बांग्ला कहानी
बैड टच
0 नंदिनी नाग
अनुवाद
– नीलम
शर्मा ‘अंशु’
युवती
जादू जानती है। उसी जादू के जाल में सबको थोड़ा-थोड़ा सा आबद्ध कर लेती है। उसके
प्राण चूस कर शरीर को फेंक देती है। उसके बाद नए शिकार के लिए फिर से जाल बिछाती
है। युवती के ऐसे स्वभाव के बारे में लोग पीठ पीछे बहुत सी बातें करते हैं। कभी
ईर्ष्यावश तो कभी समाज शुद्धिकरण के नाम पर। उसके आस-पास उपस्थित नीतिपुलिस वालों
का उद्धेश्य ही है इस विपथगामिनी के जाल से देश के युवकों को बचाना।
हाँ, यह अवश्य है कि युवती का अपना दिल भी ऐसे
खेल की सम्मति नहीं देता। फिर भी बार-बार पासा फेंका जाता है। यद्यपि इस सार्वजनिक
बाजी में हर बार यही महसूस होता है कि जीत मोहिनी की हुई है तथापि वास्तव में वही
हार जाती है। केवल एक बार अगर उसका पासा सही पड़ जाए, पहली बार भाग्य देवता अगर
उसे जिता दें तो सदा के लिए वह इस प्राणघातक खेल को छोड़ देगी जो उसे रक्तरंजित ही
करता है।
ढलती शाम में जब पंछी घोंसलों में लौटते हैं,
स्कूल, कॉलेज, ऑफिस से सभी घरों को लौटते हैं ज़रा सी ऊष्मा की तलाश में, तब एकाकी
मोहिनी अपनी छत पर खड़ी है। अन्य दिनों में इस समय वह घर नहीं लौटती, क्यों लौटे ? आज मन
अच्छा न होने के कारण दिन रहते ही घर लौट आई है मोहिनी।
दो हजार वर्ग फीट की छत पर एकाकी है मोहिनी। छत
के कॉर्निश पर अपने में खोई-खोई सी खड़ी युवती को संध्या के झुटपुटे अंधेरे में
देखने पर पाषाण प्रतिमा होने का भ्रम हो सकता है।
हाँ, तन जीवित उपादानों से निर्मित होने के
बावजूद उसका मन पत्थर से ही बना है। मोहिनी के सहपाठी तो कम से कम ऐसा ही कहते
हैं। तभी तो इतनी निर्दयी है वह। परंतु अंधेरा गहराते ही उस निष्ठुर युवती के नेत्र
भी सजल हो जाते हैं। अश्रुजल के स्पर्श से प्राणवत हो उठता है वह राजा, जो मोहिनी
की कमर तक की केशराशि में खुद को समेटे सोया पड़ा था इतने दिनों तक। मोहिनी की
सर्वनाशा दृष्टि से सम्मोहित होकर निर्झर नामक युवक जो एक दिन पत्थर बन गया था, आज
की शाम वह भी सजीव हो उठा। उसके सीने में सुप्त आलम, सोहम, अर्को सभी एक-एक कर
सामने आ खड़े हुए। मोहिनी के आंसुओं का स्पर्श पाकर वे सभी जाग उठे, ठीक परिकथाओं
की भाँति।
2
आठ वर्षीया माया को छोड़ एक माह के भीतर रूपसी
के गुज़र जाने के बाद फिर शादी नहीं की सुनील ने।
खुद डॉक्टर हो कर भी पत्नी के रोग का प्राथमिक स्तर पर निदान न कर पाने के
आक्षेप ने उसे बहुत दिनों तक परेशान कर रखा था। 40-50 साल पहले की बात होती तो
माया की देख-भाल की दुहाई देकर रिश्तेदार फिर से सुनील की शादी करवा देते परंतु अब
कोई भी किसी के निजी मामले में सर नहीं खपाता। माया की ननिहाल में भी ऐसा कोई न था
जो बिन माँ की बच्ची का पालन-पोषण कर सके। प्रोफेशन की माँग के कारण सुनील घर के
लिए कितना समय दे पाता है भला। अत: माया के अभिभावक का दायित्व अपनी माँ पर छोड़ने की मजबूरी
थी। इतने बड़े घर में दादी और मेड की देख-रेख में माया की परवरिश हुई। माया जब
पाँचवी में पढ़ती थी तब सुनील के चचेरे भाई अयन ने बाँकुड़ा के अपने पैतृक निवास
से आकर पढ़ाई-लिखाई के लिए उनके इस घर में रहना चाहा। सुनील को खुशी ही हुई, सोचा
था परिवार में एक सदस्य की वृद्धि भी हुई और मेधावी चाचा के सान्निध्य में रहने पर
माया की पढ़ाई-लिखाई भी अच्छी होगी। कॉलेज छात्र रूपी चाचा को पाकर माया को भी अच्छा
लगा था। पढ़ाई में चाचा का मार्गदर्शन तो मिलता ही, साथ ही गपशप और कहानी सुनने के
लिए भी दादी के मुकाबले चाचा बेहतर विकल्प थे। दादी के होते हुए भी एकाकीपन की
नीरसता उस पर छाई रहती, वह भी दूर होती गई धीरे-धीरे। क्रमश: अयन पर माया की
निर्भरता बढ़ती चली गई।
माया जब सातवीं में
थी, तब पहली बार घटना घटी थी। किसी कारणवश उस दिन स्कूल की छुट्टी के कारण दोपहर
को माया घर पर ही थी। बचपन से ही सोने से पहले कहानियों की पुस्तकें पढ़ने की उसे आदत
थी। उस दिन भी पढ़ते-पढ़ते सो गई थी वह। दादी के अलावा घर पर कोई नहीं था। काकू
कॉलेज में और पापा सदा की भाँति अस्पताल में।
सीने पर भारी दबाव की
अस्वभाविक अनुभूति से माया की नींद खुल गई थी। आँखें खुलीं तो देखा काकू अयन उसके
बगल में सो रहे थे और काकू का एक हाथ उसके साने के ऊपर से होते हुए उसके बदन को
जकड़े हुए था। अपने बगल में काकू को इस तरह सोते देख माया को बहुत हैरानी हुई थी। धीरे
से काकू का हाथ हटा कर उठ जाना चाहा माया ने, लेकिन अयन की नींद खुल गई। माया को
अपनी तरफ मोड़ सीने से सटा कर फिर आँखें मूंद लीं अयन ने और कहा –
‘ऊपर वाला कमरा दोपहर में बहुत तपता है। तुझे सोते देख
मैं भी तुम्हारे बगल में ही लेट गया।’ माया को यह अच्छा नही लग रहा था। माँ जब गुज़र गई थी तब
तो माया बहुत छोटी थी। फिर भी पिता कभी इस तरह सट कर नहीं सोए थे। बेशक खून का
रिश्ता ही क्य़ों न हो फिर भी हैं तो पुरुष ही। उसे बहुत असहज लग रहा था पर क्या
करे समझ नहीं आ रही थी। कुछ देर तक बेचैन होने के बाद कहा – ‘काकू छोड़ो, मुझे उठना
है।’
आँखें खोले बगैर ही
अयन ने कहा – ‘थोड़ी देर बाद उठना, लेटी रहो।’
- ‘और लेटना अच्छा नहीं
लग रहा है। छोड़ो न, पौधों को पानी देना है।’
- ‘बहुत परेशान करती हो
तुम, ज़रा सा चैन से सोने भी नहीं दिया।’ अयन ने छोड़ दिया।
बेहद चिंतित होकर माया
छत पर गई। अपने तन को लेकर एक विरक्ति सी तो थी ही, और उसके साथ-साथ काकू के बारे
में नए सिरे से सोचने का प्रयोजन भी। काकू क्या अब भी माया को बच्ची समझते हैं ?
पीरियड शुरू हो जाने
पर वह तो बड़ी हो गई है, अब इस तरह उसके तन का स्पर्श करना उचित नहीं है, यह नहीं
समझा काकू ने शायद। या कुछ और ?
दरअसल एकाकी माया काकू
से बहुत स्नेह करती है। अत: काकू कोई बुरा, गलत
काम कर सकते हैं, यह मान लेने में ज़रा समस्या हो रही है माया को। अपने मन को
समझाया माया ने, काकू का कोई गलत इरादा नहीं था, अत: वह स्पर्श स्कूल की शिक्षकाओं
द्वारा सिखाया गया बैड टच नहीं था।
बात अगर वहीं थम जाती
तो उस दोपहर को भूल ही जाती माया लेकिन उस दिन के बाद से अयन विभिन्न बहानों से तन
को स्पर्श करता रहा, माया के मन पर दबाव बहुत बढ़ने लगा। अयन ऐसे भान करता मानो
अचानक ही हाथ छू गया हो। परिणामस्वरूप माया भी कुछ कह न पाती। जब तक खुद निश्चिंत
न हो जाए तब तक दादी या पिता को बताने पर संभवत: वे डाँट-डपट कर काकू को घर से निकाल
देंगे और फिर अपमानित होकर अगर काकू ने आत्महत्या कर ली तो ? और अगर मामला माया की
ग़लतफ़हमी का हुआ तो ? तो आजीवन अपराधबोध
बना रहेगा। इतना कुछ सोचने के बावजूद माया मुँह नहीं खोल पा रही थी। और भीतर ही भीतर यह सब अच्छा न लगने पर सिमटती
जा रही थी। जब तक घर पर रहती, अयन से बचने की कोशिश करती। यह सब भी इतनी कुशलता से
करना पड़ता कि पिता या दादी की नज़रों में न आए। कुल मिलाकर बिन माँ की बच्ची की
किशोरावस्था नर्क बन गई थी।
चुप-चाप सहने करते
जाने की माया की प्रवृति ने संभवत: अयन को दु:साहसी बना दिया था। माया की मजबूरी को उसने सहमति समझ लिया था। इस छुआ-छुई
के खेल में माया की भी सम्मति है यह मानना शुरू कर दिया था अयन ने। वर्ना रात
गहराने पर घर के सभी सदस्यों के सो जाने पर चोरों की भाँति दूसरी मंज़िल से पहली
मंज़िल पर क्यों आता ?
सीने पर कुछ चल-फिर
रहा है ऐसी अनुभूति होते ही आधी रात को माया की नींद खुल गई थी। जगने पर समझ आया
कि एक हाथ उसके सीने को मसल रहा है। हाथ को कस कर पकड़ लिया माया ने।
- ‘प्लीज़ शोना, ज़रा सा, ज़रा....’
कानों में अयन की
फुसफुसाहट सुनाई दी माया को।
- ‘छी: काकू। छोड़ो।’
अयन को धकेल कर हटा
देना चाहा माया ने पर नहीं हो सका। अयन ने उसे और ज़ोर से कस कर पकड़ लिया।
- ‘शोना एक बार, एक
बार....’
अयन ने उसके सीने में
अपना मुँह घुसेड़ दिया। उसके पुरुषांग का दबाव भी महसूस कर रही थी माया। घृणा,
क्रोध से उसका तन अचानक प्रबल स्फूर्ति से भर गया। पूरे ज़ोर से परे धकेल दिया
उसने अयन को।
- ‘कल आप चले जाना इस घर
से। वर्ना मैं पिता जी को सब कुछ बता दूंगी।’ दाँत पीसते हुए माया ने कहा।
सर झुका कर माया के
कमरे से निकल गया अयन।
दरवाज़ा बंद कर बिस्तर
पर लेट गई माया। परंतु नींद नहीं आई। आँसुओं में डूबी वह सोच रही थी कि तन मैला हो
जाए तो धो-पोंछ कर साफ़ किया जा सकता है परंतु मन पर जो अपवित्र स्पर्श लग गया है
उसे कैसे साफ़ किया जाए।
3
इक्नॉमिक्स की पंचम
वर्ष की छात्रा मोहिनी की जावन-यात्रा क़तई इक्नॉमिक नहीं थी। जूते, बैग और पोशाक
की भाँति ब्वॉयफ्रेंड भी निरंतर बदलती है वह। और लड़कों के भी बलिहारी जाऊँ। सब
कुछ जानते हुए भी क्यों उस डायन के प्रेमपाश में पड़ जाते हैं सभी।
बेशक मोहिनी के
रूप-सौंदर्य के आकर्षण की उपेक्षा करना कठिन है, इस बात को उसके परम शत्रु भी
मानने को बाध्य हैं। कमर तक लहराते रेशमी केश, बड़ी-बड़ी आँखों वाली लड़की पास से
गुज़र जाए तो केवल युवक ही नहीं युवतियां भी दुबारा मुड़ कर देखती थीं। सिर्फ़
सौंदर्य ही नहीं, एक दूसरा आकर्षण भी है उसमें जिसकी उपेक्षा करना सहज नहीं है।
- ‘जानती हो, अब कौस्तुभ
के साथ....’
सीढ़ियों के पास लगे
जमघट के पास से गुज़र कर क्लासरूम में जाते समय यह बात मोहिनी को सुनाई दी। लेकिन
मुड़कर नहीं देखा उसने। ऐसी बातें सुनने की अभ्यस्त हो गई है वह।
- ‘कौन कौस्तुभ ?’ जानना चाहा सुदर्शना
ने।
- ‘फिजिक्स वाला। नहीं
जानती हो। अच्छी क्रिकेट खेलता है।’
- ‘वह तो थर्ड ईयर का है।
उससे उम्र में भी छोटा है।’
- ‘तो क्या हुआ ? तुम्हारे जब बेटा होगा न, उसे भी नहीं छोड़ेगी।’
सभी एक साथ हँस पड़े।
इसी बीच कुणाल आ
हाज़िर हुआ। लगभग छह फुट ऊँचा, घुंघराले बालों वाले कुणाल को लड़कियों की मंडली
अपोलो कह कर पुकारती है। हाँ, यह नाम अतिरंजित नहीं है। घुंघराले बालों के अलावा
कुणाल की नाक, आँखें भी माइकल एंजोनर की मूर्ति हैं। ऐसे आकर्षक युवक को भी मोहिनी
ने क्यों अतीत बना दिया, कोई समझ न पाया।
कुणाल को देख सभी शोर
मचाने लगे।
- ‘एकदम सही समय पर आए
हो। तुम्हारे बारे में ही सोच रहे थे हम। बैठ जाओ बॉस।’
- ‘आज इतना प्यार उड़ेल
रहे हो तुम लोग ? अवश्य कोई
प्लैनिंग है।’
- ‘कोई प्लान नहीं है।
सिर्फ़ हमारे एक सवाल का जवाब दो।’
कुणाल समझ नहीं पा रहा
था कि हल्ला किस तरफ से बोला जाएगा। अत: चुप ही रहा।
उसे ख़ामोश देख एक
दूसरे दोस्त ने कहा –
- ‘सच-सच बता दो, मोहिनी
से तुम्हारा ब्रेक अप क्यों हुआ था ? दोस्तों से कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए।’
मोहिनी का नाम सुनते
ही कुणाल का दमकता चेहता बुझ सा गया पल भर में ही। कुछ देर चुप रहने के बाद कहा -
‘सुनना ही चाहते हो ?’
कुणाल के चेहरे पर आया
बदलाव मिली की निगाहों से छुप न सका। अत: उसने जल्दी से कहा -
- ‘छोड़ो न। वो सब गड़े
मुर्दें उखाड़ कर क्या फ़ायदा ?’
- ‘तुम्हें अच्छा नहीं
लगता तो चैप्टर को बंद करो।’
- ‘मामला अच्छा लगने या
बुरा लगने का नहीं है। असली मामला तो मेरी खुद की समझ से परे है।’ बहुत ही गंभीरता से
कहा कुणाल ने।
लय टूट जाने पर उस दिन
मजलिस ठीक से जमी नहीं। सभी अपनी-अपनी क्लास में चले गए।
वास्तव में कसूर किसका
था ? मोहिनी समझ नहीं पाई। वह तो सचमुच कुणाल से मुहब्बत
करती थी। सिर्फ़ कुणाल ही क्यों ? नौंवी कक्षा का
पहला प्यार अर्को, फिर सोहम, आलम, राजा सभी को तो बहुत चाहा था उसने। परंतु उन सभी
ने उसका हाथ छोड़ दिया, बार-बार सभी उसे अकेला छोड़ चले गए।
उस दिन दोपहर को क्लास
ख़त्म हो गई थी। घर लौटने पर फिर उसी एकाकीपन का साथ होगा। इसीलिए जब कुणाल ने
अपने घर चलने की बात कही तो मोहिनी खुशी-खुशी राज़ी हो गई। पहले भी कुणाल के घर गई
है, उनके इस विशेष रिश्ते के बारे में उसके घर वाले सभी जानते हैं। इसीलिए उसके घर
जाने में उसे कोई हिचक नहीं होती।
उस दिन दोपहर को जाने
पर दो-चार बातें करके आंटी उन दोनों को बातें करने के लिए कह कर आराम करने चली
गईं। शाम को गर्मा-गर्म पूरियां खिलाने का वादा किया।
बात हो रही थी गायकी
को लेकर। कॉलेज के वार्षिकोत्सव में मोहिनी के गायन ने कुणाल को कैसे मोह लिया था,
वही बात वह फिर से बता रहा था।
- ‘वही बात कितनी बार
बोलोगे ?’
- ‘जब तक ज़िंदा रहूंगा,
रोज़ बोलूंगा। वही तो मेरा टर्निंग प्वांइट है।’
- ‘तुम्हारे सितारवादन पर
भी तो मैं मुग्ध हूँ।’
- ‘धत्त। वैसा तो बहुत से
लोग बजाते हैं, परंतु तुम्हारे जैसी ऐसी आवाज़...’ मोहिनी को पास खींच कर हल्का सा
चुंबन दिया कुणाल ने।
कुणाल के बालों से
छेड़-छाड़ करते हुए मोहिनी ने कहा,
- ‘हद मत करो।’
- ‘करूंगा ही।’
कुणाल ने मोहिनी को कस
कर भींच लिया। कुणाल के सीने में छुप जाना मोहिनी को भी अच्छा लग रहा था। उसके तन
की माँसपेशियां धीरे-धीरे शिथिल होती जा रही थीं मानों अपना पूरा भार कुणाल पर
छोड़ कर सदा के लिए बिलकुल निश्चिंत हो जाना चाहती थी वह।
आवेश में आँखें मूंद
ली थी मोहिनी ने। तभी कुणाल के दोनों हाथों ने उसके उरोजों को मसलना शुरू कर दिया।
पेट के निचले हिस्से पर उसके पुरुषांग का दबाव पड़ते ही मोहिनी ने कुणाल को धकेल
कर परे हटाना चाहा पर कर नहीं पाई। बल्कि कुणाल ने उसे और भी कस कर पकड़ लिया, कान
में फुसफुसाया –
‘शोना ज़रा सा, प्लीज़ एक बार।’
वही बात ! उसी घटना की
पुनरावृत्ति !
कुणाल की जगह अयन नज़र
आया मोहिनी को। वर्तमान को भूल गई मोहिनी, भूल गई कि वह कुणाल से मुहब्बत करती है।
आहत किशोरवस्था उस पर ऐसे हावी हो गई कि बेहद घृणा से उसके मुँह से निकला – ‘जानवर।’
कुणाल को धक्का दे परे
हटा कर तेज़ी से मोहिनी उनके घर से निकल आई। अपमान से कुणाल
का गोरा चेहरा लाल हो गया।
मोहिनी का अतीत पता
होता तो कुणाल के लिए इस प्रतिक्रिया को समझ पाना संभव होता। ऐसे अस्वभाविक आचरण
को वह सही तरह से समझ पाता। कुणाल फिर मोहिनी के पास लौट कर नहीं आया, उसी तरह
जैसे नहीं लौटे अर्को, आलम, सोहम। तभी तो मोहिनी एक ऐसे हाथ की तलाश में भटक रही
है जिसका स्पर्श उसे सदा के लिए भुला देगा – बैड टच की पीड़ा को।
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साभार - कृति बहुमत पत्रिका, भिलाई, छत्तीसगढ़।
लेखक परिचय
नंदिनी
नाग
पश्चिम बंगाल के
नदिया जिले के कृष्णनगर में जन्म और परवरिश। वर्तमान में कोलकाता निवासी।
ऐस्ट्रोफिजिक्स में शोध और डॉक्टरेट। पेशे से शिक्षिका और लेखन से प्यार। विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां व आलेख प्रकाशित।
प्रथम प्रकाशित पुस्तक ‘अविश्वासीर ईश्वर संधान’ 2017 में बांग्ला अकादमी द्वारा पुरस्कृत। ‘उड़ान’, ‘सोलमेट’ उनके उपन्यास हैं जिन्होंने छपते ही पाठकों का
ध्यान आकर्षित किया।
अनुवादक
नीलम शर्मा ‘अंशु’
पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला
से पंजाबी में अनेक महत्वपूर्ण
साहित्यिक अनुवाद। कुल 14 अनूदित पुस्तकें प्रकाशित। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा
राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन।
आकाशवाणी दिल्ली एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी।
विशेष उल्लेखनीय -
सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’वर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही। स्व. नानक सिह
लिखित उपन्यास पवित्र पापी (जिस पर बलराज साहनी, परीक्षित साहनी, तनुजा अभिनीत
फिल्म भी बनी थी) का अनुवाद । कोलकाता के
रेड लाईट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास‘लाल बत्ती’का हिन्दी अनुवाद।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक देबेश राय के बांग्ला उपन्यास ‘तिस्ता पारेर
बृतांतों’ का साहित्य अकादमी के लिए पंजाबी में अनुवाद “गाथा तिस्ता पार दी”।
स्वतंत्र लेखन के साथ - साथ समवेत स्वर, संस्कृति सेतु तथा संस्कृति सरोकार
नामक तीन ब्लॉगों का संचालन। 22 वर्षों से आकाशवाणी एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी।
संप्रति -केंद्र सरकार कार्यालय, दिल्ली में सेवारत।
सम्पर्क – rjneelamsharma@gmail.com
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