियों को उसके एक सुंदर आधुनिक स्त्री होने का भ्रम होता था परंतु, उसका
मर्दाना स्वर और होठों पर छोटे-छोटे रोएं बता देते कि वह किन्नर है।
आजकल शादियों में नेग कम मिलने लगा था। जो मिलता था, उसके इतने
हिस्से हो जाते कि गुज़र करना कठिन हो गया था। कोई अन्य वसूली का ज़रिया भी नहीं
था। इसीलिए उसने समराला चौक पर अपना अधिकार जमा लिया था और हर बस से उसे
अच्छी-ख़ासी वसूली मिलने लगी थी। उसकी सुंदर शक्ल देख कर कोई भी दस, बीस के नोट से
कम न देता था। उसकी चोखी वसूली बेशक उसके साथियों को अखरने लगी थी परंतु उसकी
दबंगता और झगड़ालूपन से वे डरते थे। महंत को उसका हिस्सा वह नियमित देती थी। इसलिए
उसे कोई ख़तरा नहीं था परंतु आशा से कई बार
उसे डर लगता था। डेरे के साथियों को वहम था कि आशा काला जादू जानती है जिससे वह
कुछ भी कर सकती है। निरंजना को उसकी भद्दी आँखों से बहुत डर लगता था। एक दिन उसने
आशा से पूछ ही लिया था –
- तुम यह
चोला छोड़ क्यों नहीं देती ?
- क्या
मतलब है तुम्हारा ?
- सभी कहते
हैं कि तुम्हारे पास तो बला का जादू है। मार कोई जादू, क्या रखा है इस दोहरे तन में, न
पुरुष न औरत।
- चुप कर,
बकवास मत कर। इस बार मैंने एक सन्यासी योगी को पटा लिया है। बंगाली है वह। अमावस की रात को
काले बकरे की बलि मांगता है, और इस के बाद शायद काला जादू सिखा दे। मैंने उसके पास
काले साँपों का पिटारा देखा है।
पर सभी
जानते थे कि उसने न तो बलि दी थी और न ही काला जादू सीखा था। वैसे वह कभी-कभी इस
देह से मुक्ति चाहती थी। उसने एक दिन निरंजना से कहा था –
तू कोई उपाय कर। बलि तो हम रोज़ ही देती हैं
अपने स्व की। ढूँढ तू भी कोई काले जादू वाला जोगी मांदरी। हम उसे सब कुछ देंगे
पुरुष और स्त्री भी।
और दोनों उदास सी हँस पड़ी, परंतु उनको
काला जादू बताने वाला कोई नहीं था।
यह योनी चौरासी लाख योनियों से बाहर है।
शायद हम चौरासी लाख योनियों से निकाले हुए हैं। इसी कारण हमारी मुक्ति नहीं होती।
न अपना कोई धर्म है न, न जाति, न कौम, न कोई रब। हम तो ब्राह्मांड में टूट कर
भटकते नक्षत्रों की भाँति हैँ। यह भटकन साली मुक्ति नहीं होनी देती।
उसकी आँखों के समक्ष बचपन के धुंधले साये
लहराने लगे। काले रंग का बाप, सावले रंग की माँ। दोनों के चेहरों पर चिंता की
रेखाएं। उसके पैदा होने के कुछ सालों के बाद शरीर में ऐसे नक्श उभरने लगे कि
माँ-बाप चिंतातुर हो गए कि इस बच्चे का क्या किया जाए। बाकी भाई-बहनों को अभी उतनी
समझ नहीं थी। माँ उसे छुपा-छुपा कर रखती।
साये की भाँति उसका पीछा करती। उसे बाहर न जाने देती। अकेली को नित्य क्रियाएं भी
न करने देती, नहाने न देती, आस-पड़ोस वालों से मिलने न देती। पिता ने एक दिन फैसला
कर लिया कि वह उसका गला घोटकर मार डालेगा परंतु माँ इतनी बेरहम नहीं थी। उसकी कोख
तड़प उठी। उसने पिता को ख़बरदार किया कि अगर इसे एक ज़रा सी खरोंच भी आई तो वह खुद
पुलिस के पास जाएगी।
फिक्र के मारे पिता की दिहाड़ी में नागे
होने लगे। माँ बीमार रहने लगी। वह ज्यों-ज्यों बड़ी हो रही थी घर में चिंता के
प्रेत मंडराने लगे। उसके गुरदासपुर वाले मामा ने ही समाधान निकाला था। उसने बॉर्डर
के दूर-दराज़ इलाके के एक महंत से बात कर ली थी और उसे रात के अँधेरे में चुप-चाप
छोड़ने की तैयार कर ली।
अंतिम बार माँ फूट-फूट कर रोई थी परंतु
वह डरी-डरी सी खड़ी थी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कि क्या हो गया है। मामा
देसा उसे कहाँ ले जाने की बात कर रहा है – उसे कुछ पता नहीं था। देसा चुपचाप बिना
आवाज़ किए उसे रात के अँधेरे में लेकर अदृश्य हो गया। माँ ने आस-पड़ोस वालों से
ननिहाल भेजने का बहाना बना दिया था।
इसके बाद महंत भोली ही उसकी माई-बाप और
उसके जीवन की पालनहार थी। यहाँ रहकर उसने वे तौर-तरीके सीख लिए थे, जिनके सहारे
ज़िंदगी का सफ़र चलना था। शुरु-शुरु में माँगते हुए और ताली बजाते हुए उसे शर्म
आती थी, परंतु एक दिन महंत ने कस कर तमाचा मारा और सबक दिया था कि – यह ताली ही
तुम्हारा रब और अन्नदाता है। यदि तूने इससे मुँह मोड़ा तो सारी उम्र कीड़े पड़ेंगे
और नरक भोगना पड़ेगा, आगे फिर पता नहीं ऐसी ही योनी फिर से मुँह फाड़े खड़ी हो।
उसने कानों को हाथ लगाए और इस ताली को
इबादत बना लिया। शब्दों में कर्कशता और नफ़रत मिला कर उन्हें कड़कदार बना लिया
परंतु उसकी भद्दी आँखों से उसे खुद ही कई बार डर लगता कि ये कैसी हैं ? कई बार उसे लगता कि यह उसकी घिस चुकी और बेआबाद योनी जैसी ही दो योनियां
हैं जो उसके चेहरे पर उग आई हैं। इसीलिए उसे लगता कि कोई काले जादू जैसी चीज़ हो
तो वह अपने इस भद्देपन पर काबू पा ले और सबकी महंत बन जाए। इसलिए उसने काले जादू का भ्रम पाल लिया था। उसने
एक तोता भी पाल रखा था, जिसका रंग हरे के बजाये पीला और काला था। देखने में वह
किसी जंगली पक्षी जैसा लगता था। डेरे में ज़्यादातर लोग तो यही कहते थे कि उसके इस
तोते में काला जादू है।
निरंजना कई बार उसकी थोड़ी बहुत मदद कर
देती। उसे आशा पर तरस भी आता और हँसी भी। एक दिन उसने आशा से कहा था –
- चलो हम दोनों शादी कर लें। अरी, मेरा
बहुत दिल करता है कि कोई मेरा भी हाथ मरोड़े।
- चुप कर शादी की बच्ची, तेरे पास है ही
क्या। तुम्हारे घर में तो माँगने पर नेग भी न मिलेगा।
- चिंता मत कर मैं सब कर लूंगी। बस, तू
एक बार हाँ कर दे। क्या पता इसी तरह इस योनी से मुक्त हो जाएं।
वे दोनों उदासी में डूब गई थीं।
निरंजना को किसी साथी ने बताया था कि अगर
शादी कर ली जाए तो इस इस योनी की बला गले से टल जाती है। उसने कई साथियों को टटोला
परंतु किसी ने हामी नहीं भरी थी। कोई भी शादी के लिए तैयार नहीं था।
एक दिन उसने नगीना को भी टटोला था परंतु
उसने हँसीं में बात टाल दी। उसने आगे उससे कहा था – क्या फर्क पड़ता है नगीना, अगर
तू मान जाए तो हम यहाँ से भाग जाएंगी। नगीना ने उसे कहा था कि ऐसी ग़लती मत करना,
मौत के मुँह में जा गिरोगी। अगर शादी का इतना ही शौक है तो कुमागम चली जा। वहाँ
देवता के साथ शादी हो जाती है और अगर अच्छा न लगे तो सुबह होते ही टूट भी जाती है।
मैंने भी यह स्वाद चख रखा है।
उसे समझ नहीं आया था, उसने नगीना को
विस्तार से बताने के लिए कहा।
तुमने कभी
महाभारत की कथा सुनी है ? जब कौरवों-पांडवों का
युद्ध हुआ तो सहदेव से पूछा गया कि इस युद्ध में जीत किसकी होगी ? उसने आकाश की तरफ देख
कर भविष्यवाणी की और कहा कि जीतेंगे तो पांडू परंतु इसके लिए कुरुक्षेत्र के मैदान
में पूर्ण पुरुष की बलि देनी होगी। उस समय धरती पर तीन ही पूर्ण पुरुष थे –
श्रीकृष्ण, अर्जुन और उसका पुत्र इरावन। इनमें से पहले दो की बलि दी ही नहीं जा
सकती थी। अंततः इरावन को बलि के लिए मनाया गया। वह तैयार तो हो गया परंतु उसने एक
शर्त रख दी कि बलि से पहले उसकी शादी करवाई जाए। यह शर्त बड़ी कठिन थी क्योंकि बलि
चढ़ते ही दुल्हिन ने विधवा हो जाना था। कोई औरत इस के लिए तैयार नहीं हुई। अंततः
कृष्ण ने लीला रची और एक सुंदर युवती का रूप धारण कर इरावन से ब्याह रचाया। दूसरे
दिन इरावन की बलि दे दी गई। नारी रुपी कृष्ण ने अपने पति की मृत्यु का विलाप किया
और अपना पुराना रूप धारण कर लिया। तब से ही अपने जैसे लोग कुमागम जाकर इरावन की
मूर्ति के साथ ब्याह रचाते हैं। दूसरे दिन शोभा यात्रा के बाद मूर्ति के सिर को
उतारकर बलि दे दी जाती है। हम सभी वहां रोना-धोना, स्यापा करते हैं। सफेद कपड़े
पहनकर इरावन की विधवाएं बन जाती हैं। जा वहां तेरे जैसे हजारों यही करने आते हैं।
मैं भी एक बार स्यापा कर आई हूँ।
वह चुप हो गई।
घोर उदासी खोई उसकी आँखें मानों आसमान में इरावन का सर ढूँढ रही थी। निरंजना के मन
में यह बात गहरे तक घर कर गई थी।
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डेरे में शोर सुनाई देने लगा। शायद शमला और उसके
साथी साज़ बजा कर मन बहला रहे थे। परंतु, निरंजना को यह शोर परेशान कर रहा था। उसका ध्यान तो कुमागम के
इरावन मंदिर के आँगन में भटक रहा था।
उसने चुपचाप
पैसे जमा करने शुरू किए। उस का एकमात्र मकसद रह गया था कि वह कुमागम जाए और इरावण
की पत्नी बने। उसे विधवा हो जाने का इतना डर नहीं था जितना ब्याह का शौक था। वह बस
ड्राइवरों, कंडक्टरों से कुमागम का रास्ता पूछती परंतु किसी को नहीं पता था। वह तो
हज़ारों मील दूर चेन्नई में था। कई बार उसे लगता कि यह उसका पागलपन है। इतनी दूर तो
वह कभी गई ही नहीं थी। न रास्ते का पता, न मंदिर का पता। कहाँ ढूंढेगी वह, कहीं
भटक ही न जाए। एक दिन उसने शमला से मिन्नत की कि वह उसे इस बारे में पता करके बताए। शमला
रेलवे स्टेशन से सारी खोज-ख़बर ले आया था। निरंजना के अब हौंसले बुलंद थे। उसके
जाने का वक्त आ गया था। नगीना और आशा के सिवाय डेरे में किसी को नहीं पता था। शमला
उसका राज़दार बन गया था।
.......और एक दिन वह लुधियाना रेलवे स्टेशन से
चलकर चेन्नई से दो सौ किलोमीटर दूर कुमागम पहुँच गई थी। उसे लग रहा था जैसे वह मंज़िल
पर पहुँच गई हो। वहाँ पहुँचकर मानो उसकी रुह को सुकून मिल गया था। क्या माहौल था
वहां। जश्नों और खुशियों से भरा पूरा मेला था और मेले में सभी उसके बिरादरी के भाई-बंधु।
किसी से कोई पर्दा नहीं, कोई छुपाव नहीं। बेशक उन्हें एक दूसरे की भाषा नहीं आती
थी परंतु अंदरूनी दुख-दर्द की भाँति अंदरूनी भाषा को भी समझते थे। हर किसी ने
चमकीले वस्त्र पहन रखे थे। गहरा मेकअप, कानों में झुमके, बालों में क्लिप, एक
परिचित से परफ्यूम की खुशबू, कलियों के गज़रे बालों और हाथों में लटकते हुए। उसकी
पोशाक पंजाबी होने के कारण उसे कुछ अजीब सा लगता था परंतु पास से गुज़रता हर साथी
उससे बड़े अपनत्व से पेश आता।
रात उसने
कर्नाटक के एक साथी शिंटम के साथ गुज़ारी।
अगले दिन चालन
समागम था। शिंटम ही उसे मंदिर के आंगन में ले गई। उसने मंदिर के बाहर से कलियों का
गज़रे खरीद कर सजा लिए थे। ब्याह रचाने वाले सभी किन्नर हार-श्रृंगार करके दुल्हन
के रूप में आँगन में बैठे थे। पूरा आँगन कलियों की भीनी-भीनी खुशबू से भरा पड़ा था।
मंदिर की काली और धुंआई छत उसे बड़ी अजीब लग रही थी। पुजारी ने हर एक की कलाई पर
हल्दी का एक टुकड़ा बाँध दिया। पुजारी ने कई अन्य रस्में भी कीं। फेरों के बाद सभी
खूब नाचे। एक दिन के लिए इरावन उनका पति था और वे सभी उसकी सुहागिनें थीं।
उधर के सभी एक
दूसरे को अम्मा कहकर बधाइयां दे रहे थे परंतु निरंजना को सभी मम्मी कह रहे थे। उसे
बड़ा अजीब लग रहा था। शिंटम अम्मा ने निरंजना को बताया कि उत्तर भारतीयों को हम
अम्मा नहीं मम्मी कहते हैं। आधी रात तक ढोल-बाजे के साथ नाच-गाना हुआ। खूब खाया-पिया।
....और धीरे-धीरे उत्सव रात ढलने की भाँति ख़त्म
होने लगा। नाच-गाना मध्यम होता गया। थकावट
और उदासी से आँखें बोझिल होने लगी। निरंजना का भी सोने का मन था परंतु शिंटम अम्मा
ने कहा कि अब सोने का वक्त नहीं है। जल्दी ही सुबह होने वाली है। वह कुछ नहीं समझी
थी
सुबह होते ही
मंदिर के आँगन में प्रकाश फैलने लगा। रात के नाच-गाने का शोर मानो अभी भी कहीं आस-पास
बैठा सुस्ता रहा था। रात को ब्याही साथिनें आँगन में एकत्र होने लगीं। शोभा यात्रा
की तैयारी की जा रही थी। एक खुली जीप के मंडप में इरावण की मूर्ति सजा दी गई। उसकी
सारी दुल्हिनें पीछे-पीछे हल्का हल्का सा नृत्य करती हुई जा रही थीं। ढोल-मंजीरे,
चिमटे बज रहे थे, पुष्प वर्षा हो रही थी।
शोभा यात्रा जल्दी ही मंदिर तक वापस आ गई।
निरंजना बड़ी उत्सुकता से सब कुछ देख रही थी। शिंटम अम्मा ने ही उसे बताया था कि –
अब बलि की रस्म होगी। यह हमारी ज़िंदगी का दुखद
पल है, जब हम ब्याहताएं होकर एक ही झटके में विधवाएं हो जाएंगी।
पुजारी ने
बलि-बेदी पर इरावन की मूर्ति सजा दी। उसके तिलक गया। पुष्प वर्षा की गई। कच्ची
लस्सी के छींटे मारे गए। उसके साथ ब्याही गई सभी की माँग में आख्ररी बार सिंदूर
भरा गया। सभी इरावन के अंतिम दर्शनों के लिए बारी-बारी से सामने आकर हाथ जोड़ कर
नमस्कार करतीं, पुष्प वर्षा करके पीछे लौट जातीं।
पुजारी ने अंतिम
मंत्रोच्चार किया। सभी के प्राण सूख गए, उन्होंने ने हाथ जोड़ लिए। हरेक की नज़रें
एक टक इरावन के सर पर टिकी हुई थीं मानो सब के भीतर एक ख़ामोश महाभारत छिड़ा हुआ
हो जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव-पांडव आमने–सामने डटे हों। पुजारी के दो साथियों ने शंखनाद किया और एक
दर्दनाक काँपती सी आवाज़ मंदिर के आँगन और दीवारों में गूंज गई। पूर्ण पुरुष की बलि दे दी गई थी। मूर्ति का सर
उतर चुका था। बलि की रस्म संपन्न होते ही शोर-शराबा और स्यापा शुरू हो गया
था। विभिन्न भाषाओं के शोकालाप हवा में
गूंजने लगे। निरंजना और उसकी सखियों ने बाँहों में पहनी रंग-बिरंगी चूड़ियां तोड़
डालीं। गज़रे तोड़ दिए, माँग से सिंदूर पोछ दिया। चेहरों पर से गहरा मेकअप उतार
दिया। चमकते चेहरे उदासी में डूब गए। धीरे-धीरे सभी ने श्वेत वस्त्र पहनकर विधवाओं
का रूप धारण कर लिया। इरावण की मृत्यु का मातम चारों तरफ था। निरंजना के लिए यह
बड़ा ही विलक्षण तजुर्बा था। ब्याहताएं विधवाओं के रूप में एक-एक करके बलि वेदी से
उतारी गईं इरावण की मूर्ति को प्रणाम करके जा रही थीं। हर एक के मन में यही इच्छा
थी कि इरावण की पत्नी बनने के बाद वे इस योनी से मुक्त हो जाएं।
शिंटम
अम्मा उसे
झोपड़ी में लेकर आ गई। सभी साथी बिछड़ रहे थे। जो एक दूसरे से परिचित थे वे अगली
बार मिलने के वादे कर रहे थे। अम्मा ने उसे इरावन की एक छोटी सी मूर्ति और मोतियों
की माला भेंट स्वरूप दी, परंतु उसके पास तो देने के लिए कुछ नहीं था। उसने वादा
किया कि अगली बार वह कोई सौगात उसके लिए ज़रूर लेकर आएगी।
अम्मा उसे
चेन्नई स्टेशन तक छोड़ कर गई। गाड़ी में बैठे काले, उँचे, लंबे, बनियानें-लूंगी पहने
और पैरों में हवाई चप्पल पहने लोग उसे बड़े अजीब लग रहे थे। वह पटर-पटर बोलते तो
लगता मानो पीपे बज रहे हों। एक शब्द उसे बार-बार सुनाई देता “अई अई ओ”। सुनकर उसे हंसी आ
जाती है। गाड़ी चल पड़ी, सफर बहुत लंबा था। उसे लग रहा था मानो सचमुच
वह अपने किसी बड़े परिवार से विधवा हो कर बिछुड़ रही हो, मेले की रौनक, मंदिर का आँगन,
रंग-बिरंगे लोग और इरावण की सर कटी मूर्ति सब कुछ उसके साथ साथ चल रहे थे। इरावन
का कटा हुआ सर याद आते ही वह काँप उठी।
वह सोच रही थी जब यह सब कुछ वह
अपनी सहेलियों को जाकर बताएगी तो कौन उसका यकीन करेगा कि वह एक शादीशुदा विधवा थी।
उसके बदन में झुनझुनी सी दौड़ गई। धीरे-धीरे सरकती ट्रेन की गति बढ़ रही थी।
पहियों के घर्षण की आवाज़ कानों में गूंजने लगी। बाहर सब कुछ घूमता नज़र आ रहा था।
अचानक उसका ध्यान बंट गया था। अचानक टिकट चैकर ने उससे झिंझोड़ते हुए पूछा - अम्मा किधर को ? टिकट
?
उसके मुँह से इतना ही निकला
- “मैं अम्मा नहीं मम्मी हूँ” और वह टिकट ढूँढने लगी जो उसके पास
था ही नहीं।
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