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शनिवार, अप्रैल 15, 2023

कहानी श्रृंखला - 38 (बांग्ला कहानी) - जो मरने के लिए ज़िंदा थे - मनोरंजन ब्यापारी अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’

 साभार - वर्तमान साहित्य पत्रिका, फरवरी, 2023

 

              जो मरने के लिए ज़िंदा थे

 

                                   0 मनोरंजन ब्यापारी

 

            अनुवाद नीलम शर्मा अंशु


शाम गहराने पर पियाली स्टेशन से सियालदह जाने वाली ट्रेन में दोनों सवार हुए थे। बैठने लायक कोई सीट खाली नहीं थी, अत: दरवाज़े के पास फर्श पर गमछा बिछाकर बैठ गया था रघु। साड़ी में धूल-मिट्टी लग जाने के भय से खड़ी ही रही बाताशी। गोद के बच्चे को रघु की गोद में दे दिया था। पियाली से सियालदह तक लगभग एक घंटे का वक्त लगता है। वे लोग इस समय आते हैं और अंतिम ट्रेन से लौट जाते हैं। सियालदह पहुँचने पर रघु की गोद से बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए रघु से पूछा बाताशी ने, उठ सकोगे ?’


हाँ, कहा रघु ने। उसके पास एक लाठी है, उसी के सहारे चलता-फिरता, उठता-    बैठता है। परंतु अब उठते समय सर कैसे चकरा सा गया है। थोड़ी देर बाद तबीयत      कुछ ठीक लगने पर वह बाताशी का एक हाथ पकड़ नीचे उतरा ट्रेन से।

पहले रघु अच्छा-खासा हृष्ट-पुष्ट जवान व्यक्ति था, राज मिस्त्री के साथ हेल्पर का काम करता था। काम से दूर न भागने की आदत के कारण कभी भी काम से छुट्टी नहीं करता था। देखा जाए तो मेहनत-मशक्कत से उसकी गृहस्थी ठीक-ठाक चल रही थी। दिन में न भी हो तो, रोज रात को चूल्हा ज़रूर जलता था। अपने परिश्रम से नारकेल बागान के पास खाल के किनारे एक झोंपड़ी भी बना ली थी। इससे महीने के घर भाड़े की समस्या से मुक्ति मिल गई थी। तब बाताशी गृहवधु थी। बस्ती के रामपद बानतला की तरफ से माल लाकर बस्ती की औरतों को दिया करती थी। एक किलो मोतियों की माला गूँथने पर चालीस रुपए मजदूरी मिलती थी। कोई महिला दिन में एक किलो तो कोई दो किलो की माला बना लेती थी। गृहस्थी का काम निपटा कर जितना समय मिल पाता, बैठ कर बाताशी भी वही माला गूँथा करती। घर बैठे ही दो पैसे कमा लेती थी। उस सुखद गृहस्थी में अचानक आग लग गई। एक दिन सर पर ईंटे लिए बाँस की सीढ़ी पर चढ़ते समय पता नहीं कैसे रघु का पाँव फिसल गया। पहले रघु नीचे गिर पड़ा और फिर वे ईंटें उसके बाईं टाँग पर गिर पड़ीं। ईंटों की चोट से टाँग चार-पाँच टुकड़ों में टूट गई। डॉक्टर ने घुटने के काफ़ी ऊपर तक टाँग काट दी। अब कटी टाँग लेकर वह पहले की भाँति मेहनत-मशक्कत नहीं कर पाता। एकमात्र कमाऊ व्यक्ति के बेरोजगार हो जाने पर गृहस्थी भला कैसे चले ? माला गूँथने की मामूली सी कमाई से भला क्या होता है। रोज जो एक बार चूल्हा जलता था वह भी बंद हो गया। शुरू हुआ रोज के अनाहार का सिलसिला। इसके अलावा, अस्पताल से लौटने पर रघु में नित्य के बुखार और सर्दी-खाँसी की समस्या दिखाई देने लगी। तबीयत में किसी भी कीमत पर कोई सुधार नहीं हो रहा था। ऐसी विकट परिस्थिति में आजकल की औरतें जो करती हैं, बाताशी भी कहीं वैसा ही कुछ तो नहीं कर बैठेगी ? यह डर जितना रघु को सता रहा था, उतना बाकियों के दिल को भी – सब कुछ छोड़-छोड़ कर भाग तो नहीं जाएगी न ?


औरतों के दिल की बात औरतें ही अच्छी तरह समझ सकती हैं। एक दिन बस्ती की परित्यक्ता गुलाबो ने बाताशी से कहा था –  धर - पकड़ कर नहीं लाई गई हो, माँ काली को साक्षी मान कर ब्याह रचाया था। उसके नाम का सिंदूर तुम्हारी माँग में है। मुसीबत के समय उसे छोड़ जाने पर महापाप लगेगा। टूटा-फूटा चाहे जैसा हो, तेरे बिस्तर पर तो पड़ा है। औरतें तो लता की भाँति होती हैं। अकेले बढ़ नहीं पातीं। उन्हें एक मचान की ज़रूरत होती है। मर्द होता है वह मचान, वह सहारा। बहन, उसकी अनदेखी मत करना। आज है, जब नहीं रहेगा तब समझोगी कि क्या खो दिया। जब तब संभव हुआ मेहनत-मशक्कत करके तुम्हारा भरण-पोषण किया उसने। अब वह बिस्तर पर पड़ गया है, उसके मुँह में चार दाने अन्न के डाल कर उसे बचाए रखना तुम्हारा दायित्व है। भगवान पुण्य देगा।


असहाय से स्वर में कहा था बाताशी ने, कहीं गई नहीं, किसी को जानती नहीं। कहाँ जाकर क्या काम करूं बहन। एक गृहस्थी चलाना क्या इतना आसान है ?’


मैं भी पहले तुम्हारी तरह सोचती थी। मुझे छोड़ जब वह भाग गया था, बड़ी मुसीबत में घिर गई थी। दो - दो बच्चे, उन्हें कैसे पालूं-पोसूं ?  तब मुझे एक और अभागन ने राह दिखाई। बोली – औरत बन कर पैदा हुई हो और अपना मोल नहीं मालूम?  घर से बाहर निकल, देखोगी उस जैसे सौ मर्द क़दमों में आ गिरेंगे। वे रुपए देंगें, मुहब्बत भी। उसकी बात मान मैंने घर से बाहर क़दम रखा। आज देखो, चिंगड़ी मछली खाती हूँ। मैं कहती हूँ कि, दस लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे – वह सब परवाह करना छोड़ दे। लोगों की बात पर कान देने की क्या ज़रूरत ? मेरे साथ चल। तुझे दिखा दूंगी, सिखा दूंगी कि कैसे रोजगार उपार्जन किया जाता है।


भूख बहुत बड़ी दुश्मन है। वह सबसे पहले तो इन्सान की सोचने-समझने-विवेक-बुद्धि, अन्याय बोध सब खा जाती है। पेट की ज्वाला अजगर की भाँति असह्य हो उठने लगी तो बाताशी ने रघु से कहा, गुलाबो मुझे काम पर साथ ले जाएगी। तुम अगर हाँ कहो तो मैं चली जाऊँ।


काम पर जाने की अनुमति न होकर मानो आत्महत्या की अनुमति माँग रही हो बाताशी। जिसके सिवा अब और कोई चारा नहीं। रघु को चाहती है बाताशी। उसे मंझधार में छोड़ कर नहीं जा सकती। कोई दूसरी औरत होती तो कब का ऐसा कर चुकी होती। यहाँ पत्नी द्वारा पति को और पति द्वारा पत्नी को छोड़ कर चले जाना कोई नई बात नहीं। बाताशी ऐसा करना नहीं चाहती, रघु के साथ ही जीना चाहती है। निरुपाय रघु ने एक बार बाताशी को देखा था और एक बार कमरे की टूटी छत को। हर साल कुछ पत्ते और लकड़ियां लाकर छत पर बिछा देता था। इस बार ऐसा नहीं हो पाया। टूटी छत के झरोखे से आकाश दिखाई देता है। तब रूंधे स्वर से कहा था, लंगड़ा हो कर पड़ा हूँ, मैं और क्या कहूँ? जैसे भी हो सके करो।


उस दिन से बाताशी कमाऊ महिला बन गई। पहले दिन गुलाबो के साथ आकर उसकी आँखें चौंधिया उठी थीं। चारों तरफ सिर्फ़ और सिर्फ़ औरतें ही औरतें। एक सौ, दो सौ नहीं, कई – कई हज़ार।  कोई मुँह पर क्रीम, पाउडर लगाए, हाथों में काँच की चूड़ियां पहने घूम रही है, कोई बिजली के खंभे, वहाँ खड़ी गाड़ियों से टेक लगाए खड़ी हैं। सब उस जैसी ही काली-काली सी, दु:खी – दु:खी शक्लें। गुलाबो ने कहा था, इस जगह का नाम है हाड़काटा गली।


जो महिला उस दिन तक बाबू के घर में बर्तन माँजा करती थी, जो बाज़ार से सब्जियां खरीदने जाती थी, जो किसी छोटे से कारखाने में काम करती थी, वे सभी लाईन में लगी दिखती हैं।


दस-बारह दिनों में बाताशी की झिझक ख़त्म हो गई थी। राह चलते अगर कोई उसकी तरफ निगाह डालता तो उन निगाहों को परखने की जाँच सीख ली थी उसने। इशारों से जवाब देकर समझाना सीख लिया था कि जो समझ रहे हो मैं वही हूँ, सस्ती और सहज उपलब्ध। डरो मत, क़रीब आओ, मोल-भाव करो। और अगर मोल-भाव जम जाए तो चलो मेरे पीछे-पीछे। यहाँ घंटे के हिसाब से कमरा किराए पर मिलता है। उस कमरे में अपना दिया दाम वसूल कर लो।


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लगभग डेढ़ साल पहले आई है बाताशी इस पेशे में। किसी दिन एक सौ, तो किसी दिन दो सौ और किसी दिन बिलकुल खाली – कुल मिलाकर महीने में अच्छी कमाई ही हो जा रही थी। जिससे माँड़-भात खाकर गुज़र हो जाती। बीच में गर्भ ठहर जाने पर, ज़रा असुविधा में पड़ गई थी। आय कुछ थी नहीं। बच्चे के जन्म के बाद अब फिर से बाताशी लाइट पोस्ट के साथ टेक लगाकर खड़ी हो पा रही है। एक-आध ग्राहक मिल रहे हैं। पर गोद में बच्चा रहने पर एक भी पैसा नहीं कमा पाएगी। कोई पास नहीं फटकेगा। एक ने कहा था, क्या जाऊँ तेरे कमरे में, गोद में बच्चा रहने पर तू माँ-माँ सी दिखती है। तन-मन में भूख-प्यास नहीं लगती।


इसी लिए गोद में बच्चा उठाए बहुत दिन खाली हाथ लौटना पड़ा था बाताशी को। वह एक त्योहार का दिन था। बहुतों ने बहुत-बहुत रुपए कमाए थे। सिर्फ़ उसकी ही एक पैसे की भी कमाई नहीं हुई थी।


बच्चा बहुत छोटा था, उसे घंटे-घंटे बाद दूध पिलाना पड़ता था। ज़्यादा देर दूध न मिलने पर सीना सूख जाएगा। अन्ना मौसी ने कहा है, ऐसी हालत में बच्चा मर भी सकता है।  


बाताशी के स्तनों में दूध बहुत है। उसे समझ नहीं आता कि भरपेट खाने को नहीं मिलता फिर भी स्तनों में इतना दूध कहाँ से आता है।


और बहुत देर तक स्तनपान न करवा पाने से वे ईंट की भाँति सख्त हो जाते थे, और दुखने लगते। खुले नल की भाँति वह दूध ब्लाउज-छाती सब कुछ भिगो देता।


बच्चे के जन्म के बाद पहले बार जिस दिन काम पर आई थी बाताशी, तो थोड़ी देर तक तो वह ठीक-ठाक थी, फिर लगा था कि स्तन भारी हो गए हैं, वजनी हो रहे हैं। फिर पीड़ा से टेढ़े होने शुरू हो गए। वह सीधी होकर खड़ी भी नहीं हो पा रही थी।


क्या हुआ बाताशी ?’ जानना चाहा था गुलाबो ने। बाताशी ने उसे अपनी समस्या बताई थी। चिंतित स्वर में कहा था गुलाबो ने, ऐसे तबीयत ख़राब हुई तो कैसे करोगी। आज बाज़ार अच्छा चल रहा है।


मैं तो बोहनी भी नहीं कर पाई।

उस तरह कातर होकर बैठी रहोगी तो कौन आएगा तेरे पास। बाबू लोग हँस-मुख औरत पसंद करते हैं। मन का दुख मन के भीतर छुपा कर हँस-हँस कर बातें करनी पड़ती हैं। जिसकी सूरत पर शोक छाया हो, कोई क्यों आएगा उसके पास ?’


तब लगभग साढ़े सात बज रहे थे। कुछ दुकाने बंद हो गई थीं। गली के कोने-कोने में अंधेरा पसर गया था।  साधारण लोगों का चलना-फिरना भी इस रास्ते में बंद हो चुका था। इस वक्त जो आ रहे हैं वे भगवान हैं। आज आ भी रहे हैं बहुत संख्या में। घंटे वाले किराए के कमरे के सामने लाइन लग गई है। जैसे सुलभ शौचालय के सामने लगती है। ये ग्राहक हैं। दोनों आँखों से भूख छलछला रही है। चाट कर, चबा कर, चूस कर निगल  जाने की लालसा लिए। जितने पैसे खर्च करेंगे सोलह आने वसूल कर लेंगे।


जहाँ सब लोग पेशाब करते हैं उस अंधेरे से कोने में खड़ी गुलाबो उसे बुला रही है, इधर आ ज़रा।

क्या करोगी ?’

आ न, बताती हूँ।

गुलाबो के पास जाने पर बाताशी से कहा, ‘’खोलो तो स्तन दोनों।

यहाँ ?’

कुछ नहीं होता। खोल।


गुलाबो के कहे अनुसार ब्लाउज हटा कर फूले हुए दोनों स्तन उघाड़ दिए बाताशी ने। आँचल से ढक कर उसमें शिशु की भाँति मुँह लगा कर दूध खींच-खींच कर निकाल दिया गुलाबो ने। दस-बारह बार ऐसे करने पर दर्द और वजन दोनों घट जाने पर बाताशी को राहत महसूस हुई। उसने कहा, बस रहने दो। तब गुलाबो ने पूछा, बातासी तेरे पास जो लोग आते हैं कोई स्तन में मुँह लगाना नहीं चाहता ?’


चाहते क्यों नहीं। बाताशी ने कहा, मैं ही किसी को छूने नहीं देती। एक जन ने तो बीस रुपए ज़्यादा देने चाहे थे। उसके मुँह पर सीधे कह दिया, जो करने आया है वही कर। छाती में हाथ नहीं लगाना। यह दूध मेरी बच्ची पीती है। तेरे इन दस-बीस रुपयों के लिए उसे अपवित्र नहीं करूंगी।


उस दिन के उस दर्द की याद और खाली हाथ लौटने की तकलीफ ने बाताशी को बाध्य किया बच्चे को साथ लाने के लिए। रघु से कहा, तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। मैं जहाँ खड़ी रहती हूँ उसके उलटी तरफ के फुटपाथ पर उसे गोद में लिए तुम बैठे रहना। मैं एक – एक करके आदमी निपटाउंगी और झट से आकर दूध पिला कर चली जाऊंगी। कर नहीं पाओगे ?’ किए बिना और उपाय भी क्या है? बाताशी काम पर न जाए तो घर में चूल्हा नहीं जलता। सब को भूखे रहना पड़ता है। भूख बहुत बड़ी तकलीफ है। सर हिलाता है रघु, कर सकूंगा।


उस दिन से बाताशी के पीछे-पीछे आता है रघु। शाम से रात दस बजे तक बैठा रहता है उस पार के फुटपाथ पर। बहुत ही असहनीय पीड़ादायक प्रतीक्षा है। इस पार से देखता है रघु उस पार खड़ी बाताशी को। विभिन्न आयु वर्ग के लोग उसके सामने आकर खड़े होते हैं। मोल-भाव करके फिर उसके पीछे-पीछे चले जाते हैं। कभी एक घंटे बाद तो कभी थोड़ी और देर बाद लौट आती है बाताशी। इस पार आकर आँचल से ढक कर बच्चे के मुँह में स्तन डाल देती है और रघु को पकड़ा देती है उस वक्त मिले रुपए। कभी कहती, इस साले ने दम कर दिया। रुपए दिए अस्सी और जो अत्याचार किया सो अलग। फिर कभी कहती, यह आदमी बहुत अच्छा है।  दिल में दया-माया है, कोई ख़राब व्यवहार नहीं किया। मैंने सौ कहे थे, बीस रुपए खुद ही ज़्यादा दे दिए।


बाताशी की कही बातें, दिए हुए रुपए, सब कुछ मानो रघु के सीने पर साँप के फन की भाँति लोटते हैं। सहा भी नहीं जाता, कहा भी नहीं जाता। ऐसी एक गहन पीड़ा उसे कुतर-कुतर कर खा रही है। बाताशी का पकाया भात-तरकारी उसके गले से उतरना नहीं चाहता। मानो ग्रास का हर कौर उसे धिक्कारता हो – मर, तू मर। तेरे जैसे इन्सान का ज़िंदा रहना बेकार है।


अब ट्रेन से उतर कर वे गेट की तरफ बढ़ते हैं। गेट पर टिकट चेकर है। चेहरे पर पाउडर की मोटी परत, हाथों में काँच की चूड़ियां, गाँव से आई ऐसी ज़रूरतमंद औरतों से वे टिकट नहीं माँगते। बगैर टिकट के यात्री जानते हुए भी जाने देते हैं।


वे प्लेटफॉर्म से बाहर निकल आते हैं। सामने की तरफ चलते रहते हैं। फ्लाईओवर के नीचे से कोले मार्केट के सामने वाला रास्ता पकड़ धीरे-धीरे पहुँच जाते हैं बऊबाज़ार के मोड़ पर। मोड़ लाँघते ही दाहिनी तरफ वह कुख्यात हाड़काटा गली है। गली में तो हज़ारों हैं, कुछ लड़कियां तो गली से निकल कर मुख्य सड़क पर आ खड़ी हुई हैं। यहाँ से ग्राहक को पकड़ कर ले जाएंगी गली के भीतर के भाड़े वाले कमरे में।


बाताशी अपनी गोद के बच्चे को रघु के पास छोड़ सड़क पार कर उस पार चली जाती है। बहुतों के साथ वह भी खड़ी हो जाती है। सभी की तरह वह भी करुण और कातर निगाहों से इधर-उधर देखती है। कौन उसे देख रहा है, कौन उसे पसंद कर रहा है, कौन उसे कुछ समय के लिए सुख के बदले में कुछ रुपए देगा – उसे तलाशती है।


ऐसे समय में रघु का दम बंद हो आता है। रुलाई फूट-फूट आने को होती है। तब वह ध्यान बंटाने की कोशिश में बार-बार बीड़ी सुलगाता है।


रोशनियों से नहा उठा है कोलकाता महानगर। इस रोशनी के नीचे जो भयावह अंधेरा है वह किसी को नज़र नहीं आता। बगल में आभूषणों की दुकानों पर लाखों-करोड़ों के आभूषण बिक्री के लिए शोकेस में सजे रखे हैं। और उन दुकानों के सामने घूम-फिर रही हैं, जिनके पास अपने तन के सिवाए बेचने के लिए कुछ भी नहीं है।


आज बाज़ार बहुत मंदा है। बाताशी की तो बात अलग है, जो देखने-सुनने में ज़रा अच्छी हैं उन्हें भी ग्राहक नहीं मिल रहे हैं। लड़कियों की समझ में नहीं आ रहा कि आखिर सब को हो क्या गया ?  कोई इधर आ क्यों नहीं रहा ?  क्या सभी चरित्रवान, पत्नीव्रती ब्रह्मचारी बन गए ?  लोग ऐसे हो गए तो फिर हम क्या खाएंगे ?  कैसे जीएंगे ?

बहुत देर तक ऐसे ही समय गुज़र जाने के बाद अचानक देखा गया कि एक साथ आठ-दस ग्राहक आठ-दस लड़कियों के सामने जा खड़े हुए। एक बाताशी के सामने भी। उससे पूछा, चलोगी ?’


इस सवाल के लिए सम्मतिसूचक रूप में जो कहना होता है वही कहा बाताशी ने, हाँ। इस पेशे का नियम है कि ग्राहक भगवान है, वह लंगड़ा, लूला, काना, टेढ़ा – जैसा भी हो उसे न कहने पर लक्ष्मी नाराज़ होती हैं। इन्सान नहीं, रूप-गुण नहीं, तुम उसके रुपए देखो। देखने में सुंदर, मनभावन हो तो उपभोग करो। नहीं तो कुछ समय तक आँखें बंद किए पड़े रहो। उसे जो करना है, करके विदा होने दो।


अब समझ में नहीं आया बाताशी को कि क्या सभी लड़कियों से एक साथ यह सवाल किया गया था ?


क्या सबने एक साथ हाँ कहा ?  देखा उन सभी लोगों ने अब एक साथ सभी लड़कियों का हाथ पकड़ रखा था। बातासी को महसूस हुआ कि उसके हाथ को मानो किसी सड़सी जैसे कठोर लौहयंत्र ने थाम रखा था। उस हाथ के दबाव से शिराओं-उपशिराओं में रक्त प्रवाह मानो थमने को था। हाँ, बस कुछ समय के लिए।  उसके बाद ही एक जाली वाली काली पुलिस वैन आगे की तरफ बढ़ आई। और लड़कियों को थाम रखे उन हाथों ने निर्दयता से खींच-धूह कर वैन में चढ़ा लिया। उसके बाद ही कोई चीख उठा था – रेड पड़ गई है। रे ड ड ड....।


      जो लड़कियां तब भी खाली थीं, वे दिशाहीन होकर जिधर मौका मिला भागने लगीं। चारों तरफ दौड़-भाग शुरू हो गई। उसी दौरान उस पुलिस वैन के भीतर से बाताशी का तीक्ष्ण कंठ स्वर उभर आया, बाबू तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। मुझे छोड़ दो। मेरा बच्चा है, दूध न मिलने पर छाती सूखने पर मर जाएगा।


परंतु उस रूदन से वैन में बैठे पत्थर दिल लोगों के दिल नहीं पसीजे। बाताशी को लिए वैन तीव्र गति से दौड़ चली सामने की ओर। इस आकस्मिक घटना से उस पार बैठा रघु विह्वल हो उठा। क्या करे कुछ नहीं सूझ रहा था। जब तक तंद्रा लौटी वह लंगड़ाते हुए वैन के पीछे-पीछे दौड़ चला।


लेकिन तब तब वैन बहुत दूर जा चुकी थी।

किसी ने रघु से पूछा, वैन में कौन है ?’

रघु बोला, मेरी बेटी की माँ।

उसने कहा, उस वैन के पीछे भाग कर क्या होगा ? लगभग पाँच सौ रुपए लेकर थाने चले जाओ, छुड़ा लाओ।

इतने रुपए कहाँ से लाऊँ ?’

कल सुबह उन्हें कोर्ट में पेश करेंगे, जुर्माना न दे सकने पर पंद्रह दिनों बाद सीधे छूट कर घर आ जाएंगी। टेन्शन लेकर कोई फायदा नहीं।


बहुत देर तक वहाँ असहाय की भाँति खड़े रहने के बाद धीरे-धीरे लंगड़ाते, घिसटते हुए स्टेशन की तरफ आया था रघु। लेकिन वह घर नहीं लौटा। कहाँ गया कोई नहीं जानता। हाँ, अगले दिन समाचार पत्र से पता चला कि सियालदह से दूर रेल से कट कर एक अज्ञात व्यक्ति मर गया है। और, स्टेशन पर एक आठ – नौ माह की परित्यक्ता बच्ची मिली है।

 

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                      लेखक परिचय / मनोरंजन ब्यापारी

       बांग्ला भाषा में दलित साहित्य के अग्रणी लेखक। किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा के बगैर साधारण रिक्शा चालक से लेखक तक का सफ़र तय किया है उन्होंने। आत्मकथात्मक जीवनी चंडाल जीवन, जे कौथा इत्तिवृत्ते नेई, छन्नो छाड़ा सहित लगभग दर्जन भर उपन्यासों और सौ से अधिक कहानियों, अनेक निबंधों के रचियता। कोलकाता में निवास। 2021 से बलागढ़ (बंगाल) से तृणमूल कांग्रेस के विधायक 


पुरस्कार  –   

2014 में बांग्ला अकादमी के सुप्रभा मजुमदार पुरस्कार।  

2015 में शर्मिला घोष स्मृति साहित्य पुरस्कार।                   


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