साभार - अक्षरा पत्रिका (भोपाल) सितंबर, 2023
दो दिन हुए पुष्पेन ऑफिस के काम से मुंबई आया है। ऑफिस से एक प्रशिक्षण पर। पहली बार वह कोलकाता से बाहर आया है। वह निम्न मध्यवर्गीय परिवार से है। बचपन से ही अभावों भरी गृहस्थी है। छोटे से व्यवसाय से जितनी भी पारिवारिक आय होती थी, कुछ वर्ष पहले पिता की अस्वस्थता की वजह से वह भी बंद हो गई थी। पारिवारिक संचय उसके बाद के वर्षों में पिता की चिकित्सा में लग चुका था।
उसी समय पढ़ाई के साथ-साथ प्राइवेट ट्यूशनें पढ़ाकर उसे गृहस्थी की गाड़ी भी खींचनी पड़ रही थी। उन संघर्ष भरे दिनों का असर अभी भी उस पर रह गया है। इसलिए वह अन्य लोगों की तुलना में अधिक विनम्र है। हमेशा दूसरों का ध्यान रखता है। उसे मालूम है कि इस जीवन के उत्थान-पतन से किसी भी समय सब कुछ बदल सकता है।
पढ़ाई में वह बहुत अव्वल था, इसलिए ज्वाइंट परीक्षा में पहली बार में ही इंजीनियरिंग में मौक़ा मिल गया था। वहीं से उत्तीर्ण होकर अभी कुछ माह पहले उसे नौकरी मिली है कोलकाता में। इसीलिए उसे विगत चार माह में कोलकाता से बाहर कहीं नहीं जाना पड़ा।
अब पहली बार इस विशेष प्रशिक्षण हेतु कोलकाता से बाहर आना हुआ है, मुंबई। जुहू के पास एक बढ़िया होटल में रुका है वह। ऐसे होटल में वह पहले कभी नहीं रहा। फोर स्टार होटल। इस स्तर के समकक्ष होटलों में भी कभी रुकने का मौका नहीं मिला। इसलिए एक तरफ जहाँ उसे खुशी भी हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ ज़रा बेचैनी भी।
रात बढ़ते ही होटल के पब में शोर-शराबा भी बढ़ना शुरू हो गया। ऐसे माहौल का पुष्पेन अभ्यस्त नहीं है। बेचैनी और बढ़ गई। उसने सुना है कि होटल के बहुत पास ही जुहू बीच है। समुद्र उसे बहुत अच्छा लगता है। वहाँ शांत माहौल होगा यही सोच कर वह उस तरफ बढ़ गया।
बीच तलाशने में ज़्यादा समय नहीं लगा। रात काफ़ी हो गई थी। दिन का उजाला लगभग ख़त्म हो गया है। एक काली स्याह चादर से मानो सब कुछ ढक सा गया है।
मोबाइल पर समय देखा। रात के दस बज रहे थे। बीच पर लोग है, पर कम हैं। पाव-भाजी, पापड़ी चाट पानीपूरी यह सब बिक रहा था।
उसने पहले समुद्र नहीं देखा है। बहुत साल पहले एक बार दीघा गया था। अभी भी याद है। बाद के कुछ वर्षों में पिता की स्वस्था, चिकित्सा – इन सब में वे सभी इतनी ही व्यस्त रहे कि कभी कहीं जाने की बात सोची ही नहीं।
वह अपने में मग्न समुद्र तट पर चहलकदमी करने लगा। पानी की तरफ काफ़ी आगे बढ़ आया। अब भी जहाँ खड़ा है, चारों तरफ सीपियां, काई जमे पत्थर बता रहे हैं कि यहाँ नियमित रूप से पानी आता है। इससे थोड़ी दूरी पर ही एक के बाद एक लहरें रेत पर उछल-उछल कर गिर रहीं हैं। रात की रोशनी में मानो पानी में एक साथ लाखों हीरे जगमगा उठे हों।
इन तरंगों की भी मानो अपनी एक भाषा है। घंटों रेत पर खड़े होकर लहरों की बातें सुनते-सुनते सब कुछ भुलाया जा सकता है।
- व्हॉट अ लवली नाइट, इजन्ट इट?
प्रश्न सुनकर पुष्पेन चौंक उठा।
एक युवती पास आ खड़ी हुई है। उसी ने यह सवाल किया था। काली जींस के ऊपर एक छोटा टॉप पहन रखा है। अच्छी ख़ासी लंबी। इस अंधेरे-उजाले में युवती का चेहरा अच्छी तरह दिखाई नहीं दे रहा है।
कौन है यह युवती? लगभग उसकी हमउम्र होगी।
अचानक उसे ध्यान आया कि आज जो प्रशिक्षण शुरू हुआ है, उसमें कुछ युवतियां भी थीं। उन्हीं में से ही शायद कोई है। पहला दिन होने के कारण अभी तक किसी से परिचय नहीं हुआ था। पुष्पेन खुद ही शर्मीले स्वभाव का है। आगे बढ़कर परिचय नहीं कर पाता। उतना ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया था उन पर।
वह कह उठा – हाँ सचमुच, रात के अंधेरे में समुद्र मानो अलग ही छटा बिखेर रहा है। मानो किसी ने हीरे के असंख्य टुकड़े पानी में चारों तरफ बिखेर दिए हों।
युवती अब हिन्दी में बोल उठी – सही कहा। परंतु पास जाते ही हीरे के टुकड़े गायब हो जाते हैं, बिलकुल हमारी तरह ही। दूर से जो हीरे जैसे लगता है, पास जाते ही साधारण सा लगता है।
पुष्पेन अच्छी हिन्दी ही बोल लेता है, यूनिवर्सिटी में उसका एक दोस्त था यू पी से। लखनवी घराने की विशुद्ध हिन्दी बोलता था। उसी से हिन्दी सीखी है।
हिन्दी और अंग्रेजी मिला कर वे बातें कर रहे थे।
युवती ने उसके साथ-साथ चलना शुरू कर दिया। अवश्य उसे जानती होगी। नहीं तो क्या आगे बढ़ कर पहल करके बात करती।
लेकिन परिचय पूछने में पुष्पेन को हिचक महसूस हो रही थी। निश्चित ही ऑफिस में मुलाकात हुई होगी। अभी पूछने पर पहचान न पाने की बात कहकर दोस्तों में हँसी उड़ाएगी।
ऐसा बादलोंरहित आसामान कम ही होता है। आज पूर्णिमा की रोशनी में चारों तरफ का दृश्य और भी सुंदर लग रहा है न? जैसे किसी ने रोशनी की चादर बिछा दी हो। ऐसे आकाश के नीचे खड़े होने पर हृदय के सारे मेघ उड़नछूं हो जाते हैं।
वे दोनों महीन रेत पर चलने लगे।
- मुझे इस महीन रेत पर चलना बहुत अच्छा लगता है और तुम्हें ?
युवती फिर बोल उठी।
- हाँ मुझे भी।
अगर हमारा जीवन ऐसा होता कि जिस रास्ते पर चले जा रहे हैं उस रास्ते का कोई चिहन् न होता, सब कुछ खो जाता, कितना अच्छा होता न। फिर से नई शुरूआत करते। कभी-कभी लगता है कहाँ से आए हैं, कहाँ जा रहे हैं.... सब झूठ है, सिर्फ़ इस चलते जाने का नाम ही जीवन है। जैसे अभी तुम्हारे साथ चल रही हूँ।
- तुम बातें बातें बहुत अच्छी करती हो। तुम क्या कविता लिखा करती थी। पुष्पेन पूछ बैठा।
- हाँ, अब भी लिखती हूँ। हिन्दी में। बहुत अच्छा लिखती हूँ, ऐसा भी नहीं है। दरअसल जो सोचती हूँ, वह सब लिख नहीं पाती। लेकिन यहाँ सुमुद्र तट पर आकर वे बातें कहने में डर नहीं लगता, क्योंकि सभी यहाँ केवल समुद्र की बातें सुनने ही आते हैं। मेरी बातें तब केवल मुझे तक ही रह जाती हैं। हिम्मत बढ़ जाती है।
- फिर कविताई जैसे बातें।
- यहाँ समुद्री हवा जो बातें करती हैं, उसके समक्ष मेरी क्या बिसात भला। तुम तो बंगाली हो। बांग्ला में बहुत अच्छी कविताएं पढ़ी है मैंने।
- अब पुष्पेन निश्चिंत हो गया कि युवती को उसने ऑफिस में ही देखा है। वर्ना उसके बारे में वह इतना सब कैसे जानती।
- रेत में से एक सीप उठाकर चलते-चलते युवती ने बोलना जारी रखा – मैं जब छोटी थी न, तब माँ और नानी के साथ यहाँ आकर बिखरे पड़े सीप, पत्थर बीना करती। कितनी ही तरह के, तरह-तरह के रंगों के और तरह-तरह के आकार के। दो साल पहले बैग में भरकर लाकर यहीं फिर से छितरा कर बिखेर दिए थे। सुमुद्र ने उन्हें समेट लिया था। फिर ढूँढे नहीं मिले।
- क्यों? समुद्र में सब क्यों फेंक दिए?
- दरअसल मेरा ही तो घर-बार नहीं है, तो उन्हें कैसे जतन से सहेज कर रखूंगी, है न?
युवती मोहक मुस्कान बिखेरते हुए फिर बोल पड़ी – दूर वो जो समुद्र के किनारे इतनी अट्टालिकाएं देख रहे हो, उजाले और अंधेरे से अस्पष्ट साये सा तन लेकर खड़ी हैं।
कितनी ऊँची-ऊँची है न। तीस-चालीस मंजिला। परंतु अधिकतर अभी भी घर नहीं बन पाईं हैं। इन्सान को भी ठीक तरह से आश्रय नहीं दे पाती हैं। मैंने एक घर ढूँढा था। मिला नहीं। चारों तरफ सिर्फ़ ईंटों और संगमरमर की दीवारें मिलीं। अंतत: कुछ भी न मिलने पर फिर से समुद्र के पास आ गई।
युवती की आँखें मानो सजल हो उठीं।
बीच पर कुछ छोटी नौकाएं खड़ी थीं। उनकी तरफ संकेत कर पुष्पेन बोल उठा – मछुआरों की नौकाएं। तुम गई हो कभी उनके साथ मछली पकड़ते देखने ?
- नहीं, दरअसल मुझे अच्छी तरह तैरना नहीं आता। इसलिए डर लगता है। हाँ, जाया भी जा सकता है, जीवन की तैराकी के बारे में भी मैं कहाँ कुछ जानती हूँ। लेकिन वहाँ डूबने के डर से तो हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रहती। हो सकता है जब समुद्र में डूब जाऊँ तो समुद्र मुझे लौटा कर कह उठेगा – तुम्हें अब नए सिरे से भला क्या डुबोऊँ। तुम तो पहले ही डूबी हुई हो।
युवती की रहस्य और काव्यात्मक बातें पुष्पेन को हैरान कर रही थीं। क्या करती है युवती ? इंजीनियरिंग पढ़ रही है क्या? उसे तो कविता-कहानियां लिखनी चाहिएं थीं। आजकल के ज़माने में थोड़ी सी पढ़ाई-लिखी अच्छी होने पर भारी संख्या में लोग इंजीनियरिंग में आ जाते हैं। सुनिश्चित रोज़गार की संभावना के कारण।
युवती ने और भी बहुत सी बातें कीं पुष्पेन के साथ। अपने घर की बातें। माता-पिता की बातें। उसका घर यहाँ से तीन घंटें दूर महाराष्ट्र और केरल की सीमा पर एक गाँव में है। वह अपने विभिन्न शौकों के बारे में बता रही थी, जो अभी भी पूरे नहीं कर पाई। कभी मॉडलिंग करने की बहुत इच्छा थी। लेकिन वैसी सफलता नहीं मिल पाई।
पुष्पेन ने भी बहुत सी बातें कीं। अपने कॉलेज की बातें। दोस्तों की बातें। माता-पिता की बातें।
लगभग और एक घंटा समुद्र तट पर टहलने के बाद युवती ने पुष्पेन से कहा, चलो अब रेत पर बैठा जाए।
इस अंधेरे में एक अपरिचित युवती के साथ बैठने में पुष्पेन को ज़रा संकोच हो रहा था। बोल उठा – नहीं, मुझे चहलकदमी करना अच्छा लग रहा है। तुम क्या थक गई हो?
कहते ही युवती के चेहरे की तरफ देख चौंक उठा। अभी तक इस तरह उस युवती के चेहरे की तरफ नहीं देखा था। समुद्र को देखते हुए चलता जा रहा था। रोशनी भी उतनी नहीं थी। एक स्ट्रीट लाइट की रोशनी पड़ रही थी उसके चेहरे पर। कितनी खूबसूरत ! आँखें मानो सावन के मेघों की भाँति गहरी थीं। चेहरे पर एक सरलता सी।
उसकी विभोर निगाहों को युवती ने भाँप लिया था।
धीरे-धीरे बोल उठी – बहुत देर चल लिया। अब बैठा ही जाए। मेरा रेट जानते हो कितना है? दे सकोगे तो?
चौंक उठा पुष्पेन।
- किस चीज का रेट?
युवती उसके अवाक चेहरे की तरफ देख बोल उठी - मैं कौन हूँ, तुम समझे नहीं? मैं तो देह व्यवसाय करती हूँ। रुपए नहीं हैं तुम्हारे पास?
पुष्पेन की लगभग बोलती बंद हो गई। उसके सुर्ख चेहरे को देख युवती ने कहा - ओह, लगता है तुम यहाँ नए आए हो? पता नहीं था?
ज़रा रुक कर कहा – दरअसल, समुद्र तट के इस तरफ जो लोग आते हैं, वे सब जानते-बूझते हुए ही आते हैं। इस तरफ इस तरह देह व्यापार होता है, यहाँ सब कुछ ज़रा सॉफिस्टीकेटेड है। समझ ही रहे हो अमीरों का इलाका है यह। मैंने सोचा था कि तुम भी वैसे ही कोई ग्राहक हो। चलो, तुम्हें तुम्हारे होटल तक पहुँचा दूं।
- नहीं नहीं, मैं खुद ही ढूँढ लूंगा। दरअसल मैंने तुम्हें... मेरा मतलब है आपको ग़लती से कुछ और सोचा था। सोचा था आप मेरे ऑफिस की दोस्त हैं, परिचिता हैं। यहाँ तो अभी आया ही हूँ। सोचा था कि शायद ऑफिस में मुलाकात हुई होगी। मैं ज़्यादातर चेहरे याद नहीं रख पाता। मैं आपको आपका प्राप्य भुगतान कर देता हूँ।
ज़ोर – ज़ोर से हँस पड़ी युवती – नहीं, नहीं, रुपए नहीं चाहिए। लेकिन मुझे तुम कहो।
लेकिन मेरे पास रुपए हैं। कितने चाहिएं?
युवती फिर हँस पड़ी – नहीं, रुपए देने की ज़रूरत नहीं। जो भी हो थोड़ी देर के लिए मुझे दोस्त तो समझा था। उस समय का मोल क्या तुम पैसों से चुका पाओगे? मुझे भी लग रहा था कि तुम अलग किस्म के हो। मैं सिर्फ़ एक माह पहले बाध्य होकर इस पेशे में आई हूँ, इसलिए समझने में भूल हो गई। सभी अब तक मेरे तन से खेलना शुरू कर देते, मन की थाह लिए बिना। कहकर लगभग एक मिनट तक ख़ामोश रही। नम स्वर में कहा - मैंने भी हमेशा तुम्हारे जैसे दोस्त ढूँढा था। मिला नहीं। इसलिए इस समुद्र के पास बार-बार आती हूँ। इस समुद्र के किनारे तुम्हारा साथ मिला, भले ही कुछ समय के लिए ही सही। यहाँ रेत पर अवश्य सभी रास्ते खो जाते हैं। समुद्री लहरों का रूदन भी यह रेत बहुत देर तक याद नहीं रखती। शायद तुम मुझे उससे अधिक समय के लिए याद रखोगे। याद रखोगे इस रात की बात।
एक बार पुष्पेन का हाथ थाम लिया युवती ने। कुछ देर तक मुग्ध निगाहों से उसकी तरफ देखती रही। फिर धीरे-धीरे हाथ छोड़ दिया। कहा – दरअसल मैं बहत दूर चली आई हूँ। आज जहाँ खड़ी हूँ, वहाँ मैं और तुम एक ही माटी पर खड़े नहीं रह पाएंगे। चाह कर भी नहीं। कहते हैं समुद्र सब कुछ लौटा देता है लेकिन जीवन कभी भी खो गए वक्त को और नारी के सम्मान को नहीं लौटाता।
पुष्पेन कहाँ ठहरा है, वह पूछ लेती है। इधर का इलाका उतना अच्छा नहीं है। उसे आगे तक छोड़ आती है। फिर कहती है – अब इस रास्ते से आगे बढ़ते जाओ। अपने होटल पहुँच जाओगे। आज के बाद मैं भी कह पाऊँगी कि मैंने भी किसी को सही राह दिखाई थी।
पुष्पेन बोल उठा – तुम्हारा नाम क्या है?
युवती ने जवाब दिया – उमंग।
- शायद फिर कभी मुलाकात हो।
युवती ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर तक चुपचाप खड़ी उसकी तरफ देखती रही। उसकी आँखें सजल हो गई थीं।
फिर सर झुकाए विपरीत दिशा में चलती गई।
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