साभार - कलम हस्ताक्षर पत्रिका (इन्दौर) दिसंबर- सितंबर, 2023
हम में से बहुतों ने शेरशाह सूरी का नाम सुना होगा,
परंतु बहुत कम लोग इस बात से परिचित होंगे कि उसके बाप-दादा होशियारपुर के निकट
बिजवाड़ा के रहने वाले थे, जहाँ तत्कालीन सुल्तान इब्राहिम लोदी ने उन्हें कुछ
जागीर दे रखी थी। फिर सुल्तान ने शेरशाह के पिता हसन खान को बिहार का एक परगना
जागीर के तौर पर दे दिया। वृद्धावस्था में वह एक खूबसूरत नवयुवती के ब्याह कर अपने
घर ले आया। शेरशाह जिसका वास्तविक नाम फरीद खान था, एक लायक और होनहार व्यक्ति था।
उसकी सौतेली माँ उससे डाह करने लगी। घर में बढ़ते जा रहे कलेश को समाप्त करने के
लिए हसन खान ने फरीद खान को कहीं दूर आठ-दस गाँवों की जागीर देकर घर से निकाल दिया।
फरीद को
गाँव में आया देख गाँव के सरपंच ने एक खाली पड़े घर की सफ़ाई करवा दी। खाने-पीने,
रसोई आदि के सामान के अलावा गाँव की एक महिला को उसके घर की साफ़-सफ़ाई, खाना
पकाने और घर के अन्य कामों के लिए भेज दिया।
अपनी
आदतानुसार वह सुबह जल्दी उठ जाता, कसरत
करता, खेतों की पग़डंडियों पर दौड़ लगाता, घर के इर्द-गिर्द झाड़ी में तब्दील हो
गए बगीचे गी सफ़ाई करके कुदाल या खुर्पी से क्यारियां बनाता। फिर कुएं पर जाकर,
पानी निकाल कर अच्छी तरह नहाता। उसकी घरेलू सहायिकका खोरी आकर कहती, ‘हुजूर! आप क्यों हाथ-पैर गंदे
करते हैं। यहाँ बहुत से खाली लड़के-लड़कियां घूमते-फिरते हैं।’ परंतु फ़रीद हँसते हे
मिट्टी सने हाथों से उसके गालों को छूते
हुए कहता, मुझे मिट्टी का स्पर्श, मिट्टी की खुशबू अच्छी लगती है।
जब एक
दिन फरीद ने उसे कुछ बचा-खुचा खाते देखा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा इनके
लिए जाति की तुलना में भूख और गरीबी ज़्यादा महत्वपूर्ण है। गाँव में एक छोटा सा
मंदिर भी था। रात को करताल...., और घंटियों और आरती की आवाज़ सुनाई देती परंतु
खेरी के मुँह से उसने कभी मंदिर या आरती का बात नहीं सुनी थी, न ही उसे कभी मंदिर
जाते देखा था।
अंतत: एक दिन उसने अपनी उत्सुकता को को विराम देने के
लिए पूछ ही लिया – खेरी चाची एक बात बताओ। तुम तो हिंदु हो और किस जाति से हो ? तुम्ही जाति
जो भी हो, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।’
फ़र्क
मुझे भी नहीं पड़ता क्योंकि हिंदु जाति से मेरा कोई संबंध नहीं। हम संथाली हैं,
बनवासी। हमारे देवता तो वृक्ष हैं, नदियां, झरने और चट्टानें।
खैरी
लगभग पैंतालीस-पचास की अधेड़ महिला थी। आधे से ज़्यादा बाल सफेद थे। सारा काम
धीरे-धीरे करती। फिर एक दिन फरीद जब अपने खेतों और गाँव का चक्कर मार कर घर आया तो
उसने देखा कि उसका घर पहले से कहीं अधिक साफ़-सुथरा था, जिस बिस्तर को वह
गुच्छा-मुच्छा छोड़ गया था वह भी अच्छी तरह बिछा हुआ था। कपड़े भी धोकर रस्सी पर
टंगे थे। जबकि पिछले दो दिनों से खैरी आई
ही नहीं थी।
कुछ देर बाद उसने देखा कि एक दुबली-पतली, साँवली
सी युवती सप पर पानी का घड़ा लिए उसकी तरफ़ आ रही थी। एक हाथ से घड़े को थाम रखा
था और दूसरे नीचे लटका हुआ था।
दोनों हाथों में चांदी के कड़े।
फरीद को देख घड़े को थाम रखा हाथ छोड़ दिया और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। तो पल भर
के लिए सर पर रखा घड़ा डगमगा सा गया। परंतू तुरंत उसने संभाल लिया।
‘क्षमा ! क्षमा !’ माँ की तबीयत ठीक
नहीं है। मैं आ गई हूँ।
हूँ। फरीद ने गौर से उसकी तरफ
देखा। बाल बिखरे से, चपटी सी नाक में एक मोटा सा लौंग। मटमैला से चेहरा, मानो कई
दिनों से नहाई न हो। घर के भीतर जाकर लड़की ने घड़े को यथास्थान रखा और फरीद के
लिए एक गिलास पानी ले आई।
हूँ। तो तुम्हारा नाम महुआ है।
फरीद ने एसे कहा जैसे महुआ को देख उसे निराशा हुई हो।
जवाब में वह धीरे से मुस्कुराई। फिर कहा, मैंने
गुड़ वाले मीठे चावल बनाए हैं। दही मैंने सुबह आकर जमा दिया था, अब तक जम गया
होगा। कहें ते परोस दूं ?’
बात-चीत से समझदार
परंतु दिखने में वह चौदह-पंद्रह वर्षीया लग रही थी। बाद में पता चला कि वह
उन्नीस-बीस बरस की है। छुटपन में ही मंगनी हो गई थी। पति कहीं बाहर कमाने गया था। कई बरस हो गए, वापिस नहीं लौटा था।
‘यही रसोई जान पड़ती है, घी-तेल नहीं
है।’
‘तुम फ़िक्र मत करो, मैं पटवारी से
कह कर मंगवा लूंगा। तुम्हारी माँ को क्या हुआ ?’
‘बुखार और पेट दर्द। जब
तक वह ठीक नहीं हो जाती, मैं ही आया करूंगी ।’
उसके बाद महुआ ही उसके
घर का काम करने और खाना बनाने आती रही। फरीद ने देखा कि उसके काम में सुघड़ता है,
फुर्ती है और खाना भी स्वादिष्ट बनाती है। माँस-मछली भी पकाना जानती है।
‘ऐसा खाना बनाना तुमने कहाँ से सीखा ?’
इससे पहले मैं मुकद्दम (प्रधान) के घर काम करती थी। उसकी बीवी ने सिखा दिया। अब जो नया मुकद्दम आया है
न उसकी बीवी बहुत नखरीली है। किसी का काम उसे पसंद नहीं।
चलो अच्छा हुआ – मेरे लिए तुम ही
आया करो। फिर उसके दुबले-पतले तन की तरफ देख कर बोला – जो कुछ भी मेरे लिए पकाओ,
उसी में से खुद भी खा लिया करो। देखो तो कैसी सूखी हुई हो, बाँ सी भाँति। मानो हवा
से उड़ जाओगी।
नहीं उड़ती हुजूर। हड्डियां बहुत
मजबूत होती है हमारी।
धीरे-धीरे घर का माहौल ही नहीं
महुआ के तन में भी बदलाव आने लगा। फरीद ने उससे कह दिया था कि खाना ज़्यादा बना लिया करे। खुद भी खाए और अगर
बच जाए तो घर भी ले जाए। पहनने के लिए कुछ नए कपड़े भी ला दिए। शरीर भर गया। पहले
काले दिखाई देते होठों पर लाली आ गई थी। घर में घूमती तो उसके पाँवों में पहनी
पाजेब छम-छम करती। फरीद को घर अच्छा लगने लगा। कभी-कभी वह सोचता – हमारे घर की
औरतों को सब कुछ प्राप्त है। काम करने वाली नौकरानियां। खुद बैठे-बैठे पलंग तोड़ती
रहती हैं। कभी दासियों से और कभी अपना शौहरों से झगड़ती रहती हैं। यह कैसे है ? यह चाहिए। जो मर्ज़ी ला कर दो,
संतोष नहीं। और ये दासियां थोड़ा सा भी दे दो तो खुशी से झूम उठती हैं।
एक दिन फरीद अपना चक्कर लगा कर
जल्दी लौट आया। घर के बाहर फूलों की क्यारी में पौधों को पानी दे रही महुआ की
आवाज़ कानों में पड़ी –
ई
वन केर कोने सो
एगो नदिया जो बहे ले
कहाँ जाथे ई धीरे-धीरे
फरीद के क़मों की आहट सुन कर वह
चुप हो गई। फरीद ने उसके पास आकर कहा- ‘बड़ी सुरीली आवाज़ है
तुम्हारी महुआ। क्या अर्ध है इस गीत का ?’
हल्का सा शरमाने और
मुस्कुराने के बाद महुआ बताने लगी – इसका अर्थ है :
‘वन के एक कोने से
एक छोटी सी नदी बहती है
कहाँ जाती है इस तरह धीरे-धीरे
चुपचाप अपना कथा कहते-कहते.... ’
‘वाह ! एक और सुनाओ।’
अच्छा, सुनाती हूँ। कह
कर महुआ ने अपने हाथ पोंछे और अपने जंगल, फूलों और पंछियों के गीत सुनाने लगी।
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फरीद सुबह स्नान करके
और मिस्सी रोटियां एक पोटली में बाँध कर चल देता। गाँव की झोंपड़ियों के सामने से
निकलता और बच्चों के सर पर स्नेह से हाथ फिराता। झोंपड़ी के सामने बैठी किसी
वृद्धा से बात करता। रास्ते में जो भी मिलता उसका हाल-चाल पूछता, खेतों में काम कर
रहे हलवाहों से साथ बैठ कर उनके सुख-दु:ख बांटता। अगर किसी का बैल मर गया होता तो बैल खरीद
देता, किसी के लिए बीज मुहैया करवाता, बीमार के दवादारू का प्रबंध करता।
दिन गुज़रते गए। फरीद को अपने
पितासे दस गाँव मिले हुए थे। फसल तैयार हो जाने के बाद फरीद पटवारियों, मुकद्दमों
को बुला कर अपना सामने निश्चित दर अनुसार लगान वसूल करता। पटवारियों, मुकद्दमों
द्वारा ज्यादा लगान वसूल करना बंद हो गया। रिश्वतखोरी भी बंद हो गई। बिहार के सुल्तान बैहर खान को भी पहले से ज़्यादा लगान पहुँच जाता। इसका एक
बड़ा कारण यह भी था किसानों और सुल्तान के बीच मुकद्दमे, चौधरियों द्वारा कम लगान
भी जमा करवाना बंद हो गया। फरीद के पिता हसन को भी पहले से ज़्यादा हिसाब पहुंच
जाता।
गाँवों के लोहार, किसान सभी बहुत खुश थे। फरीद को भी खुशी और संतुष्टि का अहसास हो रहा था। परंतु फरीद को इस सुख-शाँति के माहौल में ज़्यादा दिन रहना नसीब न हुआ। जब लोग हसन खान के पास आकर फरीद की तारीफ़ें करते कि वह अपनी रईयत में कितना लोकप्रिय हो गया है तो हसन खान की युवा पत्नी अमीना के दिल में हसद की चिंगारियां भड़क उठती। और जब हसद खान खुद ही कहने लगा कि फरीद ने अपनी काबिलियत से हरगने के इन गाँवों की पैदावार में वृद्धि के साथ-साथ लगान की वसूली में भी वृद्धि की है तो अमीना को यह भय सताने लगा कि हसन खान कहीं सारे परगने का प्रबंध ही फरीद को न सौंप दे। उस स्थिति में उसके अपने बेटों का क्या होगा ? वह हर तरह से फरीद के विरुद्ध हसन खान के कान भरने लगी। खूबसूरत थी, युवा थी। हसन खान से पूरे 25 बरस छोटी। अच्छी तरह समझती थी कि ऐसे व्यक्ति को काम-वासना द्वारा कैसे वश में किया जा सकता है ?
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पिछले दनों जब ठंड ज़्यादा बढ़ गई
तो महुआ जाने से पहले फरीद के कमरे में तसले में कोयले जला कर रख जाती। जाने लगती
दो फरीद ...... उसके कपोलों को दोनों हाथों में कस लेता। ‘हाथ बहुत ठंडे हैं आपके।’ कहते हुए वही हाथ पकड़ कर अपने
धड़कते सीने से लगा लेती। फिर घबरा कर एकदम से कमरे से निकल जाती। कभी फरीद खुद
उसकी कमरे के गिर्द बाँह डाल कर दरवाज़े से बाहर छोड़ आता। गर्म लोई उसके गिर्द
लपेट देता। फिर एक दिना ऐसा भी आया, जो आना ही था। फरीद ने उसकी कमर के गिर्द हाथ
डाल कर बाहर छोड़ने के बजाय उसे अपनी बाँहों में भर लिया। महुआ भी मानो अवचेतन तौर
पर इसी का इंतज़ार कर रही थी।
‘नहीं। यह ठीक नहीं। मैं भी औरों की भाँति इस महिला की गरीबी और एकाकीपन का फ़ायदा उठा रहा हूँ।’ यह सोचते ही वह महुआ से अलग हो कर खड़ा हो गया। महरुआ उससे अलग हो कर भावुकता और स्नेहिल निगाहों से उसे निहारती रही और अचाचनक ही वह फरीद को दुनिया की खूबसूरत महिला प्रतीत होने लगी। उसके अंतर्मन में छुपी इच्छाएं सागर में उफनती लहरों की भाँति छलक उठीं और उसने फिर से महुआ को अपने आगोश में ले लिया।
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फिर एक दिन हसन खान खुद
चल कर फरीद के पास आया और कहा –
‘फरीद पुत्तर, मैं जो
कुछ तुम्हें कहने जा रहा हूँ, वह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि सरासर नाजायज़ है।
तुम्हारी.... तुम्हारी उस माँ ने मेरा जीना हराम कर रखा है। तुम्हारी लियाकत हरी
तुम्हारे लिए बदकिस्मती बन गई है। तुम्हारा यह बूढ़ा बाप आज तुम्हारे सामने इलत्ज़ा
करने के लिए मजबूर है कि तुम मेरा परगना, यह गाँव छोड़ कर कही और चले जाओ।
जौनपुर का किलेदार अपने ही कबीले से है। दिल्ली में सुल्तान इब्राहिम लोधी है। अफ़गान है। हमारे परिवार को अच्छी तरह जानता है। तुम्हारे पास लियाकत हे, हिम्मता है। मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हें कहीं न कहीं कोई अच्छा ओहदा मिल जाएगा..... ’
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‘अब आप सचमुच चले जाएंगे ?’ महुआ ने फरीद की तरफ गौर से देखते हुए रुआँसे स्वर
में पूछा। ‘कोई बात नहीं, मैं जानती थी। यही
जीवन है हमारा। मुझे कोई शिकायत नहीं। मेरी कंटीली, सूखी बगिया में जो फूल खिले,
चाहे कुछ देर के लिए ही सही, वही बहुत हैं।’ परंतु उस अंतर्मन पुकार पुकार
कर कह रहा था- ‘मत जाईए, मत जाईए, या फिर मुझे भी
साथ ले चलें, अपने साथ.....’
कुछ देर तक वह फरीद के
सीने से सर टिकाए चुपचाप खड़ी रही।
फिर ख़ामोशी भंग करते
हुए फरीद ने कहा –
‘शादी कर ले किसी से। जो
चला गया, उसका इंतज़ार मत कर।’ उसका अभिप्राय: उसके मंगेतर से था।
‘हाँ, जो जा रहा है, उसके लिए आँसू बहाना बेकार है।’
फिर चुपचाप चारपाई पर
बैठ गई। आँखों से आँसू बहने लगे। वह कुछ कहना चाहती थी, परंतु समझ नहीं आ रहा थी
कि क्या कहे ?
कुछ देर वे दोनों अपने-आप में खोए रहे। फरीद, जिस ने कुछ दिनों बपाद शेरखान बनना था और फिर शेरशाह। और यह महुआ ! जिसके जीवन में तो मानो पूर्णविराम लग चुका था। और फरीद ? जिसका सफ़र तो अभी शुरू ही हुआ था।
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इसके बहुत दिनों के बाद, जब कभी
फरीद/शेर खान को अपने इन दिनों की याद हो आती तो उसे दूर अतीत के ये दिन अपने जीवन
के बेहतरीन, सुखद प्रतीत होते। इसका कारण वह समझ पाया या नहीं परंतु वास्तविकता यह
है कि उन दिनों सांसारिक सुख-सुविधाओं की बेशक कमी थी परंतु उसने यह कमी कभी अनुभव
नहीं की थी। मानसिक स्तर पर वह स्वतंत्र था। न भूत, न भविष्य की चिंता, न इच्छाएं,
न कामनाएं। जब यह सब न हो तो बहुत कम भी पर्याप्त होता है। कुध की खुदाई या कुदरत
का करिशमा यह कि उसने आदमी का भविष्य उतना धुंधला और रहस्यमय रखा है कि आदमी हज़ार
लाख चाहे तो भी कुछ नहीं कर सकता।
उसे तब
क्या मालूम था कि उसकी यह बेघरी महलों में और फ़कीरी हिंदुस्तान की बादशाहत में
बदल जाएगी।
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लेखक परिचय
मनमोहन
बावा
जन्म 18 अगस्त 1931 में अमृतसर ज़िले के वैरोवाल में।
पंजाबी के लब्ध-प्रतिष्ठित व वरिष्ठ रचनाकार, चित्रकार और नक्शानवीस।
07 कहानी संग्रह, 6 उपन्यास, 5 सफ़रनामे, आत्मकथा का
लेखन। चिट्टे घोड़े दा सवार, अजात सुंदरी, काला कबूतर, खानाबदोश बेगम, युद्ध नाद,
युग अंत, काल कथा, सादिक सुलतान – शेरशाह सूरी उल्लेखनीय पुस्तकें।
पुरस्कार – रुपिंदर मान स्मृति पुरस्कार, कुसुमांजलि
पुरस्कार, ओड़ीशा साहित्य अकादमी
पुरस्कार।
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