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रविवार, जुलाई 04, 2010

कविता श्रृंखला – 2 /सुभाष शर्मा, (चंडीगढ़) ( पंजाबी )


शिखंडी

 

० सुभाष शर्मा, (चंडीगढ़)


तूने तो यह रूप धरा था
अपने साथ हुए
तिरस्कार का बदला लेने के लिए
और पूर्ण पुरुष न होते हुए भी
इतिहास में
अपना नाम
अंकित कर दिया था।
और वह कर गुज़रे थे
जो कि पूर्ण पुरुष भी
न कर सकते थे।



इतिहास के
उस महान योद्धा की
मौत का कारण
बने थे
जिसे शायद
इतिहास के तथाकथित योद्धा
नहीं मार सकते थे।
अगर तुम न होते
तो शायद –
इतिहास के पन्ने
कुछ और ही होते।
इतिहास भी कुछ और
तथा युद्ध का परिणाम भी।
सब्र की भी इंतेहा थी
बदला लेने के लिए।
जन्म जन्मांतर तक भी
नहीं थे भूले
अपने साथ हुई उस नाइंसाफ़ी को।
आज भी इतिहास
याद करता है तुझे
और तेरे कारनामे को।


परंतु आज -
तुम्हारे हमनस्ल बहुसंख्या में हैं।
यहां तक कि
पूर्ण पुरुष भी
तुम्हारी शक्ल धारण कर
अधूरे बन गए हैं।


परंतु,
न ही वे
हो सकते हैं तुम्हारे वंशज
और न ही तुम्हारे जांनशीं
क्योंकि
उन में
न तो है तुम्हारे जैसा साहस।
न ही सब्र
और न ही जन्म जन्मांतर तक
लड़ सकने का हौंसला -
अपने साथ हुई नाइंसाफ़ी के विरुद्ध
लड़ने के लिए।


अगर उनके पास कुछ है
तो वह है –
एक नपुंसकता।
एक बुजदिली।
अपने साथ हो रही
ज़्यादतियों को सहने की
नाइंसाफ़ी को बर्दाश्त करने की
ख़ामोश रह कर सब कुछ सहने की
और घुट कर मर जाने की भी।


अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’

1 टिप्पणी:

  1. एक सच्चे, ईमानदार कवि के मनोभावों का वर्णन। बहुत अच्छा अनुवाद!

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