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शनिवार, अप्रैल 15, 2023

कहानी श्रृंखला - 37 (पंजाबी कहानी) - धूप - अंजना शिवदीप अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’


 

                 धूप



         0 अंजना शिवदीप

   

  अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'



 

कमरे में धूप जल रही थी। पूरा कमरा खुशबू से भर गया। सुगंध चंदन जैसी थी। भीनी-भीनी सुगंध अच्छी लगती है लेकिन जब केवल सुगंध ही सुगंध हो तो कभी-कभी सिर दर्द हो जाता है।

यहाँ तक ​​कि ओम प्रकाश के सिर में भी दर्द हो रहा था। कई दिनों से ओम प्रकाश को ऐसा लग रहा था कि उनके सिर में धूप से जैसे कुछ हो रहा हो। दिमाग पर कुछ तारी होने लगता है। वास्तव में लेकिन मामला कुछ और ही है। वे नहीं समझते या समझना नहीं चाहते। दिमाग में क्रोध के सिवा कुछ नहीं मिलता। जब उनकी पत्नी विद्यावती स्नान के बाद पूजा करने बैठती हैं और...... जब वे धूप जलाती हैं... बस! यहीं से सिर दर्द शुरू होता है। यानी दिमाग पर कुछ तारी होने लगता है।

ओम प्रकाश नास्तिक भी नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे भगवान की पूजा करना बुरा समझते हैं। वे स्वयं सुबह-शाम भगवान के सामने नतमस्तक होते हैं लेकिन यह तो कोई बात न हुई कि आप दीन-दुनिया को भूलकर भगवान के ही हो जाएं। विद्यावती ने तो मोह-माया के सभी बंधनों को तोड़ दिया और भगवान की हो गईं। भगवान की हो गईं मतलब... दुनिया से विदा नहीं हो गईं... लेकिन ओम प्रकाश सोचते हैं कि वह उनके लिए तो मर चुकी हैं। करीब डेढ़ महीने पहले मुहल्ले की महिलाओं के साथ हरिद्वार गई थीं। बस जब से वहाँ से लौटी हैं, मानों बदल ही गई हैं। हरिद्वार से लौटने के बाद संभवत: यह दूसरा दिन था जब रात में ओम प्रकाश कमरे में आए तो वे कमरे में नहीं थीं। वे बेटे और बहू के कमरे में गए तो उन्होंने उन्हें खिड़की से खाना खाते देखा। मतलब...विद्यावती उनके कमरे में भी नहीं थी।

ओम प्रकाश किचन में गए तो किचन बंद था। आगे जाकर देखा कि घर में बने ठाकुर जी के कमरे अर्थात् मंदिर की लाइट जल रही थी। आगे बढ़े तो देखा कि विद्यवती शॉल ओढ़े बैठीं माला जपने में मग्न थीं।

 

"विद्या ... ओ विद्या ..." उन्होंने कमरे के बाहर से ही उसे आवाज़ दी।

"हाँ ... वे मुँह से जाप करती रहीं और ज़रा क्रोधित निगाहों से उनकी ओर देखा।

"बहुत देर हो चुकी है ... चलो ... सुबह मुझे पेंशन लेने भी जाना है ..."

उसके उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए ओम प्रकाश टकटकी लगाए उसके चेहरे की ओर देखते रहे।

"तो सो जाईए जाकर... मुझे अभी 32 माला का और जाप करना है...और अब मैं यहीं सोया करूंगी...ठाकुर जी के चरणों में..."। उसके दोनों हाथ श्रद्धा से जुड़ गए तथा आंखें मुंद गईं।

"जब पीठ लकड़ी की तरह अकड़ जाएगी न, तब पता चलेगा ब़ड़ी संतनी को।"

ओम प्रकाश बड़बड़ाते हुए कमरे में आकर अकेले ही सो गए। इस घटना के एक हफ्ते बाद भी जब विद्यवाती कमरे में न लौटीं और ठाकुर जी के चरणों में ही सोती रहीं, तो ओम प्रकाश के धैर्य का बांध टूट गया। एक रात फिर वे विद्यावती को समझाने गए।

"विद्या... भई कोई नाराजगी है..?  उन्होंने वहीं बगल में चटाई पर बैठते हुए कहा।

"किस बात की ...?"  उसने बस इतना ही कहा।

"अरे... तुमने तो प्यार तोड़ ही दिया... मेरा नहीं काम चलता तुम्हारे बिना..."।

    ओम प्रकाश ने उसका हाथ पकड़कर थोड़ा सा दबाया और उनकी आँखों में वासना की चमक दिखाई दी। लेकिन... विद्यावती ने बिजली के झटके की तरह ओम प्रकाश का हाथ झटक दिया... गुस्से से भर कर बोली..

"अरे ! ठाकुर जी के सामने क्या जो-सो बोले जा रहे हैं...., ज़िंदगी भर यही सब तो किया है है। उम्र का आखिरी पड़ाव है। नाम जप कर अपना परलोक नहीं सुधारा जाता.....। क्या रखा है बुढ़ापे में इन सब कामों में.... " गुस्से में उनकी नाक मेंढक की तरह फूल रही थी।

ओम प्रकाश एकदम सन्न रह गए। फिर ज़रा संभल कर बोले - "उमर को भला क्या हो गया ? विदेशों में तो लोग इस उम्र में शादी करते हैं। बड़ी मुश्किल से तो मुक्त हुए हैं ज़िम्मेदारियों से... अब जाकर कहीं चैन मिला है... और आदमी और एक घोड़ा कभी बूढ़े होते हैं भला….'

"आप मत होईए बूढ़े... मैं तो हो गई हूँ... बस.... मुझे नहीं पसंद यह सब... और विदेशों की क्या नकल करनी ? उन्हें क्या पता धरम-करम के बारे में... बस मेरी एक बात सुन लीजिए.. मैंने गृहस्थ जीवन छोड़ दिया.... "

      उसने अपने सामने पड़े तांबे के लोटे से एक मुट्ठी में पानी भरकर अपने हाथ की उंगली पर डाला और फिर हाथ सीधा करके छोड़ दिया।

ओम प्रकाश अवाक रह गए। वह निष्प्राण से उठे और कमरे में आ गए। बस उन्हें अपने आप पर क्रोध आ रहा था कि कुछ किया क्यों नहीं? लेकिन कर भी क्या सकते थे?

विद्यावती ठाकुर जी के कमरे में घुसी रहती थी। कभी-कभी तो एक-दो दिन तक ओम प्रकाश से सामना भी नहीं होता था। ओम प्रकाश जी को भी अब उसके माथे लगना पसंद नहीं था।

ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते जा रहे थे, त्यों-त्यों समस्या बढ़ती जा रही थी। ओम प्रकाश को लगता कि वे अब सारी-सारी रात जगते ही रहते थे या फिर वे सारी रात सोते ही नहीं थे।  वे जब भी सोने लगते उन्हे लगता कि........विद्यावती उनके साथ लेटी हैं।....उन्हें लगता कि वे विद्यावती के साथ आलिंगनबद्ध हैं.... उन्हें लगता कि वे विद्यावती के साथ......

"पर  यह क्या?" आँखें खुलती हैं... विद्यावती तो उनके कमरे में ही नहीं है... उनके तन में तन से मिलन की तीव्र इच्छा मरती हुई मछली की भाँति तड़पती है।

वे एक टक छत को देखने लगते हैं। उनका ध्यान एक छिपकली की ओर जाता है जो टक - टक की आवाज़ करते हुए अपनी पूँछ हिला रही है। वह कई बार आवाज़ करती है। तभी एक और छिपकली के टक-टक करने की आवाज़ आई। दूसरी छिपकली भी पहले वाली की तरह अपनी पूँछ हिला रही है। दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के पास आईं... और एक-दूसरे से लिपट गईं... ओम प्रकाश को समझ ही नहीं आया कि कुछ ही पलों में उनके सामने प्रेम-क्रीड़ा होने लगी। उन्हें लगा कि छिपकलियां बड़ी हो गई हैं और सारी छत पर फैल गई हैं। वे उनके सभी अंगों को करीब से देख सकते थे। नर छिपकली के अंग धीरे-धीरे उन्हें पुरुष के अंगों में और मादा छिपकली के अंग स्त्री के अंगों में बदलते प्रतीत हुए। एक पुरुष और एक महिला छत पर काम-क्रीड़ा कर रहे थे। वे एकाएक उठे। क्या वे सो रहे थे या जग रहे थे?

बस इसी तरह उन्हें कभी मक्खियां तो कभी कबूतर प्रेम-कलोल करते दीखते।

सुबह होते ही विद्यावती टन-टन करके घंटियां बजाने लगतीं। कभी-कभी भजन गाने लगतीं :

    हरि मोहे अपना बना लो

    हरि मोहे अंग लगा लो

 ओम प्रकाश उनके भजन सुनकर और भी बेचैन हो जाते थे।

 'अंग लगा लो'

'अंग लगा लो'

'अंग लगा लो'

उनके कानों में बार-बार गूंजता रहा है 'अंग लगाना'....... मतलब.. अंग लगाना'......मतलब..   फिर वे मुस्कुरा देते... फिर उन्हें वह दिन याद आता जब उन्होंने पहली बार विद्यावती को ''अंग लगाया' था।


    फिर कितनी ही बार उनके मन में उस रात का ख्याल आता। लेकिन कभी-कभी जब वे 'हरि मोहे अंग लगा लो' सुनते तो उत्तेजित हो जाते... एक आग सी लग जाती.... मानो विद्यावती किसी 'हरि से विनती कर रहो हो कि मुझे अंग लगा लो'... कोई हरि विद्यावती को अंग लगाए और वे खुद उसे अंग लगाने के लिए तरसते रहें..... इस हरि का तो..... वे दाँत पीसते रहते।

ओम प्रकाश अब खोए खोए रहते। बाहर से ऐसा ही लगता था परंतु लगता मानो उनके भीतर किसी और ही दुनिया का द्वार खुल गया हो। जिसमें एक भूखा मन-तन भटक रहा था... जो खुद ही आत्मसंतुष्ट होता था और अपने चारों ओर का स्वयं ही आनंद ले रहा था।

ओम प्रकाश सुबह-सुबह ही टहलने के लिए घर से निकल जाते थे। वे रास्ते में पार्क में पत्थर की ठंडी बेंच पर बैठ जाते। सामने बनी पग़डंडियों पर कितने ही लोग सैर करते.... कितनी औरतें... खूबसूरत... मोटी... पतली... काली... नाज़ुक सी....

वे हर महिला को नीचे से ऊपर तक देखते.... पीठ पीछे से उन्हें सैर करते देखते..... जॉगिंग करते समय ऊपर-नीचे होते शरीर को देखते..... ब्रा की हुकों को देखते....पैटींज़ से बनती 'वी' को देखते... उससे आगे तक सोच-सोच कर देख लेते। कईयों से तो कल्पना में काम-क्रीड़ा कर लेते। फिर 'वी' 'विक्टरी'  बन कर उनके दिमाग में फैल जाती.... वे वहाँ तब तक बैठे रहते थे जब तक वहाँ महिलाओं की आवाजाही कम न हो जाती....घर लौटते तो विद्यवती मंदिर में बैठ कोई कथा कर रही होतीं।

बहू रसोई में नाश्ता बना रही थी और कई बार बेटा उसके साथ चुहल कर रहा होता....।

ओम प्रकाश चोर निगाहों से देखते.... कभी-कभी वह लड़के के बजाय खुद को देखता है।

कमरे में लेटे-लेटे बेचैन हो जाता....कई बार बेटे की जगह खुद को देखते....

कमरे में पड़े वे बेचैन हो जाते... कई बार खुद ही खुद से क्रीड़ा कर लेते.... परंतु स्त्री जैसी संतुष्टि न होती.... वे उठ कर बाहर निकल जाते।

जब पूरे घर में धूप की खुशबू फैलती तो ओम प्रकाश के सिर में कुछ होने लगता। उनका सिर फटने लगता। वे बाहर निकल जाते। उन्हें लगता जितनी जल्दी वे धूप की खुशबू से दूर चलें जाएं.... तो ही उन्हें चैन मिलेगी।

बाहर मोड़ मुड़ते ही दीवार पर एक बड़ा सा पोस्टर लगा हुआ था जिसमें लिखा था 'प्यासी जवानी'......एक अर्धनग्न स्त्री......और एक पुरुष उसके होठों पर झुका हुआ। ओम प्रकाश ने देखा... तो उन्हें लगा जैसे वे खुद पोस्टर में घुस गए हों.... उन्होंने स्त्री के होठों पर झुके पुरुष को उठा कर फेंक मारा... अब उनकी बारी थी.... वे थे और वह स्त्री...। वह स्त्री और वे थे। बस......

टन....टन....टन....कोई साइकिल वाला घंटी बजा रहा था। ओम प्रकाश को अहसास हुआ कि वे सड़क के बीचो-बीच में खड़े हैं। वे थोड़ा शर्मिंदा सा हो गए और सड़क के किनारे हो लिए।

ओम प्रकाश का मन और भी बेचैन हो गया। उनके मन में विचार आया, "क्यों न किसी स्त्री के पास जाया जाए। दो-चार सौ की क्या बात है..? जेब में पांच सौ रुपये हैं... लेकिन.. जिस रास्ते पर कभी चले नहीं, उसकी ख़बर भी क्या लेनी.... और इस तरह जाना कोई अच्छी बात है..? कोई देखेगा तो क्या कहेगा.. इस उम्र में.. कोई क्या सोचेगा... नहीं....।'' विचार जैसे आया था वैसे ही लौट गया। फिर... फिर... क्या करें...?.

बच्चों का एक समूह उनके सामने 'हो-हो' करता आ रहा है.. उनके सामने..  एक दूसरे के साथ पीठ सटाए कुत्ता-कुतिया हैं। बच्चे पत्थर मार रहे हैं। कुत्ता-कुतिया पीठ सटाए बड़ी मुश्किल से दौड़ पा रहे हैं... चूं चूं सी कर रहे हैं। .... ओम प्रकाश को लगा कि बच्चों को ऐसा करने से रोकना चाहिए... इन पलों का लुत्फ उठाने वाले जानवरों को परेशान नहीं करना चाहिए.... परंतु इससे पहले कि वे कुछ करते या कहते....कुत्ता-कुतिया तथा बच्चे कब आए और कब जलूस की झाँकी की भांति गुज़र गए.... वे खड़े सोचते रह गए।

ओम प्रकाश घर लौट आए। विद्यावती मंदिर धो रही हैं। वे कमरे में आकर लेट गए। एक तपिश सी पाँव से सिर तक... कभी सिर से पाँव तक फैल रही है और पैरों के बीच जैसे भाप बनने लगती है.... झाडू की आवाज लगातार आ रही है...साथ ही विद्यावती के भजन गाने की आवाज भी...

'आओ, मेरी सखियो मेरी सेज सजा दो

मुझे श्याम-सुंदर की दुल्हन बना दो'

"श्याम-सुंदर"

"श्याम-सुंदर"

"श्याम-सुंदर"

 

"श्याम-सुंदर" यह शब्द ओम प्रकाश के सिर में हथौड़े की तरह बज रहा है।

'सेज सजा दो.........'। ओम प्रकाश को लगता है मानो कमरे में सेज सजा रखी है,  सेज पर दुल्हन बैठी है... दुल्हन... नहीं, यह तो विद्यावती है... और कोई आदमी उसके पास बैठा है... कौन.....? ... क्या वह खुद है ...? नहीं... शायद... यब श्याम सुंदर है?  श्याम सुंदर? नहीं... यह तो..... हरि है। हरि नहीं.... श्याम सुंदर...’ ओम प्रकाश को लगा जैसे वे 'पोस्टर' में घुस गए थे..... और महिला के होठों पर झुके हुए आदमी को उन्होंने उठा कर परे फेंक मारा था... उसी तरह एक धक्का उन्होंने श्याम सुंदर को दिया... नहीं ... हरि को दिया। ... हरि.. तेरी बहन की ... श्याम सुंदर तेरी माँ को... तेरी को...

ओम प्रकाश जोर-जोर से चिल्ला रहा है। गालियां दे रहा है। विद्यावती और बहू से संभाला नहीं जा रहा। बेटे को ख़बर दी गई और डॉक्टर को बुलाया गया।

"ओम प्रकाश को दिमागी दौरा पड़ा था।" ऐसा ही कहा था डॉक्टर ने। उन्हें इंजेक्शन दे कर बेहोश कर दिया गया था। पूरी रात बीत गई और अगले दिन सुबह सात बजे होश आया तो उन्होंने अपनी आँखें खोलीं... उनकी नाक से खुशबू का झोंक टकराया...

... धूप.... धूप...। ओम प्रकाश को लगा जैसे वे खुद एक धूप हों...और जल रहे हों...।

... विद्यावती ने उन्हें जलाकर ठाकुर जी के चरणों में रख दिया हो... न वे जल सकते हैं और न ही लपटों की भाँति मचल सकते हैं.... बस सुलग सकते हैं....उनका गला भर्रा गया। उनकी आँखों में आँसू आ गए... आँसुओं में से उन्हें धुँधला सा दिख रहा था।

"ठीक हैं.. ओम प्रकाश जी...?" डॉक्टर ने कुर्सी को उनकी चारपाई के पास खींच कर पूछा।

"मुझे बुझा दीजिए..." ओम प्रकाश की रुलाई फूट पड़ी। मानो भीतर कोई गुब्बार हो और आंखों से लगातार आँसू छलक रहे थे।

"बुझा दीजिए...?" क्या कह रहे हैं... ओम प्रकाश जी..?  डॉक्टर ने हैरान होकर पूछा।

"मैं ... मैं धूप हूँ... बुझाईए.....मुझे बुझा दीजिए ! धूप मैं..! .. बुझान... मुझे बुझाना ...! चीखते-चिल्लाते उन्होंने सारे शरीर पर ऐसे हाथ मारना शुरू कर दिया जैसे आग लग गई हो।

डॉक्टर ने बेटे की तरफ सिर फेर कर इशारा किया।

" अस्पताल ले जाएं..."

"या फिर शॉक लगवा लें... डॉक्टर अपनी कुर्सी से उठ गया।

"मुझे बुझाओ... मैं धूप हूँ... हाय.... हाय....मुझे बुझाओ... मैं धूप हूँ...!"

ओम प्रकाश अपने कपड़े फाड़ने लगे।

उसी शाम बेटे ने उन्हें मानसिक अस्पताल में दाखिल करवाया, जहाँ से मरीज़ बमुश्किल ही ठीक होकर लौटते हैं।

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                                                   लेखक परिचय

                      अंजना शिवदीप

 

    जन्म – 01 जुलाई 1976. शिक्षा - एम. ए. पंजाबी, एम. फिल। लेखन के संग-संग स्कूल     में अध्यापन। बहुचर्चित कहानी धूप अलग-अलग कहानी संग्रहों में संकलित और बेहद        सराही गई।  समलैंगिकता पर आधारित कहानी संग्रह रूह दी कोई जूह नहीं हुंदी का        संपादन। निरंतर  विभिन्न पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।



                साभार - परिंदे पत्रिका, दिसंबर-मार्च, 2023


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