मृत्यु के बाद किन्नर का अपनी माँ को ख़त
- लीना हाशिर
लिप्यांतरण – ख़ालिद फ़रहाद धालीवाल
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
माँ ! जब मेरी उम्र नौ-दस बरस की थी, जब अब्बा ने मुझे ज़मीन पर घसीटते हुए घर से बेघर कर दिया था। मैं चीख़-चीख़ कर तुम्हें पुकारता रहा मगर तुम चेतनाशून्य, सहमी सी मुझे तकती रही। तुम्हारे आँसू निरंतर बहते जा रहे थे जो अब्बा के क्रोध के प्रकोप के समक्ष भी थमने को तैयार न थे। तुम्हारा हर आँसू इस बात का सबूत था कि तुम अब्बा के इस फैसले से बहुत आहत थी मगर अब्बा की हर बात मानने को मजबूर थी।
मुहल्ले वालों के ताने, रिश्तेदारों के तंज़ और लोगों की चुभती हुई निगाहों से जब अब्बा बेक़ाबू हो जाते तो अपनी काले चमड़े की चप्पल से
मेरी चमड़ी उधेड़ते। अपने जिस्म पर चप्पल से बनाए गए नक़्श लिए मैं इस काल कोठरी की तरफ भागता जो इस पूरे घर में मेरी एकमात्र पनाहगाह बन गई थी। पिटाई का दिन जब रात
में ढलता तो तुम अब्बा से छुप कर दबे पाँव आती। मुझे सीने से लगाती, अपने दुपट्टे से मेरे ज़ख़्मों की टकोर करती। मेरा सर अपनी गोद
में लिए घंटों मेरे पास बैठी रहती। मुझे चुप कराते-कराते तुम्हारी अपनी सिसकियाँ
बंध जातीं। आहों और सिसकियों की गूंज के इलावा इस काल- कोठरी में कुछ सुनाई न देता। हम दोनों आँसुओं की ज़बान में बात करते। मेरे आँसुओं में अनगिनत
सवाल होते कि आख़िर अब्बा की नफ़रत की ख़ास इनायत मुझ पर ही क्यों? आख़िर
क्यों घर में मेहमानों के आते ही स्टोर के तंग घुटन भरे कमरे में घर के हर फ़ालतू सामान के साथ मुझे बंद कर दिया जाता है और
जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते मुझे रिहाई का परवाना क्यों नहीं दिया जाता? यह रहमत हर बार मेरे लिए ही ज़हमत क्यों बन जाती है? मगर
माँ, मेरे हर सवाल के जवाब में तुम चुपचाप मुहब्बत भरी नज़रों से मुझे देखती रहती
और कुछ न कहती। बस कभी तुम मेरे माथे का चुंबन लेती और कभी मेरे हाथों को चूम कर इस बात की गवाही देती
कि मैं तो अपने राजा बेटे से बहुत प्यार करती हूँ। एक सवाल करते-करते मैं थक जाता
और नींद के आग़ोश में चला जाता कि आख़िर मुझ से ऐसी क्या ख़ता हुई जो मैं अपने दूसरे भाई-बहनों की तरह
अब्बा के प्यार का हक़दार नहीं।
हाँ, तुम्हारी गोद में सो जाने से पहले मैं
यह दुआ भी करता कि यह रात कभी ख़त्म न हो मगर सुबह होती और तुम फिर उस औरत का लबादा
ओढ़ लेती जो अब्बा और समाज के डर से मुझे प्यार करते डरती थी। जिस दिन अब्बा ने मुझे
घर से निकाला, उस दिन मेरा क़सूर बस इतना था कि मैंने तुम्हारे ड्रेसिंग टेबल पर रखी लिपस्टिक
से अपने होंठ रंग लिए थे,
तुम्हारा सुर्ख़ दुपट्टा सर पर रखे, तुम्हारे हाथों के कंगन अपनी कलाई में डाले तुम्हारी ठक-ठक करने
वाली जूती पहन कर ख़ुश हो रहा था,
बस यह देखने की देर भर थी कि
अब्बा ने मुझ पर अपने जूतों की बरसात शुरू कर दी। मैं बहुत माफ़ी माँगता रहा मगर
मेरी कोई सुनवाई न हुई और गाली-गलौच करते हुए ज़मीन पर घसीटते हुए हिजड़ा-हिजड़ा कहते
हुए मुझे हमेशा के लिए सब घर वालों से दूर कर दिया।
मेरे लिए अब्बा के अंतिम शब्द ये थे कि आज से तू हमारे लिए मर गया। यह जुमला सुनते ही मेरी हाथों की गिरफ़्त, जिसने अब्बा के पैरों को मज़बूती से पकड़ रखा था कमज़ोर पड़ गई। मेरी
गुड़गुड़ाती हुई ज़बान ख़ामोश हो गई,
मेरे आँसू थम गए क्योंकि मैं
जानता था कि अब्बा अपनी कही हुई बात से कभी नहीं फिरते। और माँ ! तुम में अब्बा के किसी भी फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं थी। इस के बाद अब्बा मुझे
हमेशा के लिए यहाँ छोड़ गए जहाँ एक गुरु रहता था। अमज़द की जगह मेरा नाम अलीशाह रख दिया गया। मुझे
नाच-गाने की तालीम दी जाती। मुझ पर नज़र रखी जाती लेकिन मैं जब कभी मौक़ा मिलता
तुम्हारी मुहब्बत में गिरफ़्तार अपने घर की तरफ़ पागलों की तरह भागता। मगर, अब्बा
का आख़िरी जुमला मुझे दहलीज़ पार करने से रोक देता। दरवाज़े की ओट से जब तुम्हें गर्मा-गर्म
रोटी बनाते देखता तो मेरी भूख भी बढ़ जाती और तुम अपने हाथों से निवाले बना-बना कर
मेरे भाई-बहनों के मुँह में डालती तो हर निवाले पर मेरा भी मुँह खुलता मगर वह निवाले
की हसरत में खुला ही रह जाता। इस हसरत को पूरा करने के लिए मैं अक्सर घर के बाहर
रखी हुई सूखी रोटी को अपने आँसुओं में भिगो-भिगो कर खाता।
बाद की ईदें तो तन्हा थीं ही, पर जब घर से बेघर न किया गया था तब भी ईद पर जब अब्बा हरेक के हाथ पर ईदी रखते तो मेरा हाथ फैला ही रह
जाता। जब हर बच्चे की झोली प्यार और मुहब्बत से भर दी जाती तो मेरी झोली ख़ाली ही रह जाती। जब अब्बा दुआएं
देते हुए सबके सरों पर अपना हाथ फेरते तो मेरा सर झुका ही रहता।
सेहन में खड़ी अब्बा की साइकिल जिसको अक्सर मैं मुहल्ले से गुज़रते देखता तो हर बार दिल में यह ख़्वाहिश होती कि काश ! अब्बा साइकिल रोक कर मुझे एक बार, सिर्फ एक बार सीने से लगा लें मगर मेरी यह हसरत, हसरत बन कर ही रह गई। घर छोड़ने के दु:ख के बाद मेरे ऊपर एक और कहर टूटा जिसके आतंक ने मेरी रूह तक को ज़ख़्मी कर दिया। कुछ सज्जन गुरु के पास आए और मुझे अपने साथ ले गए। मुझे ज़बरदस्ती बे-लिबास किया और अपनी हवस की भेंट चढ़ा डाला। माँ, मैं इतना छोटा और कमज़ोर था कि मैं तकलीफ़ की वजह से अपने होश ही खो बैठा था। उस बेहोशी के आलम में मुझे गुरु के हवाले कर दिया गया, पर यह सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि मैं रोज़ अपनी ही नज़रों में गिरता रहा, मरता रहा। करता भी क्या, क्योंकि अब मेरे पास कोई और दूसरी पनाहगाह न थी।
सेहन में खड़ी अब्बा की साइकिल जिसको अक्सर मैं मुहल्ले से गुज़रते देखता तो हर बार दिल में यह ख़्वाहिश होती कि काश ! अब्बा साइकिल रोक कर मुझे एक बार, सिर्फ एक बार सीने से लगा लें मगर मेरी यह हसरत, हसरत बन कर ही रह गई। घर छोड़ने के दु:ख के बाद मेरे ऊपर एक और कहर टूटा जिसके आतंक ने मेरी रूह तक को ज़ख़्मी कर दिया। कुछ सज्जन गुरु के पास आए और मुझे अपने साथ ले गए। मुझे ज़बरदस्ती बे-लिबास किया और अपनी हवस की भेंट चढ़ा डाला। माँ, मैं इतना छोटा और कमज़ोर था कि मैं तकलीफ़ की वजह से अपने होश ही खो बैठा था। उस बेहोशी के आलम में मुझे गुरु के हवाले कर दिया गया, पर यह सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि मैं रोज़ अपनी ही नज़रों में गिरता रहा, मरता रहा। करता भी क्या, क्योंकि अब मेरे पास कोई और दूसरी पनाहगाह न थी।
पर इसी काम को मेरे गुरु ने मेरे पेशे का नाम दे दिया। मैं गुरु के पास से
कई बार भागा, दर-दर नौकरी की तलाश में फिरता रहा
मगर मायूसी के सिवा कुछ हासिल न हो सका।
हर बार गुरु के दर पर ही पनाह मिली।
हमारा वजूद समाज में गाली समझा जाता है। हमें तो किसी को बद्दुआ भी देनी हो तो हम कहते हैं कि
जा तेरे घर भी मुझ जैसा पैदा हो। हालाँकि हमारी रगों में भी सुर्ख़-रंग का ही ख़ून
दौड़ता है। हमें बनाने वाला भी तो वही है जिसने उनको पैदा किया। उनके सीने में भी
दिल हमारी तरह ही धड़कता है। तो फिर हमें किस बात की सज़ा दी जाती है? हमारा जुर्म क्या होता है? शायद हमारा जुर्म यह होता है
कि हमारा ख़ून सुर्ख़ है और समाज का सफ़ेद।
माँ
! मैं सारी ज़िंदगी जीने की चाह में तिल-तिल कर मरता चला गया। सफ़ेद
ख़ून रखने वाले लोग कभी मज़हब की आड़ लेकर तो कभी जिस्मफरोशी से इन्कार पर हमारे
जिस्मों में गोलियां उतार देते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, मुझे भी गोलियां मारी गईं। जब
मुझे होश आया तो डॉक्टर मुझे उम्मीद की किरण दिखाने की कोशिश में आहिस्ता-आहिस्ता
मेरे कान में सरगोशी कर रहा था कि अगर तुम हिम्मत करो तो ज़िंदगी की तरफ़ लौट सकते हो।
मैंने बहुत मुश्किल से अपने होंठों को जुंबिश दी और डॉक्टर से कहा कि अगर मैं हिम्मत कर के लौट भी आया तो
क्या मुझे जीने दिया जाएगा? जब मौत का फ़रिश्ता मेरे पास आया तो मैंने उस से जीने के लिए चंद लम्हों की
मोहलत माँगी। न जाने क्यों इस बार मुझे उम्मीद थी कि तुम दौड़ी चली आओगी, ‘मेरा लाल’ कहते हुए मुझे अपने सीने से
लगाओगी। मेरे सर को अपनी गोद में रख कर मेरे ज़ख़्मों की टकोर कर के मुझे इस
दुनिया से रुख़स्त करोगी लेकिन मौत के फ़रिश्ते ने चंद लम्हों की मोहलत तक भी न दी।
सुना है क़यामत के रोज़ बच्चों को माँ की तरफ़ से पुकारा जाएगा।
बस माँ, तुमसे इतनी सी इल्तिज़ा है कि इस दिन तुम मुझ से मुँह मत फेरना।
तुम्हारी मुहब्बत का तलबगार
- तुम्हारा अभागा बेटा।
साभार - हम भी इन्सान हैं (किन्नरों पर केंद्रित कहानियां)
सं0 डॉ. एम फिरोज़ खान
वाड़्मय बुक्स
205 ओहद रेजीडेंसी, मिल्लत कॉलोनी, दोदपुर रोड,
अलीगढ़ - 202002
चलभाष - 09719302668
000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें