किन्नर
- तौकीर चुगताई
- तौकीर चुगताई
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
हिजड़े कौन होते हैं?
‘किन्नर होते
हैं ?’
‘किन्नर क्या
होते हैं?’
‘जिनके
बाल-बच्चे नहीं होते।’
‘तब तो बेऔलाद
हुए न?’
‘नहीं, बेऔलाद
नहीं होते, परंतु उनके बच्चे भी नहीं होते।’ माँ ने कहा।
‘बेऔलाद भी नहीं
होते....बच्चे भी नहीं होते...’
‘तू जा! जाकर आटा गूँध! ऐसे ही बेमतलब की बातें करती रहती है। जब बड़ी हो जाओगी, तो खुद ही पता चल
जाएगा।’ माँ गुस्से से कह रही थी।
मैं आटे की परात के पास जाकर
बैठ गई और टीन में से आटा निकाल धीरे-धीरे गूँधना शुरू कर दिया। परंतु मन में माँ
की बात अटकी हुई थी – ‘जब बड़ी हो जाओगी, खुद ही पता चल जाएगा।’
मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं
लगभग 13 बरस की थी तो एक बार माँ से पूछा था – ‘आदमी की शादी
कब होती है?’
‘जब जवान हो
जाता है।’
‘आदमी जवान कब
होता है?’
‘जब हो जाओगी तो
पता चल जाएगा।’
फिर कुछ दिनों के बाद माँ ने
मुझसे कहा – ‘जा तू जवान हो गई है। जाकर कपड़े बदल ले। देख तेरी सलवार में खून लगा हुआ
है’। और पास बैठी रहीमो मछुआरन से पूछा – ‘आज चाँद (शुक्ल
पक्ष) की कौन सी तारीख है?’
‘तेरह।’ रहीमो न कहा।
‘और सुन, आज
चाँद की तेरह तारीख, अब से चाँद की तारीखों का हिसाब भी रखा कर।’
‘अच्छा माँ।’ कहकर मैं
गुसलखाने की तरफ चल पड़ी, और सोचा कि माँ अब बिलकुल ही बूढ़ी हो गई है। हर चीज़ की
याद भूल जाती है। इससे पहले तो देसी, अंग्रेजी और इस्लामी महीने और उनकी तारीखें
भी याद रखती थी। अब तो गई काम से। मुझे बाहर से माँ और रहीमो की हँसी की आवाज़ें
सुनाई दे रही थीं। वे पता नहीं क्यों इतनी ज़ोर से हँस रही थीं। इससे पहले तो
मैंने कभी उनको इतनी ज़ोर से हँसते नहीं देखा था।
फिर एक दिन मैंने माँ से पूछा
था – ‘सिर्फ़ उन्हीं लोगों के बच्चे क्यों होते हैं, जिनका ब्याह हो जाता है? सभी लोगों के
बच्चे क्यों नहीं होते?’
माँ ने मुझे उस दिन भी डाँटा
था, और कहा था – ‘जब बड़ी हो जाओगी तो खुद ही सब पता लग जाएगा।’
मुझे यूँ लगा जैसे मैं कभी बड़ी
ही नहीं होऊंगी। या फिर मुझे कुछ भी पता नहीं होगा और मैं इतनी बड़ी हो जाऊंगी
जितनी बड़ी मेरी माँ है या मारिया की दादी है। परंतु यह भी क्या बड़े होना हुआ? आदमी को किसी
बात का पता ही न हो और वह सिर्फ़ बड़ा होता रहे। ज्वार के खोखले डंठलों की भाँति।
मुझसे तो मरियम ही अच्छी थी जिसे उसकी माँ बिन पूछे ही सब कुछ बता देती थी। मैंने
कई बार मरियम से कहा भी था – ‘हाए, हाए तुम्हारी माँ कितनी बेशर्म हैं, तुझे सारी बातें बता देती है। मरियम
ने कहा था, मेरी माँ कहती है, बच्चों से कुछ भी नहीं छुपाना चाहिए। आज के बच्चे
भावी माता-पिता होंगे।’
मैंने सोचा, चलो आज फिर मरियम
से पूछ लेती हूँ कि किन्नर क्या होता है? अगर उसे भी न पता हुआ तो उसकी माँ से दोनों मिल कर पूछ लेंगे।
दूसरे दिन मैं दुपट्टे पर झालर
लगाने का बहाना करके क्रोशिया और धागा ले चल पड़ी मरियम के घर। मरियम उस वक्त घर
पर अकेली ही थी। मैंने जाते ही उसके सामने
सवालों की झड़ी लगा दी।
‘किन्नर कौन
होते हैं? उनके संतान क्यों नहीं होती?’
वह पहले तो खुल कर हँसी और फिर कहा, ‘तुम्हें आज किन्नरों
का शौक क्यों चर्रा गया है? बैठ जाओ, साँस तो ले लो।’
‘मुझे जो भी
मालूम है तुम्हें बता देती हूँ परंतु आज तुम यह सब क्यों पूछ रही हो?’
‘अरे, चौधरियों
की बैठक पर कल किन्नर आ रहे हैं।’
‘तो क्या हुआ? वो तो हर साल
आते हैं और घर-घर जाकर बधाई इकट्ठी करके चले जाते हैं। और कभी-कभार शादी पर और
जन्म पर भी आ जाते हैं।’ मरियम ने कहा।
‘हाँ। पर हम तो
घरों में कैद होती है, मुझे तो याद नहीं आता, जो कभी उनका नाच-गाना देखा हो।’
‘परसों मेरे ताऊ
जी के बेटे की शादी शुरू हो रही है। ताई कह रहीं थीं, किन्नरों को भी बुलाएंगे।’
‘अच्छा, चलो
छोड़ो, मुझे यह बताओ कि किन्नर को किन्नर क्यों कहते हैं?’
मरियम बोली, ‘ज़्यादा तो मैं
भी नहीं जानती, परंतु मुझे याद आता कि एक बार माँ मेरी बड़ी बहन को बता रही थी कि किन्नरों
का जब जन्म होता है तब वे न तो औरतों जैसे होते हें, न ही मर्दों जैसे। बस इतना
समझ लो कि वे न तो पूर्ण मर्द होते हैं और न ही पूर्ण स्त्री।’
‘क्या मतलब है
तुम्हारा? उनके आँख, कान या नाक नहीं होते?’ मैंने पूछा।
‘नहीं नहीं, सब
कुछ होता है परंतु......’
‘परंतु क्या
नहीं होता?’ मैंने पूछा।
‘वह नहीं, जिससे पुरुष और स्त्री का फर्क़ का पता चल सके, जैसे जब बच्चा
पैदा होता है तो उसे देख कर पता चल जाता है कि यह लड़की है और यह लड़की....’
जब मुझे समझ आया तो मैं हैरान
रह गई।
‘अरे नहीं,
नहीं.....’
‘अरे हाँ,
हाँ..... और माँ बता रही थी कि ये किन्नर नेक पाक रूह होती हैं। सारी उम्र लोगों
की बधाईयों पर ही गुज़ार देते हैं और जब मर जाते हैं तो इनके गुरू और चेले पता
नहीं कहाँ ले जाते हैं। मैंने आज तक किसी किन्नर का जनाज़ा नहीं देखा।’
‘अरे हाँ! एक दिन माँ एक दिन जनतां लुहारन से कह रही थी –
तेरी तो सारी जवानी तेरी ख़सम ने बर्बाद कर दी। अब बस भी कर, बारह बच्चे हो गए हैं
तेरे।’
जनतां माँ से कह रही थी - ‘अरी, क्या करूँ ! मेरा खसम, मेरा पेट खाली रहने ही
नहीं देता। बच्चा हो तो भी भरा हुआ, अगर न हो तो भी.....’
‘धनिया पिला
हराम की औलाद को, ठंडा हो जाएगा। पहले तो मेरा भी खसम न दिन देखता था न रात।
चढ़-चढ़ आता था, परंतु अब दिन डूबता है तो खटिया संभाल लेता है। जब धूप चढ़ आती है
तो जगता है। हिजड़ा बन गया है, निरा हिजड़ा।’
ये बातें सुनकर मैंने अनुमान
लगाया कि किन्नर एक ऐसा प्राणी होता है, जो न तो मर्द होता और न ही स्त्री। बस एक
ऐसा बुत, जो किसी को भी कुछ नहीं कहता। बस शादी-ब्याहों पर नाच कर, बधाईयां लेकर
ज़िंदगी गुज़ार देता है। मरियम ने बताया।
‘कितने अच्छे होते हैं किन्नर, अल्लाह की नेक और पाक रूह। न बाल-बच्चे, न
भाई-बहन, न गुनाह, न तौबा। कितना अच्छा होता अगर मैं किसी किन्नर को क़रीब से देख
पाती। उसे छूकर देख सकती कि हमारे और उनके बीच क्या फ़र्क होता है।’ मैंने आह भर कर कहा।
‘तू दो दिन सब्र कर ले। मेरे ताये के बेटे की शादी पर जो किन्नर आ रहे हैं
न, मैं किसी न किसी तरह उनमें से किसी एक को अकेले बुला लूंगी और फिर हम दोनों सब
कुछ पूछ लेंगी। वैसे एक किन्नर मुझे थोड़ा बहुत जानता भी है। पिछले साल जब बधाई
लेने हमारे घर आया था, तो मैं अकेली थी। वह बड़ी मीठी-मीठी बातें कर रहा था। मेरे
माँ मोचियों के घर मातमपुर्सी पर गई हुई थी। उनका लड़का नहर में डूब गया था। घर
में कोई भी नहीं था, इसलिए वह बहुत देर तक मेरे पास बैठा रहा था। मैंने उसका नाम
पूछा तो कहा – नीलू...... ’
‘नीलू ? यह तो लड़कियों वाला
नाम है, और जहाँ तक मुझे पता है किसी फिल्मी नायिका का भी नाम है शायद।’
‘हाँ ! मुझे नीलू का डाँस बहुत अच्छा लगता है, हाँ मेरी सहेलियां कहती है कि तू
बिलकुल नीलू की तरह नाचता है।’ उसने जवाब दिया।
‘फिर मुझसे कहा, ‘आज से मैं और तुम सहेलियां हैं। मैने हामी भर दी परंतु मुझे बड़ा
अजीब-अजीब सा लग रहा था। ख़ास तौर से तब, जब वह कहता था, खाती हूँ, जाती हूँ, पीती हूँ..... ’
दूसरे दिन मरियम के ताऊ के बेटे का
ब्याह शुरू हो गया। लड़कों से पता चला कि किन्नर भी आ गए हैं। शाम के वक्त जब मरियम
मिली तो उसने मुझे बताया कि नीलू किन्नर भी आया है। मुझे बहुत खुशी हुई। मरियम ने
मुझे यह भी बताया कि मेरी ताई और माँ कल शादी के लिए सामान लेने शहर जाएंगी तो मैं
घर में अकेली होऊंगी। तू भी आ जाना तो गप्प-शप्प करते हुए समय जल्दी बीत जाएगा।
मैं अगले दिन मरियम के घर जा
पहुँची। उसकी माँ ताई के साथ सामान लेने शहर गई हुई थी। घर पर सिर्फ़ मैं, मरियम
और उसका लगभग दस वर्षीय भाई भी था। दोपहर
को दरवाज़े पर दस्तक हुई। मरियम ने अपने भाई से कहा- ‘जाकर देखो तो कौन आया है?’ मरियम के भाई ने दरवाज़ा खोला और पीछे मुड़ कर कहा – ‘बाजी ! एक शहरी महिला है, कहती है मेरा नाम नीलू है।’
- ‘नीलू !’ एक दम मरियम के मुँह से निकला और मैं भी खिल उठी। वह अंदर आ गया।
कितना सुंदर लग रहा था वह। मर्दाना चेहरा और
जनाना आदतें। हर एक बात में एक अदा। मैं तो उसे देखती रह गई।
मरियम ने अपना भाई को खेलने के लिए भेज दिया।
और नीलू से पूछा -
‘तुम यहाँ कब तक
हो ?’
‘तीन दिन और
रहूंगी।’ नीलू ने बताया।
‘मैं तुमसे मिलना
चाहती हूँ।’ मैंने नीलू से कहा।
‘अकेले ?’ उसने पूछा।
‘हाँ।’
‘तो फिर सब्र कर! रात होने दे, फिर कुछ करते हैं...’
मरियम बोली, ‘मैं भी आऊंगी।’
- ‘परंतु कहाँ ? कोई आ गया तो क्या होगा ? और रात को
सर्दी भी तो होती है।’ उसने कहा।
- ‘ऐसा करना आज रात
को तुम अपनी बैठक में सो जाना। मैं तो वैसे भी ताऊ के घर सोऊंगी। आधी रात को नीलू
गली वाले दरवाज़े से आ जाएगी। फिर हम सारी रात खुल कर बात-चीत करेंगे।’
हमने रात को ऐसा ही किया। मरियम ताऊ के घर से फारिग हो कर हमारे घर सोने का बहाना करके आ गई। और फिर हम दोनों नीलू का इंतज़ार करने लगीं।
धीरे से कुंडी बजने की आवाज़ आई तो मैं समझ गई कि यह नीलू है। धीरे से दरवाज़ा खोल
कर मैं एक तरफ सरक गई। उसके पास से चमेली की खुशबू वाले पाउडर के झोंके आ रहे थे,
जो हमारी बैठक में फैल गए। वह भीतर आकर
चारपाई पर बैठ गई। थोड़ी सी बातें करने के बाद नीलू ने मरियम से कहा – ‘तू थोड़ी देर के
लिए बाहर जाकर बैठ जा। ऐसा न हो कि कोई भीतर आ जाए। कुछ देर बाद मैं तुझे बुला
लूंगी।’
मरियम बाहर चली गई। बैठक में मैं और नीलू रह गए। मुझे ऐसे लगा जैसे मेरी कोई सहेली
सो रही हो। मैंने उसके चेहरे पर हाथ फेरा। उसका गर्म-गर्म चेहरा इतना अच्छा लगा कि
मैने दोनों हाथों में लेकर उसे चूम लिया। किसी के बदन से पाउडर और पसीने की ऐसी
खुशबू मैंने पहली बार सूंघी थी। तंदूर पर बनी गेहूं की ताज़ा रोटी जैसी महक जिसे
सूँघ कर भूख और बढ़ जाती है। मुझे ऐसा लगा जैसे आज मेरा पेट नहीं बल्कि मन भूखा हो
और नीलू तंदूर की ताज़ा रोटी की भाँति आँखों से उतर कर मन रूपी पेट को भरने लगी।
उसका मुँह चूम-चूम कर पता नहीं मुझे क्या होने लगा, मैं उसके मुँह, होंठ और गालों
को चूमती चली गई।
नीलू ने जब मुझे आलिंगन में ले मेरा मुँह,
नाक, आँखें और फिर होंठ चूमे तो मुझे बिलकुल ही होश न रहा। मुझे कुछ पता नहीं लग
रहा था, मेरी सलवार किधर, दुपट्टा किधर और कमीज़ किधर – मुझे तो यह भी नहीं पता था
कि शायद मैं कहाँ हूँ। बस मुझे हल्का सा दर्द हुआ, और ऐसे लगा मानो मेरा पूरा बदन
सिकुड़ कर नीलू की टाँगों के पिंजरे में फड़क रहा हो....
मुझे याद है कि नीलू ने मेरी बाँह पकड़ कर
मुझे चारपाई से उठाया और कहा, ‘जा कर मरियम को भीतर भेज दो।’
बाहर का घुप्प अंधेरा और भी गहरा होता जा रहा
था। इसलिए भी कि आज चाँद की नौ तारीख थी। ये शुरू की तारीखों में जल्दी अस्त हो
जाता है। इसलिए भी अंधेरा बहुत ज़्यादा था। मैंने बाहर की दीवार के साथ बनी लकड़ी
की घडवंजी (घड़ा रखने का स्टैंड) से टेक लगा ली और मरियम से कहा – ‘जा नीलू अब तुझे
बुला रही है।’
काफ़ी देर बाद जब मरियम मुझे घड़वंजी से खाली घड़े की भाँति पकड़ कर
भीतर ले जा रही थी तो मैंने उससे पूछा, ‘नीलू सो गई क्या ?’
- ‘नहीं, वह चली गई
है।’ उसने बताया परंतु उसकी आवाज़ इतनी मध्यम थी जैसे
बैठक में हल्के-हल्के जल रहे दीये की जली हुई बाती की लौ।
सुबह मरियम की माँ ने हमे आकर जगाया।
- ‘हाय रे, हाय,
ज़ुल्म खुदा का, न नमाज़, न रोज़ा, न खुदा का रसूल, कंजरियो। जल्दी सो जाती न।
जल्दी करो, जल्दी उठो। तुम्हारे पिता दो बार पूछ चुके हैं।’
मैं
उठ कर गुसलखाने की तरफ चल दी। आज पेशाब करते वक्त मुझे ऐसा लग रहा था मानो मैं
नहीं, मेरे पास बैठकर बड़ी उम्र की कोई स्त्री पेशाब कर रही हो। मेरी सलवार पर खून
के निशान लगे हुए थे।
मैंने उंगलियों पर हिसाब लगाया – नौ,
दस,ग्यारह, बारह, तेरह – अभी तो चार दिन बाकी थे, परंतु खून......
मरियम के ताये के बेटे की शादी को दस दिन हो गए थे। चाँद की आज तेरह तारीख हो चुकी
थी परंतु इस बार वह सब कुछ भी नहीं हुआ था जो चाँद की तेरह या चौदह तारीख को होता
था।
आँगन में बैठी मेरी माँ, पिता को बता रही थी कि किन्नरों ने इस बार कमाल का
नाच दिखाया।
- ‘अब किन्नर कहाँ
से आए ? किन्नर तो हमारे ज़माने में होते थे। अब तो
असली मर्द भी औरतों के कपड़े पहन कर पैसे कमाने के लिए किन्नर बन जाते हैं।’ मेरे पिता ने कहा।
मुझे ऐसा लगा – जैसे मैं एक दम बड़ी होकर
माँ, बेबे और दादी बन गई होऊँ। अगर माँ मुझे बता देती कि सिर्फ़ शादी-शुदा लोगों
के ही बच्चे क्यों होते हैं और किन्नरों को किन्नर क्यों कहते हैं, तो मैं भी उतनी
ही बड़ी होती जितनी मेरी उम्र है।
000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें