0 करतार सिंह दुग्गल
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
और फिर बाबा नानक घूमते-घूमते हसन
अबदाल के जंगल में जा पहुँचे। गर्मी बहुत थी। चिलचलाती धूप। चारों ओर सुनसान, पत्थर और रेत ही रेत।
झुलसी हुई झाड़ियां, सूखे हुए पेड़। दूर-दराज तक कहीं इन्सान नज़र नहीं आ रहा था।
‘और फिर अम्मी?’ मैंने सुनते हुए पूछा।
बाबा नानक अपने ध्यान में मग्न
चलते जा रहे थे कि मरदाने को प्यास लगी, पर वहाँ पानी कहाँ? बाबा ने कहा, ‘मरदाने थोड़ा सब्र कर ले, अगले गाँव पहुँच कर जितना तेरा जी चाहे, तू पानी पी लेना।’ पर मरदाने को तो बहुत प्यास लगी हुई थी। बाबा नानक यह सुनकर चिंतित हुए। इस
जंगल में दूर-दूर तक पानी नहीं था। और जब मरदाना ज़िद कर बैठता तो सबके लिए बड़ी
मुश्किल खड़ी कर देता था। बाबा ने फिर समझाया,
‘मरदाने यहाँ कहीं भी
पानी नहीं है, तू सब्र कर ले, ईश्वर की करनी समझ ले।’ पर मरदाना तो वहीं का वहीं बैठ गया। उससे और एक कदम भी आगे नहीं चला जा रहा
था। गुरु नानक मरदाने की ज़िद को देख बार-बार मुस्कराते, हैरान होते। हार कर जब
उन्होंने मरदाने को किसी भी तरह बहलते न देखा, तो वे अंतर्ध्यान हो गए। जब गुरु नानक की आँख खुली तो मरदाना मछली की भाँति
तड़प रहा था। सत्गुरु उसे देख मुस्कराए और कहा –
‘भाई मरदाने इस पहाड़ी पर एक कुटिया है, जिसमें वली कंधारी
नामक एक दरवेश रहता है। यदि तुम उसके पास जाओ तो तुम्हें पानी मिल सकता है। इस
क्षेत्र में केवल उसका ही कुआँ पानी से भरा पड़ा है, और कहीं भी पानी नहीं।’
‘फिर अम्मी ?’ मैं यह जानने के लिए
बेचैन हो रहा था कि मरदाने को पानी मिलता है या नहीं।
मरदाने को बहुत प्यास लगी थी, सुनते ही वह पहाड़ी की
तरफ दौड़ पड़ा। कड़कड़ाती दोपहर, इधर प्यास, उधर पहाड़ी का सफ़र, बदहवास, पसीने से तरबतर मरदाना
बड़ी मुश्किल से वहाँ पहुँचा। वली कंधारी को सलाम कर उसने पानी के लिए प्रार्थना
की। वली कंधारी ने कुएँ की तरफ इशारा किया। जब मरदाना कुएँ की तरफ जाने लगा, तो वली कंधारी के मन
में कुछ विचार आया और उसने मरदाने से पूछा, ‘भले आदमी तुम कहाँ से आए हो ?’ मरदाने ने कहा, ‘मैं नानक पीर का साथी हूँ। हम चलते-चलते इधर आ पहुँचे हैं। मुझे बहुत प्यास
लगी है और नीचे कहीं भी पानी नहीं है।’ बाबा नानक का नाम
सुनकर वली कंधारी को जैसे आग लग गई हो और उसने मरदाने को अपनी कुटिया से उसी क्षण
बाहर निकाल दिया। थके हुए मरदाने ने नीचे आकर बाबा नानक से फरियाद की। बाबा नानक
ने उसकी सारी व्यथा सुनी और मुस्करा दिए। ‘मरदाने तुम एक बार फिर जाओ। बाबा नानक ने मर्दाने को सलाह दी। इस बार तुम
विनम्र हृदय लेकर जाओ, कहना – मैं नानक दरवेश का
साथी हूँ।’ मरदाने को तीव्र प्यास लगी थी। पानी और कहीं नहीं था। चिढ़ता हुआ मरदाना फिर
से वहीं चल पड़ा। पर पानी वली कंधारी ने फिर भी न दिया। मैं एक काफ़िर के साथी को
चुल्लू भर पानी भी नहीं दूंगा। वली कंधारी ने मरदाने को फिर ज्यों का त्यों लौटा
दिया। जब मरदाना इस बार नीचे आया तो उसका बुरा हाल हो रहा था। उसके होठों पर पपड़ी
जमी हुई थी। मुँह पर पसीना आ रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि मरदाना घड़ियों, पलों का मेहमान है।
बाबा ने सारी बात सुनी और मरदाने को ‘धन्य निरंकार’ कह कर एक बार फिर वली कंधारी के पास जाने को कहा। हुक्म का पाबंद मरदाना चल
पड़ा परंतु उसे मालूम था कि रास्ते में ही उसके प्राण निकल जाएंगे। मरदाना तासरी
बार पहाड़ की चोटी पर पहुँच वली कंधारी के चरणों में जा गिरा पर क्रोध में जल रहे
फकीर ने उसकी प्रार्थना को इस बार भी ठुकरा दिया। ‘नानक स्वयं को पीर कहलवाता है
और अपने शिष्य को पानी का घूंट तक
नहीं पिला सकता।’ वली कंधारी ने बहुत भला-बुरा कहा। मरदाना इस बार जब नीचे पहुँचा तो प्यास से
व्याकुल होकर बाबा नानक के चरणों में बेहोश हो गया।
गुरु नानक ने मरदाने की पीठ पर हाथ
फेरा, उसे हौंसला दिया और जब
मरदाने ने आँख खोली, बाबा ने उसे सामने एक पत्थर उखाड़ने के लिए
कहा। मरदाने ने पत्थर उखाड़ा और नीचे से झरना फूट पड़ा। जैसे पानी की नहर
बह रही हो। और देखते ही देखते ही चारों तरफ पानी ही पानी हो गया। इतने में वली
कंधारी को पानी की ज़रूरत पड़ी। कुएँ में देखा तो पानी की एक बूंद भी न थी। वली
कंधारी बेहद हैरान हुआ। और नीचे पहाड़ी के कदमों में पानी की धाराएं बह रही थीं, चश्मे नज़र आ रहे थे।
वली कंधारी ने देखा, दूर बहुत दूर एक कीकर के पेड़ के नीच बाबा नानक और उनका साथी बैठे थे। क्रोध
से वली कंधारी ने चट्टान के एक टुकड़े को अपने पूरे ज़ोर से नीचे की तरफ धकेल
दिया। इस प्रकार पहाड़ी को अपनी तरफ आता देख मरदाना चिल्ला उठा। बाबा नानक ने
मरदाने को विनम्रतापूर्वक ‘धन्य निरंकार’ कहने के लिए कहा। जब पहाड़ी का टुकड़ा बाबा के सर के पास आया तो गुरु नानक ने
उसे अपने हाथ के पंजे से रोक लिया। और हसन अब्दाल में, जिसका नाम अब पंजा
साहब है, अब तक पहाड़ी के
टुकड़े पर बाबा नानक का पंजा लगा हुआ है।
मुझे यह साखी बहुत अच्छी लग रही थी, पर जब मैंने हाथ से
पहाड़ी को रोकने की बात सुनी तो मेरे मुँह का स्वाद फीका-फीका सा हो गया। यह कैसे
हो सकता है? कोई व्यक्ति पहाड़ी को कैसे रोक सकता है? पहाड़ी पर अभी तक गुरु नानक का पंजा लगा हुआ है। मुझे ज़रा भी यकीन न आता। बाद
में किसी ने तराश दिया होगा। मैं अपनी माँ से काफ़ी देर तक बहस कहता रहा। मैं यह तो
मान सकता था कि पत्थर के नीचे से पानी फूट पड़े। विज्ञान ने कई तरीके निकाले हैं, जिनसे पानी वाली जगह
का पता लगाया जा सकता है, परंतु एक व्यक्ति का लुढ़कती आ रही पहाड़ी को रोक लेना, मैं यह नहीं मान सकता
था। मैं नहीं मान रहा था और मेरी माँ मेरे मुँह की तरफ देखकर ख़ामोश हो गई।
‘कोई लुढ़कती आ रही
पहाड़ी को कैसे रोक सकता है?’ मुझे जब भी इस साखी का ख़याल आता, मैं फीकी हँसी हँस देता।
कई बार गुरूद्वारे में यह साखी
सुनाई गई, पर पहाड़ी को पंजे से
रोकने के बात मेरे गले नहीं उतर रही थी।
एक बार यह साखी हमें स्कूल में सुनाई
गई। पहाड़ी को पंजे से रोकने वाले अंश पर मैं अपने अध्यापक से तर्क करने लगा।
‘करनी वाले व्यक्तियों
के लिए कुछ भी कठिन नहीं।’ हमारे अध्यापक ने कहा
और मुझे चुप करा दिया।
मैं चुप तो हो गया, पर मुझे यकीन नहीं आ
रहा था। आख़िर पहाड़ी को कैसे रोक सकता है? मेरा जी चाहता कि मैं ज़ोर-ज़ोर से चीख कर कहूँ।
ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे थे कि
हमने सुना, पंजा साहब में साका हो
गया है। उन दिनों साके बहुत होते थे। जब भी कोई साका होता मैं समझ जाता कि आज
हमारे घर खाना नहीं पकेगा और रात को ज़मीन पर सोना पड़ेगा। पर साका होता क्या है ? यह मुझे मालूम नहीं
था।
हमारा गाँव पंजा साहब से ज़्यादा दूर न था। जब साके की ख़बर आई मेरी माँ पंजा
साहब चल दीं। साथ मैं था और मेरी छोटी बहन। पंजा साहब के सफ़र के दौरान सारा
रास्ता मेरी माँ की आँखें नहीं सूखीं। हम हैरान थे कि यह साका होता क्या है।
और अब जब पंजा साहब पहुँचे तो हमने
एक अजीब कहानी सुनी।
दूर किसी एक शहर में फिरंगी ने
निहत्थे हिंदुस्तानियों पर गोली चलाकर कई लोगों को मार दिया था। मृतकों में नौजवान
भी थे, महिलाएं भी, बच्चे भी। और जो बाकी
रह गए थे, उन्हें गाड़ी में
डालकर किसी अन्य शहर की जेल में भेजा जा रहा था। कैदी भूखे थे, प्यासे थे। और आदेश यह
था कि गाड़ी को रास्ते में कहीं न रोका जाए। जब पंजा साहब यह ख़बर पहुँची, जिस किसी ने सुना
लोगों के तन-बदन में आग लग गई। पंजा साहब, जहाँ गुरु नानक ने स्वयं मरदाने की प्यास बुझाई थी, उस शहर से भरी गाड़ी
प्यासों की गुज़र जाए, मजलूमों की गुज़र जाए, यह कैसे हो सकता था?
और फैसला यह हुआ कि गाड़ी को रोका
जाएगा। स्टेशन मास्टर से गुज़ारिश की गई, टेलीफोन खड़के, तार भेजे गए, पर फिरंगी का हुक्म था कि गाड़ी रास्ते में कहीं नहीं रोकी जाएगी। और गाड़ी
में आज़ादी के परवाने, देशभक्त हिंदुस्तानी भूखे थे, उनके लिए पानी का कोई प्रबंध न था, खाने का कोई इंतज़ाम न था। गाड़ी को पंजा साहब नहीं रुकना था। पर पंजा साहब के
लोगों का फैसला अटल था कि गाड़ी को अवश्य रोकना है और शहरवासियों ने स्टेशन पर
रेटियों के, खीर के, पूरियों, दालों के ढेर लगा दिए।
पर गाड़ी तो एक आँधी की तरह आएगी
और तूफान की तरह निकल जाएगी। उसे कैसे रोका जा सकता था?
और मेरी माँ की सहेली ने हमें
बताया – ‘उसी जगह पटरी पर पहले
वो लेटे, मेरे बच्चों के पिता।
फिर उनके साथ उनके अन्य साथी लेट गए। उनके बाद हम पत्नियां लेट गईं। फिर हमारे
बच्चे.... और फिर गाड़ी आई, दूर से चीखती हुई, चिल्लाती हुई, सीटियां मारती हुई। अभी दूर ही थी कि धीमी हो गई। पर रेल थी, तो धीरे-धीरे ही रुकनी
थी। मैं देख रही थी कि पहिए उनके सीने पर चढ़ गए। फिर उनके साथियों के सीने पर...
और फिर मैंने आँखें बंद कर लीं। मैंने आँखें खोलीं तो गाड़ी मेरे सर के पास खड़ी
थी। मेरे साथ धड़क रहे सीनों से आवाज़ें आ रही थीं,
‘धन्य निरंकार, धन्य निरंकार।’ और फिर मेरे देखते ही देखते गाड़ी मुड़ी। गाड़ी मुड़ी और उसके पहियों के नीचे
आई लाशों के टुकड़े-टुकड़े हो गए...
मैंने अपनी आँखों से लहू की बहती
हुई नदी को देखा। बहती-बहती कितनी ही दूर एक पक्के बने नाले के पुल तक चली गई थी।
और मैं हैरान था। मेरे मुँह से बोल
नहीं फूटा। सारा दिन मैं पानी का घूँट तक न पी सका।
शाम को जब हम लौट रहे थे, रास्ते में मेरी माँ
ने मेरी छोटी बहन को पंजा साहब की साखी सुनानी शुरू कर दी। कैसे गुरु नानक मरदाने
से साथ इधर आए। कैसे मरदाने को प्यास लगी। कैसे उन्होंने उसे वली कंधारी के पास
पानी के लिए भेजा। वली कंधारी ने कैसे तीन बार मरदाने को निराश वापस लौटा दिया।
किस प्रकार बाबा नानक ने मरदाने को एक पत्थर उखाड़ने के लिए कहा। किस प्रकार नीचे
से पानी का चश्मा फूट पड़ा और वली कंधारी के कुएँ का सारा पानी नीचे खिंचा आया।
फिर किस प्रकार क्रोध में वली कंधारी ने ऊपर से पहाड़ी का एक टुकड़ा लुढ़काया।
किस प्रकार मरदाना घबराया, पर बाबा नानक ने ‘धन्य निरंकार’ कहकर अपने हाथ से
पहाड़ी को रोक लिया।
‘पर पहाड़ को कोई कैसे
रोक सकता है?’ मेरी छोटी बहन ने
सुनते ही झट से माँ को टोका।
‘क्यों नहीं रोक सकता? मैं बीच में बोल उठा।
आँधी की भाँति उड़ती हुई रेलगाड़ी को यदि रोका जा सकता है तो पहाड़ के टुकड़े को
कोई क्यों नहीं रोक सकता?’ यह सुनकर मेरी माँ की
आँखों से छम-छम आँसू बहने लगे।
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करतार सिंह दुग्गल
(1 मार्च 1917 – 26 जनवरी 2012)
रावलपिंडी जिले के धमियाल (अब पाकिस्तान) में जन्म।
आकाशवाणी दिल्ली के केंद्र निदेशक और नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली के निदेशक, योजना आयोग के सूचना सलाहकार रहे, राज्य सभा के लिए नामांकन से भी सम्मानित किया गया। पद्मभूषण, साहित्य
अकादमी
पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कारों से समादृत।
अनुवादक परिचय - नीलम शर्मा ‘अंशु’
अलीपुरद्वार जंक्शन, (पश्चिम बंगाल) में जन्म। पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला से पंजाबी में
अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक अनुवाद। कुल 20 अनूदित
पुस्तकें प्रकाशित। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित
कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
विभिन्न क्षेत्रों
में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली कोलकाता शहर की
ख्यातिप्राप्त महिलाओं पर 50 हफ्तों
तक राष्ट्रीय दैनिक में साप्ताहिक कॉलम लेखन।
24 वर्षों से
आकाशवाणी के एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी। भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्सीयतों पर ‘आज की शख्सीयत’ कार्यक्रम के तहत्
75 से अधिक लाइव एपिसोड प्रसारित।
ई मेल - rjneelamsharma@gmail.com
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