राजो रांझा
0 सांवल धामी
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
पंजाब के होशियारपुर से जालंधर की तरफ जाते
समय भंगी चोअ (पहाड़ी बरसाती नाला) वाला पुल पार कर दाहिनी तरफ एक निर्जन सा छोटा
कुआँ आता है। यह है तो पियालां गाँव की ज़मीन पर, परंतु लोगों की ज़बान पर इसका
नाम ‘तारागढ़ वाला कुआँ’ चढ़ा हुआ है। इस कुएँ से दाहिनी तरफ मुड़ें तो
लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव आ जाता है – तारागढ़। सैंतालीस से पहले यह
गाँव मुस्लिम जुलाहों, आदि धर्मियों, अराईयों, हिन्दु बनियों, सिक्ख-जाटों और
रामगढ़ियों की घनी आबादी वाला गाँव था। सर्वाधिक घर मुस्लिम जुलाहों के थे। उनमें
से अधिकतर लोग खड्डियों पर कपड़ा बुनते थे और कुछेक पढ़-लिख कर नौकरी भी करने लगे
थे। गाँव में जाटों के तीन घर थे और तीनों अलग-अलग गोत्र के। एक घर धालीवाल, एक
बैंस और एक अटवाल परिवार का था।
धालीवाल परिवार में से राजो बेहद खूबसूरत
नौजवान निकला। यौवन की दहलीज़ पर क़दम रखते ही उसने कानों में बालियां डलवा लीं।
सुबह जुल्फें संवार कर वह घर से निकल जाता और सारा दिन इधर-उधर घूमता रहता। माता-पिता और भाईयों के बहुत मना करने पर भी वह
न तो घर पर टिकता और न ही खेतों में कोई हाथ बंटाता।
कुछ समय के पश्चात् घर-घर राजो की चर्चा
होने लगी। वजह थी जुलाहों की बहू के साथ उसका उठना-बैठना। जब राजो के माता-पिता और उस महिला के ससुराल
वालों ने विरोध किया तो राजो नूरां से शरेआम मिलने लगा। धीरे-धीरे नूरां के शौहर
ने भी इस रिश्ते को कबूल कर लिया। अब राजो ज़्यादातर वक्त नूरां के शौहर की खड्डी
पर गुज़ारने लगा। वह नूरां के घर पर ही खाना खा लेता और उसके शौहर के पास बैठा
हुक्के के कश लेता रहता।
जाटों ने उसे बिरादरी से अलग करने और परिवार
ने बेदखल करने का बहुत भय दिखाया, परंतु उस पर कोई असर न हुआ। साल भर बाद उसने अपने हिस्से के पाँच-सात एकड़
अलग कर लिए और थोड़ी सी जगह पर चारा बीजने लगा। नूरां पूरे अधिकार से उन खेतों में
चारा काटने जाती। राजो के भाईयों के सीने पर साँप लोटने लगते, परंतु वे नूरां को
कुछ न कहते। उनकी ख़ामोशी की वजह राजो का गुस्सैल
स्वभाव और नशेड़ियों से याराना था।
वक्त गुज़रता गया और राजो नूरां के परिवार
में घर के सदस्य की भाँति घुल-मिल गया। अब वह नूरां के साथ उसके मायके भी चला जाता
था। नूरां के बच्चों को शाम चुरासी का मेला दिखाने भी ले जाता था। फिर वह
थोड़ी-थोड़ी करके ज़मीन बेचने लगा। उसके माता-पिता और भाई बहुत तड़पे परंतु उसे
रोक न सके। सत्तर बरसों बाद उसके भतीजे ने उदास हँसी हँसते हुए कहा था - रब का शुक्र है कि पाकिस्तान बन गया। नहीं तो
वह तो अपने हिस्से के सारे खेतों को निपटा देता।
सन् सैंतालीस शुरू हुआ तो गाँव-गाँव में
पाकिस्तान बनने की चर्चाएं होने लगीं। अगस्त आते-आते हिजरत शुरू हो गई। इस माह का
अंतिम सप्ताह था। एक शाम आस-पास के कई गाँवों के लोगों ने मिलकर तारागढ़ को घेर
लिया। उन्होंने हिन्दु-सिक्खों को गाँव से निकल जाने का हुक्म दे दिया। धालीवाल
परिवार को पियालां गाँव निवासी उनके भानजे लेने आ गए। उन्होंने गली में घूमते अपने
राजो मामा को भी ज़बरदस्ती अपने साथ कर लिया।
पियालां जाकर उन्होंने खाना वगैरह खाया और
चारपाईयों पर लेट गए। बाकी सभी सदस्य तो सो गए, परंतु राजो के ख़यालों में नूरां
घूमने लगी। गाँव को घेर लिए जाने, संभावित मार-काट उसकी तंद्रा को बार-बार नूरां
की तरफ ले जाती। उसे ज़्यादा डर इस बात का था कि कहीं कोई बदमाश नूरां को उठा न ले
जाए।
आधी रात को वह धीरे से उठा। अंधियारी रात को पाँवों से मसलते हुए जब वह अपने गाँव की
तरफ चल दिया तो हल्की बूंदा-बांदी भी शुरू हो गई थी। कुएँ वाला मोड़ मुड़ते ही उसे
चीख-पुकार सुनाई दी। असंख्य आवाज़ों में वह नूरां की आवाज़ को पहचान गया। एक पल के
लिए उसे ऐसा महसूस हुआ मानो हर चीख में नूरां की आवाज़ हो। उसके क़दम खुद-ब-खुद निरंतर
और तेज़ होते गए।
गाँव में घुसते ही वह समझ गया कि तारागढ़ लुट
चुका है। वह दौड़ते हुए नूरां के घर के सामने पहुँचा। घर का दरवाज़ा सपाट खुला था।
उसने आँगन में खड़े होकर आवाज़ें दीं परंतु भीतर से कोई हुंगारा न मिला। वह गली
में आ गया और ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें देने लगा। कहीं दूर से उसे जानी-पहचानी आवाज़
सुनाई दी। वह आवाज़ की दिशा में दौड़ा। गली का मोड़ मुड़ते ही उसने देखा कि मशालें
थामें हमलावर मजलूमों को पशुओं की भाँति उत्तरी दिशा के बरगद की तरफ हाँक कर ले जा
रहे थे।
पास पहुँचते ही उसने नूरां को फिर से आवाज़
दी तो भीड़ में से एक साया पीछे की तरफ
दौड़ता हुआ उससे आ लिपटा। राजो के कंधों के पास से जब किसी महिला की चीख उभरी तो
मशाल वालों ने राजो को पहचान लिया। वे अचानक ही मुस्कुरा उठे। अगले ही पल राजो से
एक कदम दूर हटकर नूरां अपने शौहर और बच्चों को आवाज़ें देने लगी। सारी भीड़ आगे
बढ़ गई, परंतु आठ-दस सदस्य बुत की भाँति वही रुके रहे।
“राजो, तू नूरां को
ले जा परंतु हम इतने मुसल्लों को नहीं छोड़ेंगे।” एक हमलावर अपने
गंडासे को लहराते हुए बोला।
“नहीं छोड़ना तो फिर
मुझे मार डाल नाजर।” राजो ने भरे दिल से कहा तो नज़दीकी गाँव का नाजर तेज़-तेज़
कदमों से चलता हुआ अपने साथियों से जा मिला।
राजो सारे सदस्यों को लेकर पहले उनके घर
गया। जल्दी-जल्दी छोटे-मोटे सामान की गठरियां बाँधीं। फिर वे तेज़ कदमों से गाँव
से निकल कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। राजो सबसे आगे चल रहा था। कुएँ से मुख्य
सड़क पर आते ही वे बाईं तरफ मुड़ गए। पूरब की तरफ लगभग दो मील की दूरी पर नसराले
वाला कैंप लगा हुआ था। पौ फटने से पहले वे सही सलामत कैंप में पहुँच गए।
अगले दिन, दिन भर राजो के भाई, भतीजे, भानजे
और दोस्त उसे फसलों में ढूँढते रहे, पर वह शाम तक काफ़िले के साथ चल कर चूहड़वाली
कैंप में पहुँच गया थ। इस कैंप में उन्हें महीना भर रुकना पड़ा था। सितंबर महीने
में बरसात शुरू हो गई थी। कैंप के हालात बुरे थे। नित नई कब्रें उग आतीं। यहाँ
उन्हें बेइंतहा भुखमरी का सामना करना पड़ा ओर पेड़ों के पत्ते खा कर गुज़ारा करना
पड़ा। पहने हुए कपड़े भी तार-तार हो गए। राजो नूरां के पूरे परिवार की हिम्मत
बढ़ाते हुए कैंप में टिका रहा।
चूहड़वाली से चल कर
यह काफ़िला नूरपुर गाँव में लगभग तीन दिन रहा। चौथी सुबह जालंधर से अमृतसर की तरफ
जाती सड़क पर चल दिया। शाम तक उन्होंने ब्यास के ऊरा गुडाने वाले कैंप में डेरा
लगा लिया। बैलगाड़ियों वालों ने अपनी बैलगाड़ियां नदी के किनारे खड़ी कर दीं। रात
को ऐसी बाढ़ आई कि पानी नदी के निकटवर्ती लोगों और बैलगाड़ियों के बहा ले गया।
सुबह ऊँची जगह पर बैठे लोगों ने देखा कि कुछ बैलगाड़ियां रेत में धंसी हुई थीं और
पेड़ों पर पशुओं तथा आदमियों की लाशें झूल रही थीं।
तीसरे दिन नदी का पानी उतरा तो बचा-खुचा
काफ़िला आगे बढ़ा। एक रात उन्होंने खलचीयां में गुज़ारी। सबसे ज़्यादा ख़तरा
अमृतसर में था। यहाँ उनके काफ़िले पर कई छोटे-बड़े हमले ज़रूर हुए परंतु बचाव होता
रहा।
नसराले से चला कंढ़ी के गूजरों, राजपूतों और
पठानो का यह काफ़िला जब नवनिर्मित सरहद वाघा पर पहुँचा तो मुश्किल से लगभग तीसरा
हिस्सा बचा था। सरहद पर राजो के पाँव खुद-ब-खुद थम गए।
“क्यों , क्या हुआ ?” नूरां के शौहर ने हैरानी से पूछा तो राजो ने नम आँखों से कहा – “आप जाईए भई अपने पाकिस्तान। मैं अब लौटता हूँ। अगर ज़िंदगी रही तो फिर
मिलेंगे।”
यह सुनते ही नूरां की चीख निकल गई। तेज़
क़दमों से वह पीछे मुड़ी और बाँह पकड़ कर राजो से कहा – सूरज अस्त होने वाला है।
ऐसे में तुम पीछे कैसे लौट जाओगे? राजो ने
कुछ नहीं कहा और सर झुकाए पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश कर गया। सरहद तक वह उनके
आगे-आगे चलता आया था, परंतु अब पीछे-पीछे चलने लगा।
पाकिस्तान बने सत्तर बरस गुज़र गए। तारागढ़ गाँव
वाले भूल-भाल गए कि कभी यहाँ कोई राजो भी हुआ करता था और वह जलती आग में गाँव के
एक परिवार के साथ पाकिस्तान चला गया था। एक दिन मैं सैंतालीस के चश्मदीदों की
रिकॉर्डिंग के लिए तारागढ़ गया। वहाँ मुझे एक बुजुर्ग मिले। सैंतालीस के दौरान वे आठ-नौ
वर्ष के थे। सैंतालीस के आर-पार की बातें चलीं तो बाबा राजो के ज़िक्र तक भी
पहुँचीं। वह बुजुर्ग अपने उस चाचा को गाली-गलौज करते हुए उसकी कहानी सुना रहा था।
मैं हैरान होता जा रहा था।
कई कारणवश मैंने वह वीडियो अपने यू-टयूब चैनल
सैंतालीसनामा पर अपलोड नहीं की, परंतु उस दिन मैंने यह अवश्य सोच लिया था कि एक
दिन बाबा राजो को ज़रूर ढूँढना है। जल्दी ही वह सबब भी बन गया।
मेरी वीडियोज़ पर कोई बार-बार मंढाली शरीफ़
और तारागढ़ गाँवों में बने रोज़ों की वीडियो बनाने के लिए अनुरोध कर रहा था। मैंने
उससे संपर्क किया। वह बंगा के निकटवर्ती गाँव नौरे से उस पार गए सय्यद परिवार का
लड़का था। मैंने उससे पूछा – पाकिस्तान में तारागढ़ वाले कहाँ रहते हैं? उसने कहा – हमसे बहुत दूर नहीं।
फैसलाबाद में ही हैं। और हम उनके पीर भी हैं। महीने में एक-दो बार उनमें से कोई न
कोई मिल जाता है। हुक्म करें, क्या काम है?
मैंने उसे केवल इतना बताया कि सैंतालीस में
तारागढ़ गाँव का एक जाट युवक अपने यार-दोस्तों के साथ उस पार आपकी तरफ चला गया था।
अगले इतवार को उसकी वीडियो कॉल आ गई। वह तो
उस घर के आँगन में बैठा था जहाँ राजो लगभग साठ-पैंसठ बरसों तक रहा था। उन्होंने
मुझे दीवार पर बाबा राजो की तस्वीरें भी दिखाईं। ऊँचा-लंबा कद और हृष्ट-पुष्ट
डील-डौल। जैसे चूज़ों की महफिल में कोई मुर्गा बैठा हो।
बीबी नूरां के बेटे ने कहा – राजो चाचा का
हमारे अब्बा से बहुत लगाव था। तभी तो सब कुछ छोड़कर बेचारा इधर आ गया। वह हमें
अब्बा से भी ज़्यादा दुलार करता। समझ लीजिए हमारा अब्बा ही था। उसने हमें बेटों की
तरह पाला। वह किसी मज़हब को नहीं मानता था। अक्सर कहा करता था, “वैसे तो रब है ही नहीं। अगर है तो वह इन्सानों के दिलों में बसता है। कहीं और
नहीं।” हम उससे दिल्लगी करते – चाचा सुना है तुम तो हिंदु हो। जब तुम चल बसोगे तो हम
कपास के डंठलों से तुम्हारी चिता जलाएंगे। वह बस हँस देता। फिर हमारे अब्बा गुज़र
गए। उसके दो बरस बाद अम्मी भी चल बसीं। अम्मी को दफना कर जब हम घर लौटे तो चाचा ने
धीरे से मुझे कहा – आज मुझे तारागढ़ बहुत याद आ रहा है। मैं या तो हिंदुस्तान चला
जाऊँगा या मुसलमान बन जाऊँगा। हम सभी बहुत हैरान हुए कि अचानक चाचा को हो क्या गया? अम्मी के तीन बरस बाद जब वह चल बसा तो
वह पक्का दीनदार बन चुका था। हमने उसे दफनाया। उसकी कब्र पास ही है।
बाबा राजो और तारागढ़ की बातें करते-करते वे
कब्रिस्तान की तरफ चल दिए। अचानक मोबाइल स्क्रीन पर मुझे मिट्टी की लंबी सी ढेरी
दिखाई दी। बीबी नूरां के बेटे ने कहा – यह
कब्र है राजो चाचा की।
एक क्षण के बाद फोन किसी और कब्र की तरफ
घुमाते हुए आगे उसने कहा – यह कब्र हमारी अम्मी की है जी।
दोनों को पास-पास ‘सोए’ देख मैं उसी क्षण समझ गया कि ताउम्र मज़हबों से मुक्त रहने वाला बाबा राजो मरने से पहले मुसलमान क्यों बन गया था।
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