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रविवार, जनवरी 28, 2024

कहानी श्रृंखला - 40 (बांग्लादेश से बांग्ला कहानी) – मेरी माँ वेश्या थीं - मुजफ्फर हुसैन अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’

     


 साभार - विभोम स्वर पत्रिका,  जुलाई-सितंबर, 2023

                  

      लोग मेरी माँ को वेश्या कहते थे। क्यों, पता नहीं। माँ को कभी पर-पुरुष के साथ सोते नहीं देखा। सोचा कि देर रात को कोई आता होगा। मुझे नींद बहुत सताया करती थी हमेशा से। नींद और भूख दोनों बारी-बारी से परेशान करती थीं। चूँकि बहुत कोशिशों के बावजूद मैं किसी रात को जगा नहीं रह पाया। मेरे पिता का कोई रोज़गार नहीं था, अत: माँ मध्यरात्रि को कुछ करती होंगी तो कह नहीं सकता। इस बारे में हमारे घर में बहुत ज़्यादा बात नहीं होती थी। एक बार बड़ी बहन से पूछा था – क्या, माँ वेश्या है?’

      बड़ी बहन ने डाँट कर कहा था, आचू दा, किसी की माँ वेश्या होती है क्या?’

      तो लोग जो कहते हैं?’

      लोग अपनी माँ को वेश्या नहीं कहते। हमारी माँ को कहते हैं न, हमारी माँ तो उनकी माँ नहीं लगती न?’

       बहुत गड़बड़ मामला है। बड़ी बहन की इस बात यह समझ नहीं आया कि माँ वेश्या है या नहीं लेकिन बड़ी बहन वेश्या है यह मुझे मालूम है। लेकिन उसे कोई भी वेश्या नहीं कहता। जिनके कहने की बात है, उनमें से बहुतों के साथ बहन की बहुत अच्छी बनती है। आधी रात को बुलावा आता है, मुझे कभी-कभार जगा कर साथ ले जाती है। नींद के आगोश में ही जाता और आता हूँ। सुबह होने पर याद नहीं रहता कि कहाँ गया था, गया भी था क्या? या सपना देखा, यह भी समझ नहीं आता। सुनिश्चित करने के लिए एक दिन बड़ी बहन से कहा भी था, रात को क्या तुम मुझे कहीं ले जाती हो?’

      तुझ जैसे रात के अंधे को क्यों ले जाऊँगी भला? मुझे लोगों की कमी है क्या?’ वह ऐसा जवाब देकर टरका देती है। सपना ही देखता हूँ, यही मान लिया था। लेकिन एक दिन नींद का असर कम हो गया था। बड़ी बहन ने मुझे मस्ज़िद में पंखा चला कर बैठने को कहा। नींद आए तो सो जाने को। उसके बाद वह मस्ज़िद के पीछे मोल्लाबाड़ी के भीतर चली गई। इद्रिस मोल्ला की बीवी ने दरवाज़ा खोला। चांदनी में मैंने स्पष्ट देखा। इद्रिस मोल्ला मुहल्ले के कुछ और लोगों को लेकर छत के चौबारे पर गया था। मुझे भी ले जाना चाहा था, वेश्याबाड़ी का लड़का होने के कारण दूसरों ने आपत्ति की थी। सपना ही मान लेता लेकिन तड़के अजान के लिए आए बिल्लाह हुजूर ने मुझे जगा दिया। घर आकर देखा कि बड़ी बहन तख्तपोश पर पड़ी खर्राटे ले रही थी।

                                   

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माँ के साथ मेरी बहुत बनती नहीं थी। अभावों की गृहस्थी, तिस पर मेरा आवारा बाप माँ के गर्भ में बार-बार बीज-वपन करता। गृहस्थी का आकार बढ़ता जा रहा था हर साल, भोजन का संकट भी बढ़ रहा था। मैं उनकी दशम् संतान था। 11वीं संतान पैदाइश के तीसरे दिन गुज़र गई थी। महीनों गर्भ में रह कर भी पुष्ट नहीं हो पाई थी वह संतान।

बाड़ी के नाम पर जो था तीन खाँचों का कबूतरखाना। यद्यपि आस-पास जगह की कमी नहीं थी फिर भी स्वप्न साहब के पिता की दयालुता ही थी हमारे प्रति कि जिनका ऋण माता-पिता भले ही न चुका पाए हों लेकिन काफ़ी हद तक मेरी बहनों ने बराबर कर दिया था।

एक कमरे में मैं, माँ–पिता और दो भाई बहन रहते थे। कभी-कभी मध्य रात्रि को पिता माँ को लात मार कर उठ जाते और हर दिन माँ को समझौता करना पड़ता। वैहाहिक रिश्ते में मुहब्बत न भी हो तो भी चलता है। विज्ञान कहता है कि संतान के जन्म के लिए मुहब्बत की ज़रूरत नहीं होती। बलात्कार करने पर क्या गर्भ नहीं ठहरता?’ दरअसल हम सभी एक-एक बलात्कार का ही तो चरम परिणाम थे। इसलिए कोई भी स्वस्थ नहीं था। मन से, शारीरिक रूप से कोई न कोई कमी तो थी ही। वर्ना अक्सर ही सो रही माँ को जगाने में असमर्थ पिता मंझली बहन के काँथा (ओढ़ने की मोटी चादर) में घुस जाता था। मंझली बहन को तो बाधा देते या कुछ कहते नहीं देखा। तलाकशुदा बहन जब गर्भवती हुई, माँ ने तब कहा था- तेरे बाप का भी हो सकता है, गिरवा दे। बहन ने तब चिल्ला कर कहा था – कौन मेरा बाप? मैं जब गर्भ में थी, बाप तब जेल में था। मुझे पता नहीं क्या? मेरा असली बाप कौन है, तुम खुद भी नहीं पता पाओगी। इसके बाद उसने दृढ़ता से कहा था – यह गर्भ मैं नहीं गिराऊंगी। तुमने तो मुझे नहीं गिराया?  गिरा देती तो पिंड छूटता। तूने जब मुझ पर दया नहीं दिखाई तो मैं क्यों दिखाऊँ? मेरा तन और कितने दिन है? तुम्हारी तरह किसी को पेट में न धरने पर मुझे खिलाएगा कौन?’

इसके बाद सचमुच मंझली बहने के लड़का हुआ। ससुराल में थी तो उसके एक लड़की हुई थी। पड़ोस के गाँव से मध्यवय का एक नाटा सा आदमी हमारे घर आता था। सिर्फ़ कुछ दिन आने के बाद मंझली बहने को ब्याह कर ले गया। एक साल गुज़रने के बाद संतान होते ही संतान को अपनी पहली पत्नी के हवाले कर मेरी मंझली बहन को घर से निकाल दिया। तब से उसे संतान का शौक था लेकिन इस बार लड़के को नहीं बचा पाई। तीन दिनों के भीतर चटाई से बने कमरे के टूटे हिस्से से घुस कर सियार उठा ले गया।  जब तक उसे ढूंढ पाए, तब तक शरीर का आधा हिस्सा ही बचा था। इसके बाद रो-रो कर मेरी बहन पागल हो गई। रात-रात भर जंगल में सियारों को दौड़ाती फिरती। एक दिन सुबह जंगल में उसकी रक्तरंजित लाश मिली। सियार नहीं, इंसान का कारनामा था।

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दिव्यांग होने के कारण संझली बहन की शादी नहीं हुई। बुद्धि-वुद्धि है, लेकिन थोड़ा इधर-उधर होती रहती है। वेश्याबाड़ी की लड़कियों की बुद्धि थोड़ी कम होने पर भी चल जाता है। समस्या यह थी कि उसके मुँह से लगातार लार गिरती रहती थी और शरीर से गंदी बदबू आती थी। इसलिए वह गृहस्थी के किसी काम न आ सकी। पिता ने नशे के लिए दो-तीन लोगों से रुपए लेकर उनके घर में सेट कर दिया था। लेकिन बात बनी नहीं। संग-संग वहाँ से निकल आई। मुझे उस पर बहुत दया आती थी। जिस घर में रात-दिन लोगों की आवा-जाही केवल तन के लिए होती हो, उसी घर में मेरी अब्याहता बहन अतृप्त रह गई। एक दिन गुसलखाने से निकल कर और न सह पाते हुए मुझसे लिपट कर कहा – देख भाई सुगंधित साबुन से बहुत देर तक मल-मल कर नहाया है। न हो तो नाक पर कपड़ा बाँध दूँ?’ मैं खुद को उसके बाहुपाश से मुक्त करवाने की कोशिश करता हूँ। उसके शारीरिक बल के समझ मैं ऐसा नहीं कर पाया। मेरी लुंगी की गाँठ खोल कर उसने देखा कि सतरह-अठारह वर्षीय एक तन में आठ-नौ साल के शिशु का यौनांग झूल रहा है। जिस तन में यौनेच्छा न जागृत होती हो उसके गुप्तांग को यौनांग कहा जा सकता है कि नहीं मुझे नहीं मालूम। इसके बाद मुझसे लिपट कर वह रोती रही। तुम तो फिर भी बच गए। मेरा क्या होगा? मेरा तो अचल नहीं है। इस वेश्याबाड़ी में मुझे कोई नहीं मिला रे कह कर रोते-रोते अपने आँसुओं की धारा और अपनी लारों से मुझे भिगो दिया।

 

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      अक्सर लगता है कि जैसे अभी कल की ही बात हो। मेरी छोटी बहन, तब उसकी उम्र बारह या तेरह होगी। जिस घर में काम करती थी, उस घर के उच्च शिक्षा समाप्त कर लौटे स्वप्न साहब, जिनके नाम पर अपना नाम होने का मुझे बहुत फख़्र होता था, बीस रुपए का लोभ दिखा कर मेरी बहन को बिस्तर पर ले गए। दरवाज़े के इस पार बैठा मैं बीस रुपयों में क्या – क्या खरीदा जा सकता है यह सोच-सोच कर बावला हुआ जा रहा था। उसके बाद जब वह कमरे से निकली तो उसका पाजामा रक्तरंजित था। उसी हालत में हम दौड़े-दौड़े गए बटतला मोड़ के बाज़ार में।  निरंतर रक्त स्त्राव होते-होते सात दिनों में ख़त्म हो गई वह। याद आता है, बीस रुपयों में जी भर कर उस दिन बहुत कुछ खाया था। मैंने एक लट्टू खरीदा था। उसने साड़ी वाली गुड़िया खरीदी थी। मैं गुड़िया को कब्र में उसके साथ सुलाना चाहता था परंतु हिम्मत करके किसी से कह नहीं पाया। तीन दिनों बाद मैं जाकर कब्र के एक कोने की मिट्टी हटा कर गुड़िया को दबा आया था। इसे लेकर भी क कांड हो गया। कई दिनों बाद सियार के कब्र खोदने पर वह गुड़िया बाहर निकल आई थी। ऐसी ख़बर फैल गई कि मेरी बहन खुद कब्र से निकल कर घर से गुड़िया ले गई है। मेरी माँ के अनुसार उसने भी उसके साये को घूमते फिरते देखा था। इसके बाद कुछ रातों के लिए हमारे घर पर ग्राहकों का आना कम हो गया। हिम्मत जुटा कर किसी को भी मैं सच नहीं बता पाया। लगता भी नहीं कि बताने पर कोई विश्वास कर ही लेता।  लेकिन सबसे ज्यादा मज़ा तब आया था जब जब उसके कब्र से निकल आने की अफवाह सुन कर डर के मारे कुछ दिनों के लिए स्वप्न साहब ने गाँव छोड़ दिया था।

 

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       मुझे भाई-बहनों की कमी नहीं थी। जबकि अंत में यही कमी सभी कमियों से बढ़ कर हो गई। दिव्यांग बहन ने आत्महत्या कर ली। मुझसे लिपट कर रोने-धोने के पंद्रह दिनों बाद। घर पर रात-दिन इतने लोगों की आवा-जाही लगी रहती थी कि आत्महत्या करने का चारा नहीं था, इसीलिए रात को घर के पिछवाड़े में आम के बगीचे में एक पेड़ से अपने तन की साड़ी फंसा कर फंदे से झूल गई थी। बस तन पर केवल पेटीकोट था। सुबह लाश उतारते समय उन्मुक्त उरोज़ देख कर दो-चार लोग उसके उरोज़ों के बारे में फुसफुसा रहे थे। दो जनों की बातें सुनाई दीं –

       अगर पता होता कि इसके पास ऐसा माल है, तो साँस रोक कर ठोक ही देता। दूसरे ने कहा – अभी भी मौक़ा है। देखो लाश को धुलने के लिए देते हैं या नहीं।


       संझली बहन की आत्महत्या में मेरा कोई हाथ नहीं था। फिर भी खुद को अपराधी सा महसूस करता। बड़े दो भाई डकैतों के गिरोह में शामिल होने के छह माह के भीतर ही मारे गए।    बड़ा भाई मारा गया भीड़ की धुनाई से। डकैती डालने गए, पकड़े जाने पर लोगों ने धुन-धुन कर पहचाने लायक भी नहीं छोड़ा। मुझे अभी लगता है कि तीन जनों में से जिसे हमने बड़ा भाई मान कर लाकर कब्र के हवाले किया था, वह हमारा भाई नहीं था। भाई की जाँघ पर कटे का निशान था जो मैंने दूसरी लाश पर देखा था। लेकिन माँ ने पहले ही जिस लाश को देख कर रोना शुरू कर दिया पुलिस ने वही लाश बैलगाड़ी पर लाद दी थी। अपने हिस्से की एक लाश मिलने से ही मतलब था, इसीलिए मैंने कुछ  नहीं कहा। मंझले भाई को उसके गिरोह के लोगों ने ही मारा था।  डकैती के माल के बंटवारे को लेकर समस्या हुई थी। कोई कहता है कि बड़े भाई की मौत के बाद वह डकैती का काम छोड़ना चाहता था। तथ्यों का पर्दाफाश हो जाने के डर से उन्होंने माल के बंटवारे का ड्रामा रच कर उसे मार दिया। संझला भाई जेल में हैं। बॉर्डर से गऊओं की तस्करी करके लाता था। इसके बाद गऊएं छोड़ कर बोतलें लाने लगा। छोटी चीज़ पर रिस्क कम और लाभ ज़्यादा था। बी एस एफ की गोली लगी दो-दो बार। एक बार कान पर लगी और दूसरी बार जाँघ के माँस पर। एक दिन तड़के दौड़ते-दौड़ते घर आया। माँ के रूदन का स्वर सुनाई दिया। उठ कर देखा कि उसका एक कान झूल रहा था। जीवन की माँ को...... कहकर उसने खुद ही कान खींच कर अलग कर दिया। माँ कटा कान हाथ में लिए रोती रही और वह कपड़े से रक्तारंजित कान दबाए चालान पता करने चला गया। इसके बाद हमें कुछ भी पता नहीं चला। कुछ दिनों बाद लंगड़ाते-लंगड़ाते आया, कहा कि पैर में गोली लगी है। इसके बाद थाने से बुलावा आया - दो-तीन लोगों की गिरफ्तारी दिखानी होगी। ऊपर से दबाव है, लेकिन थाने के भीतर ही रह कर पता नहीं कैसे खून के मामले में फंस गया। हमारा एकमात्र छोटा भाई बच गया। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल था। इसके उसके घर रहकर गाँव वाले स्कूल की पढ़ाई पूरी कर शहर चला गया और फिर लौट का नहीं आया। और रह गया मैं।


       माँ भी गुज़र गई पेट दर्द से। उसका जनाज़ा नहीं निकला। नए हुजूर ने कहा – वेश्या के जनाज़े में जो शिरकत करेगा वह बिना फैसले के ही दोजख की आग में जलेगा। कोई नहीं आया। समाज के कब्रिस्तान में खाक़-ए-सुपुर्द की इजाज़त लेने गया पिता खाली लौट आया। माँ के शव के पास बैठ कर फूट-फूट कर रोना शुरू किया। माँ की मौत सहन करते हुए भी पाखंडी पिता का रूदन मुझसे सहा नहीं गया।


       घर के अलावा हमारे पास और कोई जगह नहीं थी कि जहाँ माँ को सुपुर्द-ए-खाक किया जा सके।  दूर एक नदी है वह भी सूखी है, वर्ना बहा दिया जाता। शव से दुर्गंध आती देख पिता ने रात को ही आँगन खोदना शुरू किया। मैंने भी कुदाल उठा ली। बहुत गहरा गड्ढा खोद कर माँ को सुपुर्द-ए-ख़ाक़ कर दिया गया। तब मेरी उम्र बीस या इक्कीस थी। पिता ने फिर ब्याह कर लिया। गृहस्थी की इतनी कमियों को सहन करते हुए वे इस एक नुकसान को सहन न कर पाए थे। लगभग मेरी हमउम्र एक युवती को घर ले आए। आमदनी-रोज़गार कुछ भी नहीं था पिता का। नशा कर-कर के तन भी खोखला हो गया था। सौतेली माँ जब समझ गई कि तन होते हुए भी मैं अक्षम हूँ तो, मुझे घर पर रहने नहीं दिया गया। पीछे दादी का कमरा था। मैं उसी में रहने लगा। अस्सी वर्षीया वृद्धा, अभावों की गृहस्थी में उसकी इस दीर्घायू होने की मुझे कोई वजह समझ नहीं आती थी। कभी-कभी लगता कि तकिया दबा कर बुढ़िया को मार डालूं। न मार कर अच्छा ही किया। मुझे एक आश्रय मिल गया। दादी ने मरने से पहले पुलाव खाना चाहा था। पिता ने परवाह नहीं की। प्राय: ही दादी स्वपन साहब की रसोई के पिछवाड़े जाकर बैठी रहती पुलाव की सुगंध सूंघने के लिए। बैठे-बैठे ही एक दिन उठ नहीं पाई।


        दादी की मृत्यु के बाद पिता की भी मृत्यु हो गई। उम्र और बीमारी सब ने धावा बोला। पिता के जनाज़े में समस्या नहीं हुई। पुरुष वेश्या नहीं होता। होता तो मुझे अकेले ही आँगन में मिट्टी खोदनी पड़ती। चाहता था कि जनाजा  भले हो न हो, दस लोग मिल कर मिट्टी जरूर दें। प्रसन्नता की बात है कि सब कुछ अच्छी तरह संपन्न हो गया। मुझे कुछ नहीं करना पड़ा।


       एक इतना बड़ा परिवार देखते ही देखते कैसे ख़त्म हो गया।  मेरे ज़िंदा रहने, न रहने का कोई मतलब नहीं। मुझसे वंशवृद्धि नहीं होगी। लेकिन इतना समझ गया हूँ कि वेश्याबाड़ी की लड़की के बजाय पौरुषहीन पुरुष बनकर जन्म लेना अधिक श्रेयस्कर है। अनेक असुविधाओं के होते हुए भी सुविधा है। कम से कम ज़िंदा तो रहा जा सकता है। मृत्यु के बाद जनाज़े से वंचित नहीं होना पड़ता।


       आँगन में सो रही है माँ। एक कमरे में मैं, बाकी कमरे खाली रहते हैं।  रात गहराने पर कमरे से बाहर निकल कर आता हूँ, मेरा बहुत जी चाहता है, अकेली माँ के बगल में लेटने को। बहुत पाप करने को जी चाहता है – वेश्या का पाप ।

 

 

 

 

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                           लेखक परिचय

 

मुजफ्फर हुसैन

मुजफ्फर हुसैन बांग्लादेश के समकालीन साहित्य में एक चर्चित और लोकप्रिय कहानीकार हैं। अंग्रेजी भाषा और साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उन्होंने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। वर्तमान में बांग्लादेश की राष्ट्रीय संस्था, बांग्ला अकादमी में अनुवाद अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। मुख्य रूप से कथा साहित्यकार। अनुवाद और आलोचनात्मक साहित्य में विशेष रुचि।

अपने उपन्यासों और लघु कथाओं के लिए बांग्लादेश के राष्ट्रीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से समादृत। उपन्यास के लिए 'काली ओ कलम साहित्य पुरस्कार' तथा कथा लेखन के लिए अन्योदिन हुमायूं अहमद कथा साहित्य पुरस्कार, अबुल हसन साहित्य पुरस्कार, बैशाखी टेलीविजन पुरस्कारऔर अरनी कहानी पुरस्कार प्राप्त।  कहानियां अंग्रेजी, नेपाली, इतालवी और स्पेनिश में अनूदित। कहानी संग्रह, निबंध, अनुवाद और संपादन सहित कुल 25 पुस्तकें प्रकाशित

 

 

अनुवादक   

 

नीलम शर्मा अंशु

 

पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला से पंजाबी में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक अनुवाद। कुल 20 अनूदित पुस्तकें प्रकाशित।  अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन।

विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली कोलकाता शहर की ख्यातिप्राप्त महिलाओं पर 50 हफ्तों  तक राष्ट्रीय दैनिक में साप्ताहिक कॉलम लेखन।

 

24 वर्षों से आकाशवाणी के एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी। भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्सीयतों पर आज की शख्सीयत कार्यक्रम के तहत् 75 से अधिक लाइव एपिसोड प्रसारित।

     

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