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रविवार, जुलाई 04, 2010

कहानी श्रृंखला – 5

पंजाबी कहानी

सुनहरी जिल्द


० नानक सिंह


अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’



‘क्यों जी, आप सुनहरी जिल्दें भी लगाते हैं ?’ ख़ैरदीन दफ्तरी, जो जिल्दों की पुश्तें लगा रहा था, ग्राहक की बात सुनकर बोला - ‘हाँ जी, जैसी आप कहें।’
ग्राहक एक अधेड़ सिक्ख था। दुकान के तख़्त पर बैठ कर उसने बड़े जतन से किताब पर लिपटे रुमालों को खोलना शुरू किया। पाँच-छह रुमाल खोलने के बाद एक किताब निकाली। दफ्तरी की दुकान में जितने भी क़ारीगर काम कर रहे थे, सभी किताब को देखकर हँसने लगे। एक ने तो धीमे से स्वर में कह भी दिया - ‘फूस का झोंपड़ा और हाथी दाँत का परनाला।’किताब जगह-जगह से सारी खुली हुई थी। उसके धुआँ रंगी पृष्ठ हाथ लगते ही भुर-भुराते जा रहे थे। जिल्द की जगह वाले कोने मुड़े हुए थे। यूं लगता था कभी ये चमड़े की जिल्द के रूप में थे।दफ्तरी ने किताब हाथ में ली और उलट-पलट कर देखी। देखते ही टुकुर-टुकुर ग्राहक के मुँह की ओर देखने लगा। यह एक हस्तलिखित क़ुरान शरीफ़ था।दफ्तरी ने कहा - ‘बन जाएगी सरदार जी!’ फिर संकोच से पूछा- ‘सरदार जी, कुरान शरीफ़ आपका अपना है? लिखावट तो बहुत सुंदर है।’‘नहीं, यह मेरी बेटी का है।’ ‘अच्छा? चीज़ तो सरदार जी बड़ी अच्छी है पर पृष्ठ बड़े ख़स्ताहाल से हो गए हैं। अगर छपा हुआ लेकर बंधवाते तो बेहतर होता।’‘आप ठीक कहते हैं परंतु लड़की का इससे लगाव है, यह उसके पिता की निशानी है।’दफ्तरी को हैरानी के साथ-साथ शक़ भी होने लगा, ‘मेरी लड़की’ और फिर ‘उसके पिता की निशानी’ वाली बात उसकी समझ में नही आई। उसने फिर पूछा - ‘तो आपकी रिश्तेदारी में से है ?’‘हाँ----नहीं, नहीं मेरी अपनी लड़की है। हाँ, बताईए कब तक दे देंगे ? मुझे यह जल्दी चाहिए। आज से चौथे दिन लड़की की शादी है और मुझे यह शादी पर देना है।’‘अरे हाँ, एक काम और कीजिएगा, जिल्द पर सुनहरी अक्षरों में ‘बीबी ज़ैना’ लिख दीजिएगा। पैसों की कोई फ़िक्र मत करें, जो कहेंगे दूंगा।’ज्यों-ज्यों दफ्तरी इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करता, त्यों-त्यों यह और उलझती जाती। इस अनोखे वार्तालाप से उसके साथियों के काम में भी विराम लग गया।


करम सिंह ने जब देखा कि सभी की जिज्ञासा बढ़ रही है तो उन्होंने खुलासा किया - आज से पाँच साल पहले की बात है, जब इस शहर में हिंदु-मुसलमानों के बीच बड़ा भारी फ़साद हुआ था, उन दिनों मैं कपड़े की दुकान करता था। परिवार में दो ही प्राणी थे, मैं और मेरी पत्नी।

दोपहर को सारे शहर में शोर मच गया। मेरे पाँवों तले से ज़मीन खिसक गई। फ़साद वहाँ से शुरू हुआ, जिस मुहल्ले में मेरा घर था और यह मुहल्ला लगभग मुसलमानों का ही था। दुकान बंद करके मैं जल्दी-जल्दी घर की ओर भागा। रास्ते में लोगों की टोलियां दगड़-दगड़ करती फिर रही थीं।

मैं घर पहुँचा, पर दरवाज़े पर ताला लगा देख मुझे तसल्ली हो गई कि पत्नी सतवंत कौर अपनी मौसी के घर चली गई है। उसकी मौसी का घर खत्रियों के मुहल्ले में था। उसकी सूझ-बूझ की मन ही मन सराहना करते हुए मैं भी उधर ही चल दिया। मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई, जब मुझे पता चला कि सतवंत कौर वहाँ नहीं पहुँची। मैं सर थामे वहीं बैठ गया।हमारे सारे दिन की भाग-दौड़ का कोई परिणाम न निकला। इधर पल-पल फ़साद बढ़ते जा रहे थे। कई मुहल्ले फूँके गए, कई दुकानें लूटी गईं और कई निर्दोषों का खून बहाया गया।

थक-हार कर मैं घर गया। अच्छा-ख़ासा अंधेरा हो गया था। सारी गली सुनसान थी। बीच-बीच में पैदल और सवार सिपाहियों की पदचाप सुनाई दे रही थी। इस समय सेवा समिति का एक स्वयं-सेवक मेरे घर आया। उसने मुझे बताया कि मेरी पत्नी सरकारी अस्पताल में मेरा इंतज़ार कर रही है।

मुझे सुनकर खुशी हुई, परंतु थोड़ा सा सहम भी गया। कई तरह की बातें सोचता-सोचता मैं अस्पताल पहुँचा। वहाँ जाकर मैंने जो देखा, उससे मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। एक वृध्द मुसलमान सर से पाँव तक पट्टियों से बंधा बेहोश पड़ा था और सतवंत कौर उसके पास बैठी ऑंसू बहाते हुए उसके मुँह में दूध डालने की कोशिश कर रही थी।

मुझे देखते ही वह मेरे गले आ लगी। हैरानी से उसे देखते हुए मैंने दिलासा दी। मेरा मंतव्य समझ कर वह बोली - ‘यदि ये न होते तो....’ इससे आगे वह कुछ न कह पाई।

अंतत: उसने बैठकर अपनी आप-बीती सुनाई - फ़साद की ख़बर सुनते ही मैं सारे गहने और नकदी वगैरह छोटे से ट्रंक में डाल, बगल में दबाए मौसी के घर की ओर चल पड़ी। रास्ते में गुंडों की एक टोली को मैंने अपनी ओर आते देखा। उनसे बचाव के लिए मैं घबरा कर इधर-उधर ताकने लगी। जब मुझे भागने का कोई रास्ता न मिला तो मैं इस बूढ़े हलवाई की दुकान पर जा खड़ी हुई। मेरे पीछे ही गुंडों की टोली आ पहुँची। मेरा ट्रंक देखकर वे समझ गए थे कि इसमें अच्छा-ख़ासा माल है।

इस बाबा का भगवान भला करे। इसने मुझे पिछले कमरे में घुसा दिया और स्वयं गुंडों का मुकाबला करने के लिए दुकान पर डट गया। इसने उन लोगों को बहुत समझाया, परंतु उनका यही कहना था कि ट्रंक हमारे हवाले कर दो तो हम चले जाते हैं।

अंतत: जब वे न माने, तो इसने उबलते दूध के प्याले भर-भर कर उन पर फेंकने शुरू किए। एक बार तो वे भाग खड़े हुए परंतु जब उन्होंने देखा कि दूध की कड़ाही खाली हो गई है तो वे फिर लौट आए।

दूसरी बार उसने चूल्हे से आग और गर्म राख निकाल-निकाल कर उन परफेंकनी शुरू की। कईयों का मुँह, सर और कपड़े झुलस गए, परंतु इससे उनका जोश और भी बढ़ गया। जब चूल्हा भी खाली हो गया और बाबे के पास और कोई हथियार न रहा तो वे सभी दुकान पर आ चढ़े और ‘क़ाफ़िर, क़ाफ़िर’ कह कर बेचारे को आड़े हाथों लिया और मार-मार कर कचूमर निकाल दिया बेचारे का।

फिर वे गुंडे मेरी ओर बढ़े, परंतु मैंने भीतर से कुंडी लगा ली थी, उन्हें दरवाज़ा तोड़ने में काफ़ी समय लगा। इतने में ‘पुलिस आ गई’ का शोर मच गया और सभी जिधर रास्ता मिला भाग गए।

बाबा लहुलुहान हुआ पड़ा था। सेवा समिति वालों ने उसे स्ट्रेचर पर डाला। मैं भी अपना ट्रंक उठाए बाबे के साथ ही यहाँ अस्पताल चली आई। दिन में कई बार सेवा समिति वाले आपको घर और दुकान पर ढूँढने गए, परंतु आपका कुछ पता नहीं चला। सतवंत कौर की बातें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैंने बेहोश पड़े बाबा के पाँवों पर श्रध्दापूर्वक कई बार माथा टेका।

दूसरे दिन सुबह बाबा को होश आया। उसके मुँह से पहला वाक्य निकला - ‘ज़ैना! पुत्तर तू कहाँ है ?’

थोड़ी देर बाद उसकी चेतना पूरी तरह लौट आई और खुद-ब-खुद सारी बात उसे समझ आ गई। हम दोनों उसके पाँवों पर सर रख कर उसका शुक्रिया अदा करने लगे। बाबा ने प्यार से हमें रोकते हुए कहा - ‘सरदार जी! मैंने आप पर कोई अहसान नहीं किया। जैसी मेरी ज़ैना बिटिया वैसी ही ये परंतु सरदार जी अल्लाह के वास्ते उसे यहाँ ले आईए। अकेली मर जाएगी। यदि बेचारी की माँ ज़िंदा होती तो भी वह किसी तरह मेरे बाद पल जाती। अब कौन उसे....।’ कहते-कहते बाबा रोने लगा।

उसके बताए पते से जाकर हम ज़ैना को ले आए। वह उस समय दस साल की रही होगी, बेहद भोली-भाली। चाहे रो-रोकर वह बेहाल हुई पड़ी थी, परंतु पिता के गले से लग कर उसका आधा दु:ख समाप्त हो गया।

सवा महीना अस्पताल में रखने पर भी हमने जब बाबा की हालत में कोई सुधार न देखा तो हम उसे अपने घर ले आए। भीतरी चोटों ने उसकी कमर को नकारा कर दिया था। सीने की चोटें भी गंभीर थीं।

घर आकर ज़ैना हमारे साथ इस तरह घुल-मिल गई मानो हमारे घर पैदा र्हुई और परवरिश पाई हो। वह हमें बड़ी प्यारी लगती। सतवंत कौर को तो मानो कोई खज़ाना ही मिल गया हो। कभी हमारी भी तीन साल की एक बेटी थी, जिसे भगवान ने हमसे छीन लिया था। हमें यही लगता था कि भगवान ने हमारी खोई हुई वस्तु हमें लौटा दी है। हम पल भर के लिए भी ज़ैना को आँखों से ओझल न होने देते थे।
चारपाई पर पड़े-पड़े बाबा हमें ज़ैना से प्यार करते देखता था तो खुशी के मारे उसकी आँखों में आँसू आ जाते। बहुत से डॉक्टर बदले पर बाबा की हालत में कोई सुधार न हुआ। अचानक ही उसके सीने से खून आने लगा और उसकी हालत बिगड़ती ही गई। अंतत: एक रात वह ज़ैना का हाथ सतवंत के हाथ में दे शांति, तसल्ली और बेफिक्री से इस दुनिया से विदा हो गया।

दूसरे दिन एक सिक्ख के घर से मुसलमान का जनाज़ा पूरी तरह मुस्लिम रीति-रिवाज़ से निकलते देख सारा गली-मुहल्ला प्यार के आँसू बहा रहा था।उसी दिन से मैंने ज़ैना के लिए एक हाफ़िज़ मौलवी उस्ताद रख दिया जो दोनों वक्त आकर उसे क़ुरान शरीफ़ पढ़ाता था।

अब ज़ैना की उम्र पंद्रह वर्ष है और सारा क़ुरान शरीफ़ उसने इन पाँच बरसों में कंठस्थ कर लिया है। एक ख़ानदानी मुसलमान से उसकी सगाई हो चुकी है और आज से चौथे दिन उसका निक़ाह होने वाला है। शादी भले ही मुस्लिम शास्त्र के अनुसार होगी, परंतु बारात में हिंदु, सिक्ख, मुसलमान सभी आएंगे।

ज़ैना के दहेज़ की तैयारी में हमने कोई क़सर नहीं छोड़ी पर यह क़ुरान शरीफ़ ज़ैना को बहुत प्यारा है। इसी को उसका पिता पढ़ा करता था और इसी से ज़ैना ने तालीम हासिल की है। इसी लिए मैं इसे बढ़िया सी जिल्द बंधवाकर उसके दहेज़ में देना चाहता हूँ।

ख़ैरदीन दफ्तरी और उसके कर्मचारियों ने मानो पत्थर के बुत बन कर सारी बात सुनी। उन्होंने अदब से सर उठाया और आँसू पोंछे। किसी-किसी ने आहें भी भरीं और फिर अपने-अपने काम में जुट गए।

जिल्द समय पर बाँध देने की पक्की बात करके रुमालों को लपेट कर जेब में डालते हुए करम सिंह अपने रास्ते चल पड़ा।

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