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शनिवार, अक्तूबर 12, 2024

कहानी श्रृंखला-55 चाबियों का गुच्छा(पंजाबी) विपन गिल, अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु '

                    पंजाबी कहानी                   


                   चाबियों का गुच्छा                                                                                          

              0 विपन गिल         अनुवाद - नीलम शर्मा अंशु


 


माँ कभी-कभार एक-दो दिन के लिए मेरे पास आ जाती है, वैसे वह बेटी के घर आकर रहना अच्छा नहीं समझती। कल दोपहर वह मेरे पास आई थी। उसका चाबियों वाला गुच्छा मेरे कमरे की ड्रेसिंग टेबल पर पड़ा है।

मैं बेड के कोने पर तिरछा सा लेट-लेटे दीवार पर खुरचे हुए निशान की तरफ देख रही हूँ। माँ काफ़ी देर तक मुझे समझाती और सर खपाती रही और मैं चुपचाप बिना हुंगारा दिए उसकी बातों को सुनते हुए अंगूठे के नाखून से दीवार खुरचती रही। आख़िर चिढ़कर माँ उठ कर स्नान के लिए चली गई।

बेड से उठ कर मैं ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो जाती हूँ और अपने चेहरे की ओर देखती हूँ। आँखों के गिर्द गहरे काले स्याह घेरे, निर्जीव से पीले पिचके गाल और गर्दन से ढिलकी हुई त्वचा... मैं सचमुच बूढ़ी हो रही हूँ। माँ सचमुच का डाँट रही थी, चुड़ैल लगती है तू। निरी चुड़ैल। पता नहीं कौन सी उदासी की गठरी उठाए फिरती है। माँ को कुछ बताना चाहती थी परंतु चुप रही और अन्यमनस्क रूप से माँ के हाथ का चाबियों वाला गुच्छा पकड़ कर अंगूठे में रिंग डाल कर गोल-गोल घुमाना शुरू कर दिया था। माँ ने चिढ़कर मुझसे चाबियों का गुच्छा छीन कर ड्रेसिंग टेबल पर रख दिया था और डाँट कर कहा था, चाबियां नहीं खड़काते, घर में कलेश होता है। वह मेरे भीतर चल रहे नित के कलेश के बारे नहीं जानती थी, जहाँ मैं खुद से लड़ते हुए रोज़ हार जाती थी। माँ के चाबियों वाले गुच्छे में छोटी-बड़ी दस चाबियां हैं। माँ सब जानती है कि किस चाबी से कौन सा ताला खोलना है। कभी-कभी माँ मुझे जादूगरनी लगती है जैसे उसने सभी रिश्तों को ताले लगा कर काबू कर रखा हो। माँ को चाबियों का गुच्छा जान से ज़्यादा प्यारा है। उसने ताउम्र इस गुच्छे को कभी अपने से अलग नहीं किया। शायद इन चाबियों में से एक चाबी से पिताजी को हमेशा अपने साथ बाँध कर रखा था। माँ और पिताजी का जोड़ बेमेल सा था। पिताजी ऊँचे लंबे और सुदर्शन व्यक्ति थे, और माँ मध्यम कदकाठी की साधारण नैन-नक्श वाली सांवली सी परंतु समृद्ध पिता की इकलौती बेटी जिसने पिताजी को ताउम्र अपनी नाक के नीचे रखा।

बेड के सिरहाने पर पड़ा मोबाइल की स्क्रीन ज़रा चमकी है। चंचल का मैसेज है -दीपा, आर यू रेडी फॉर बाली ट्रिप। चंचल मेरी कलीग और सहेली है। वह अगले हफ्ते घूमने के लिए बाली जा रही है और मुझे भी साथ ले जाना चाहती है। अजीब महिला है यह भी, अलग राहें गढ़कर ठुमक-ठुमक कर चलने वाली और ज़िंदगी को भरपूर जीने की तमन्ना रखने वाली। वह तलाकशुदा है और अकेली रहती है।

माँ मुझे हरिद्वार लेकर जाना चाहती है। मन के चैन और शांति के लिए। माँ अक्सर तीर्थ यात्राओं पर जाती रहती है। वह इस धरती से दूर विचरते अजीब मंडलों के बारे में बातें करती रहती है परंतु उसके पाँव हमेशा इसी सांसारिक मिट्टी में गड़े देखे हैं।

मोबाइल फिर चमका है। यह मैसेज तेरी मेरी कहानी व्हाटस् ऐप ग्रुप में गीता मल्होत्रा ने भेजा है जिसमें किसी प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ देकर महिला के अस्तित्व का गुणगान किया गया है।  मेरे कॉलेज की कुछ महिला प्रोफेसरों ने महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए यह ग्रुप बनाया था परंतु धीरे-धीरे इस ग्रुप की महिलाएं ही एक-दूसरे के लिए समस्या बन कर इतनी मारक हो गई हैं कि कुछ सुलझी हुई और प्रगतिशील विचारधारा की चंचल जैसी महिलाओं ने इस ग्रुप को छोड़ दिया है। इस ग्रुप के अब कुछ ही सदस्य शेष हैं। बेशक मैंने इस ग्रुप में कभी कोई समस्या शेयर नहीं की परंतु ऐसा लगता है जैसे समाज की हर महिला एक स्त्री समस्या से जूझ रही है। कुछ महिलाएं जिन्हें चंचल बूढ़ी चालाक लोमड़ियां कहती है, वे भी अपनी समस्याओं से जूझ कर ऊब चुकी हैं और अब वे दूसरों की बातों को कुरेद कर मज़ा लेती हैं।

इन दिनों पता नहीं मुझे क्या हो गया है? बस अपने आप में सिमटती जा रही हूँ। सच बताऊँ, मैं खुद ही की सहेड़ी मोहभंग की समस्या से जूझ रही हूँ। एकांत को झेलते हुए मन सारा दिन सकारात्मकता और नकारात्मकता की आड़ी-टेढ़ी लकीरें खींचता रहता है। दर्द, उदासी, भय और घृणा में घिरे मन की यह कश्मकश है। रिश्तों की उधेड़बुन की जटिलताओं में उलझी सुबह से शाम, शाम से रात और फिर रात से सुबह हो जाती है। दर्द को कुरेदना और भोगना मानों कर्म बन गया हो। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे मुझे इस स्थिति की लत लग गई है। मैं जान-बूझ कर इससे बाहर निकलना नहीं चाहती। मैंने कुछ दिनों की मेडिकल लीव लेकर खुद को घर की चहारदीवारी में कैद कर लिया है।

रसोई से बर्तनों की आवाज़ें आनी शुरू हो गई हैं। काम वाली बाई आ गई है। बर्तन धोने के बाद वह हाथ में झाड़ू पकड़े इसी कमरे में आ जाएगी। उसके सांवले चेहरे पर गोल लाल बिंदी देख मुझे चिढ़ सी होती है। वैसे इस पर लाल बिंदी जंचती खूब है। रंग बेशक इसका पूरबियों की भाँति सांवला है। इकहरे तन और आकर्षक सूरत वाली यह महिला मेरे दु:ख-सुख की सहचरी भी है।  भीड़-भड़क्के वाले इस शहर में मैं अकेली रहती हूँ। कभी-कभार माँ एक-दो दिनों के लिए मेरे पास आ जाती है। पिछले छह सालों से अर्जुन भोपाल से भी सरसठ किलोमीटर आगे वीरगढ़ में बतौर फॉरेस्ट अफसर तैनात है और बेटा आई आई टी, दिल्ली में इंजीनियरिंग कर रहा है।

यह आज पता नहीं क्यों ख़ामोश है, वैसे तो बक-बक करती रहती है। लगता है आज अपने पति से लड़ कर आई है। हर रोज़ बस आते ही शुरू हो जाती है। बातों को बार-बार दोहराना इसकी आदत है। अभी कल ही इसने मेरी भतीजी नीति का ज़िक्र छेड़ लिया था। ये बातें कई बार पहले भी दोहराई जा चुकी हैँ।

कितने दिन हो गए दीदी, नीति दीदी नहीं आई।

तलाक हो गया उनका, अकेली रहती हैं वो? 

कोई अच्छा सा लड़का देख कर शादी कर दीजिएगा दोबारा, अभी उम्र ही क्या है उनकी। मैंने इसकी बेसुरी बातों से चिढ़ कर माथे पर त्योरी डाल ली।  वह समझ गई और चुपचाप रसोई में जा कर अपना काम करने लगी। वैसे उसे क्या फर्क़ पड़ता है? जिस दिन पति ने पिटाई की हो, उस दिन भी आँखें सुजा कर माथे पर बिंदिया सजाए मांग में सिंदूर बिखेरे काम पर पहुँच जाती है। इसका निक्म्मा पति इसकी कमाई पर पलता है। बेवकूफ़ औरत मैं बड़बड़ाती हूँ।

बीबी जी चाय पीएंगी आप? खुली, फैली हुई तथा बिछुए वाली गीली उंगलियों वाले पाँव मेरे बेड के पास आकर रुक गए। हाँ थोड़ी सी पीऊँगी। माँ को भी पूछ लो। मैं मुँह ऊपर उठा कर उसकी बात का जवाब देती हूँ और स्टडी टेबल से डायरी उठा बुकमार्क वाला पेज खोलती हूँ। यह पृष्ठ कई बार पहले भी पढ़ चुकी हूँ-

कितनी उमस है – इस मकान की चहारदीवारी की भीतर। यह क्या, मोटी-मोटी बूँदे और छर्राटेदार बारिश। बारिश अब रुक गई है परंतु सामने वाली झुग्गी की खपरैलनुमा छत से पानी की धाराएं अभी लकीर की भाँति बह रही है। बाहर बंधी भीगी हुई गाय रंभा-रंभा कर थक गई है। चित्रांगदा का छोटा सा नंदू बारिश में खेल कर घर लौट आया है और चित्रांगदा ने उसकी गीली नेकर निचोड़ कर रस्सी पर डाल दी है।  नंगू सा नंदू फिर बाहर भाग गया। मैंने खिड़की से बाहर मुंडेर पर रखे गमले की हरी-भरी बारीक पत्तों वाली लता की तरफ देखा। बारिश के बाद यह छोटे-छोटे लाल फूलों से लद गई थी। दूर खड़ी चित्रांगदा ने मेरी तरफ देखा और मुस्करा दी जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।

मेरे दिमाग में जैसे चक्रवात का तूफान आ गया हो। अर्जुन, चित्रांगदा, रेस्ट हाउस और पलंग से चिपकी लाल बिंदी। विगत गर्मियों से पहले जीवन अपनी लय और तरतीब में बंधा चला जा रहा था या यूं कह लें कि मैंने ज़बरदस्ती की डोरी डाल कर इसे संतुष्टि के कील से बाँध रखा था और मैंने अर्जुन के विगत सभी इश्किया किस्सों को जवानी की भूल समझ कर माफ़ कर दिया था। अर्जुन भी पाँच-छह महीनों बाद यहाँ चक्कर लगा जाता था। लगभग सभी त्योहार हम इकट्ठे मनाते। पिछली गर्मियों में मैंने अर्जुन के पास वीरगढ़ जाने की तैयारी कर ली थी। आम तौर पर मैं हर साल गर्मियों की छुट्टी में वयस्त रहती थी। छुट्टियों के दौरान अध्यापकों के सेमिनार और रिफ्रेशर कोर्सों मे मेरी ड्यूटी रिसोर्स पर्सन के तौर पर लगा दी जाती थी। पिछले साल संयोग से मैं इन सब झमेलों से मुक्त थी।

भोपाल तक ट्रेन और फिर आगे बस का लंबा सफ़र तय करके वीरगढ़ पहुँचते-पहुँचते शाम ढल चुकी थी। अर्जुन बस स्टैंड पर मेरा इंतज़ार कर रहा था। घने जंगल से गुज़रती टूटी-फूटी सड़क पर तेज़ दौड़ती जीप लगभग डेढ़ मील दूर एक मैदानी जगह पर जाकर रुकी। यह वन विभाग का रेस्ट हाउस और अर्जुन का आशियाना था। रेस्ट हाउस के बाहर तीन झोंपड़ीनुमा क्वार्टर थे। एक क्वार्टर के बाहर लगभग 21 वर्षीया महिला चार वर्ष के एक बच्चे की उंगली थामे खड़ी अचंभित निगाहों से मुझे देख रही थी। उसने मुझे दूर से इशारे से नमस्ते की। अर्जुन ने बताया, यह चित्रांग्दा है।

रेस्ट हाउस की सीढ़ियां चढ़ कर हम बरामदे से होकर भीतर पहुँचे। अंग्रेजों के ज़माने के इस रेस्ट हाउस में ज़रूरत की सभी चीज़ें मौजूद थीं और चीज़ों को टिकाने की सलीकेदार तरतीब देख मैं तारीफ़ किए बिना न रह सकी। सेवादार ने खाना परोसा। खाना खाकर सफ़र की थकान से टूटे-फूटे तन सहित पलंग पर गिर पड़ी और अगली सुबह ज़रा देर से जगी। उस वक्त चित्रांगदा रसोई में नाश्ता बना रही थी। चाय पीकर और नाश्ता करके मैं बाहर घूमने के लिए निकल पड़ी। रेस्ट हाउस को जाने वाली पक्की सड़क से थोड़ा सा हटकर कच्चा रास्ता स्थानीय लोगों के घरों को जाता था। मैँ इस रास्ते पर चलती गई। यहाँ ज़िंदगी अपनी तरह के कश्मकश में व्यस्त थी। घरों के बाहर नंग-धडंग बच्चे खेल रहे थे। झोंपड़ियों से आगे जंगल की तरफ जाने के लिए कई पगडंडीनुमा रास्ते थे। मैं एक पगडंडी पर चलती गई। पेड़ों से गीली और नम ताज़ी हवा की खुशबू आ रही थी तथा पंछियों की चहचहाहट ने मुझे मंत्र-मुग्ध कर दिया। घने जंगल से अपने घरों को लौटतीं औरतों ने सर पर साग पत्ते तथा लकडियां उठा रखी थीं। थोड़ी सी हवा खाने के बाद मैं रेस्ट हाउस की तरफ लौट आई। चित्रांगदा रसोई के कामों में लगी थी। मैं पलंग पर लेट गई। जल्दी ही मुझे नींद के झोंके आने शुरू हो गए। जब आँख खुली तो चित्रांगदा अपना काम निपटा कर जा चुकी थी। जब मैं बिस्तर की चादर की सलवटें ठीक कर उसे फिर से बिछा रही थी तो मेरी नज़र सफेद गद्दे के गिलाफ से चिपके लाल से दाग पर पड़ी।  यह लाल गोल बिंदी थी परंतु यह आई कहाँ से?  यह सोच कर मेरा दिमाग फट रहा था।

जा रही हूँ, बीबी जी।  बाई की तीखी आवाज़ ने मेरे विचारों की श्रृंखला को झटके से तोड़ दिया। पता नहीं फिर क्यों घबराहट शुरू हो गई थी। पसीने से गर्दन और हथेलियां नम हो गई थीं। मैं बेड से उठ कर पानी पीने के लिए किचन में आ गई। लॉबी की दीवार पर सार्थक की तस्वीर देख कर मखमली होठों पर मुस्कान खेल गई। मम्मा मैं दीवाली की छुट्टी पर आऊँगा। कल उसने फोन पर बताया था। कुछ पलों के लिए मन मानों स्थिर सा हो गया हो परंतु यह अर्जुन और चित्रांगदा ने मेरे ज़ेहन में फिर से उथल-पुथल मचानी शुरू कर दी थी।

अर्जुन शुरू से ही फरेबी है, कई बार मैंने उसकी चोरी, रंगे हाथों पकड़ी है परंतु हर बार वह बातों के छलावे से मेरी सोच को जकड़कर मुझ पर संकीर्ण सोच वाली महिला होने का इल्ज़ाम लगा देता। पता नहीं कितने किस्से सुन चुकी हूँ। इसकी क्लासमेट्स के साथ, कजिन्स के साथ और पता नहीं किस-किस के साथ। देहरादून पोस्टिंग के समय भी इसके अनीता के साथ संबंध होने की कितनी ही बातें उड़ी थीं। ऐसे किस्सों के बारे में जब मैं पूछती हूँ तो मेरे साथ लड़ता-झगड़ता है और मुझे रुढ़िवादी महिला कह कर मज़ाक उड़ाता है और अगर मैं कोई सबूत सामने रख दूं तो और भड़क उठता है और कहता है, तुम मुझे कंट्रोल करना चाहती हो, मुझ कैद करके रखना चाहती हो?  इस तरह मैंने चुप रहने की आदत डाल ली।

उस दिन भी बिंदी वाली घटना के बाद मेरा मन गुस्से और बेचैनी से भर गया था। जून महीने की तपिश वाले मौसम में भी वीरगढ़ की फिज़ा में उमस थी। मैंने रेस्ट हाउस की खड़की का पर्दा सरका कर चिटकनी खोली और बाहर देखने लगी। अचानक छोटी-छोटी बूंदों वाली बारिश होने लगी। खिड़की के सामने झुग्गी में चित्रांगदा से मेरी नज़रें मिलीं और वह मुस्कुराई तो मैं भी मुस्कुरा उठी।

चित्रांगदा महज़ एक वस्तु थी, मेरी तरह भोगी जाने वाली एक वस्तु। मैंने अपने सभी गिले-शिकवे और गुस्से को निगल लिया। मैं बेबस हो गई थी और अर्जुन से भी इस बारे में कोई बात न कर सकी। क्या हो गया था मुझे? क्या रिश्तों की डोरी में बंधी और इन्हें बचाने की लालसा ने मेरे मुँह पर ताला जड़ दिया था? क्या मैं अर्जुन या चित्रांगदा से डरती थी या अपने युवा बेटे के समक्ष रिश्तों को बिखेरने से झिझकती थी? मैं किसे बचा रही थी, खुद को, अर्जुन को या बीस सालों से रुढ़ियों में बंधे पति-पत्नी के रिश्ते को?

मैं वहाँ दस दिन रही। एक मूक दर्शक की भाँति देखती रही। चित्रांगदा और अर्जुन को चोरी-चोरी, एक दूसरे की तरफ देखते और इशारे करते देख चुपचाप वहाँ से खिसक जाती और उस घने जंगली इलाके में स्त्री–पुरुषों और बच्चों की व्यस्तताएं देखती रहती। उन दिनों स्थानीय महिलाओं द्वारा एक त्योहार मनाया गया। सुबह से निराहार व्रती महिलाएं ढलती शाम को एक साथ मिलकर जंगल में बहती एक नदी पर गईं। चित्रांगदा ज़िद करके मुझे भी अपने साथ ले गई। सभी औरतों ने अपने हाथों में बड़े से पत्ते को कटोरीनुमा बना कर उसमें फूल रखे थे। नदी के तट पर बैठ कर उन्होंने अपनी भाषा में मंगलगीत गाए और फिर निडर हो तेज़ धाराओं वाली नदी में आगे तक चली गईं। उन्होंने पश्चिम दिशा की तरफ मुँह करके नमस्कार किया और हाथ में पकड़े फूल पानी में प्रवाहित कर दिए। दिन ढल जाने पर गीत गाती मुस्कुराती औरतें वापस अपनी झोंपड़ियों में आकर अपने कामों में व्यस्त हो गईं। मैंने घर आकर सेवादार से उस त्योहार की महत्ता के बारे में पूछा तो उसने बताया कि यह त्योहार पति की लंबी आयू और परिवार की मंगलकामनाओं के लिए किया जाता है। कभी-कभी सोचती हूँ कि हर औरत अपने परिवार की सुख-शांति के लिए कष्ट सहती है, व्रत रखती है और आवश्यकता पड़ने पर बलिदान देने से भी नहीं हिचकिचाती।

जिस दिन मुझे वापस आना था उस दिन चित्रांगदा ने सुबह ने मेरे लिए नाश्ता तैयार किया। उसने मुझे उपहारस्वरूप कुछ सूखे जंगली फल और शहद की एक शीशी दी। मेरे दिल में उसके लिए अजीब से अहसास थे।  कुछ मिले-जुले से, जिनमें न नफ़रत थी, न प्यार और न ही हमदर्दी। मैंने अपना पर्स खोला और एक सौ का नोट निकाला और फिर कुछ सोच कर उसे पर्स में वापस रख लिया और लाल गोल बिंदयों का एक पत्ता निकाल कर चित्रांगदा के हाथ में पकड़ा दिया।

आजकल बड़े अजीब से सपने आते हैं जैसे मैं एक तेज़ बहती नदी के बिलकुल बीचो-बीच खड़ी हूँ। मैं अपने हाथों में पकड़े फूलों को पानी में प्रवाहित कर देती हूँ। वे सभी फूल एकदम नीचे जाकर जमा हो जाते हैं। मैं पारदर्शी पानी में नीचे की तरफ देखती हूँ वहाँ बिंदियों के ढेर लगे हुए हैं। मैं नीचे तक चली जाती हूँ परंतु वहाँ कुछ भी नहीं है। मैं खाली हाथ वापस आ जाती हूँ। पता नहीं, यह सपना मुझे बार-बार क्यों आता है।

फोन की रिंग बजी है। अर्जुन का फोन है। मैं फोन उठा कर पूछती हूँ – हैलो अर्जुन, हाउ आर यू?

हाँ, मैं सुन रही हूँ।

तुम अगले हफ्ते आ रहे हो? पर मैं तो चंचल के साथ बाली जा रही हूँ।

क्या...?

दीवाली पर नहीं आ सकोगे?

कोई बात नहीं, सार्थक आ रहा है, ओके बाय।

माँ कमरे के दरवाज़े से टेक लगाए खड़ी मेरी और अर्जुन की बातें सुन रही है। मैं इशारे से उसे बेड पर बैठने के लिए कहती हूँ।

माँ, मैं अगले हफ्ते बाली जा रही हूँ। मैं चहक कर माँ को पीछे से कंधों से कस कर आलिंगन में ले लेती हूँ। माँ मेरी बात का जवाब दिए बिना ही उठकर चल दी। उसने अपने हाथ में चाबियों का गुच्छा कस कर पकड़ रखा है परंतु उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें क्यों हैं? मैं माँ की चिंता की चिंता क्यों कर रही हूँ?


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                लेखक परिचय     -       विपिन गिल 

 

पंजाब के अमृतसर में निवास। सरकारी स्कूल में गणित का अध्यापन। एम. फिल, अंग्रेजी और पंजाबी में स्नातकोत्तर। एक काव्य संग्रह सहित चार अनूदित पुस्तकें प्रकाशित। लेखन में निरंतर सक्रिय।

संपर्क – मोबाइल – 9463223251  ईमेल - Vipangill1971@gmail.com 


                  साभार  - नवकिरण जुलाई - सितंबर 202   

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