कहानी श्रृंखला - 27
पाकिस्तानी पंजाबी कहानी
गलियारा
लेखक - तौक़ीर चुगताई
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’
बात मानने वाली नहीं थी परंतु वह कैसे न मानता। बाबे को उसने खुद देखा
था। सफेद दाढ़ी, लंबे केश और सर पर पगड़ी मानो अंबर ने धरती को अपने हाथों से ढक
लिया हो। बाबा हल की हत्थी थामे बैलों के पीछे चला जा रहा था और उसकी आँखों का नूर
धरती को रोशन कर रहा था। बैलों की गर्दन में लटक रही घंटियों की झंकार से शीशम के
पेड़ों पर बैठे फाख्ता, अन्य पंछी और चिड़ियां चहचहाते हुए उड़ते फिर रहे थे। हल
के सामने बैल धरती पर जुताई का निशान बनाते हुए मस्ती में इस तरह चले जा रहे थे
मानों सूखी धरती को जोत कर बाजरा, ज्वार और मकई के पौधों से भर देंगे। संसार में
कोई भी प्राणी भूखा नहीं रहेगा और न ही किसी जीव-जंतु और पक्षियों को बच्चों की
भूख मिटाने के लिए अपनी सीमा से दूर जाना पड़ेगा।
हाँ, उसने अपनी आँखों से
सब कुछ देखा था। एक बार तो उसे ऐसा लगा मानो कोई सपना देख रहा हो या फिर
उठते-बैठते जो विचार उसे घेरे रखते थे यह उन्हीं का परिणाम प्रतीत हो रहा था। सोचा, यह कोई चमत्कार भी तो हो सकता है परंतु
अब चमत्कारों की जगह विज्ञान ने जो चमत्कार दिखाए थे, उनके ज़रिए हज़ारों मील दूर
बैठे व्यक्ति भी एक – दूसर से हाथ मिला रहे हैं और करीब बैठे एक – दूसरे से रूठ कर
दीवारें खड़ी करने वाले पुराने नाते-रिश्तेदार और यार-दोस्त एक-दूसरे से क्यों
नहीं मिल सकते ?
बड़े गाँव के बंटवारे के
बाद छोटे-छोटे छह सात गाँव बन गए परंतु इन दोनों गाँवों की पृष्ठभूमि और संस्कृति दूसरों
से सदियों पुरानी और अलग थी जिसे बाहर से आए व्यापारियों ने दीन-धर्म के नाम पर
अपने फ़ायदे के लिए ऐसा इस्तेमाल किया कि वे एक-दूसरे के दुश्मन बन गए। दुश्मनी भी ऐसी कि एक-दूसरे के बच्चों को
मरवाया, खेत उजाड़े, घर जला डाले और खून की ऐसी होली खेली कि मानवता भी रोने पर
मजबूर हो गई। समय की धूल जमी तो दोनों गुटों ने सोचा कि सांझे खेतों की भाँति
हमारी पृष्ठभूमि संस्कृति, पोशाक, भाषा, माहीये, टप्पे और नाच - गाना भी सांझा था।
फिर ऐसा क्यों हुआ ?
चलो
जो हुआ सो हुआ, बुरी बातों को याद करना भले लोगों का काम नहीं बल्कि बुरे वक्त की
कोख से जन्मे नए वक्त को अपने ज़ख्मों का मरहम भी बनाया जा सकता है। मरहम भी ऐसे
हाथों के पास था जो सब कुछ लूट कर कहीं दूर चले गए थे और जाने के बाद भी उनके दिल-ओ-दिमाग
पर काबिज हुए बैठे थे। फ़र्क इतना भर था कि बाहर से आए सौदागर पहले गाँवों में रह
कर फसलों, सोने-चाँदी और कपड़े लत्ते का व्यापार करते थे और अब अपने देशों में बैठ
कर बारूद का व्यापार करने लगे थे।
सदियों
से एक साथ रहने वालों ने जब धरती का बंटवारा किया तो पटवारी भी उनका अपना नहीं था।
बंटवारे के वक्त धरती का एक टुकड़ा ऐसा भी था जो दोनों की सांझी दीवार से सटा हुआ
था। इसी टुकड़े को पटवारियों ने जान-बूझकर बिना बाँटे छोड़ दिया था और जाते समय
कहा था, “हमारे जाने के बाद खुद ही बाँट लेना।”
बाद में दोनों गाँवों के
बुजुर्गों में इस टुकड़े को लेकर ऐसा झमेला हुआ कि मुँह के बजाय गोलियों और बारूद
के ज़रिए बात होती। धरती का वह टुकड़ा दोनों में से किसी के भी नाम न हो सका और न
ही उसके भोले-भाले बाशिंदे उसके वारिस बन सके। अविभाजित टुकड़े की खींच-तान में
तीन पीढ़ियां बर्बाद हुईं। दोनों गुटों में खूनी जंग हुई, जवान मरे, औरतें विधवा
और बच्चे अनाथ हुए। आवाजाही बंद हुई और वो एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गए।
उन्होंने एक बार फिर से
घर तो बसा लिए परंतु करीब रहते हुए भी एक – दूसरे से दूर होते चले गए। इतनी दूर कि
उनके बच्चे उनसे सुनी कहानियों के माध्यम से अनुमान लगाते कि दूसरे गाँव के बाशिंदे
कैसे थे। सांस्कृतिक दूरियां भी बढ़ीं और और वे एक दूसरे से मिलने से भी रहे। साथ
लगते दूसरे गाँवों में शादी-ब्याह या काम-काज पर जाने के बाद तो वे एक-दूसरे को
आलिंगन कर ऐसे मिलते मानों सदियों बाद मिल रहे हों परंतु अपने गाँवों में लौट कर
एक बार फिर से नदी के दो किनारों के भाँति एक-दूसरे से दूर हो जाते। इतनी दूर कि
ख़तों के माध्यम से एक-दूसरे का हाल-चाल भी न पूछ पाते।
कुछ बुजुर्गों ने मिल कर
एक दो बार सोचा कि आवाजाही के बारे में बात-चीत की जाए और दोनों गाँवों को एक
दूसरे से मिलवाने वाले उस गलियारे को भी खोला जाए जो सदियों पहले इस्तेमाल किया
जाता था। दीवार बनाते समय एक विशाल फाटक लगाया गया था जिसके इस तरफ और परली तरफ चौकीदार
बैठे रहते थे। दोनों गाँव वाले इन चौकीदारों से बहुत डरते थे परंतु दूसरे गाँवों
से आने वाले बेरोक-टोक फाटक पार करके इधर-उधर आते-जाते।
दोनों पक्षों की दोस्ती
और दुश्मनी भी अजीब थी। न तो वे खुल कर एक दूसरे से दुश्मनी करते और न ही दोस्ती
का हाथ आगे बढ़ाते। कभी-कभार वे इतने क़रीब हो जाते कि दूसरे गाँवों के बुजुर्ग
चकित रह जाते परंतु कभी ऐसा भी होता कि दूसरे गाँव से उड़ कर आने वाले कबूतर पर भी
संदेशा लाने का संदेह किया जाता। ख़त बाँटते डाकिये का थैला भी खंगाला जाता और ख़त
लेने वाले से पूछा जाता कि तुम्हें ख़त क्यों लिखा गया है ? बेशक ख़तों में
बिछोह के दु:ख और फिर मिलने की उम्मीद के सिवाय कुछ भी न
होता तो भी ख़त के माध्यम से होने वाली आधी मुलाक़ात दोनों पक्षों के परिवारों के
लिए कभी-कभार खुशी से ज़्यादा मुसीबत बन जाती। परंतु क्या करते ? परस्पर मेल-मिलाप का कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था।
दोनों पक्षों के बुजुर्ग किसी न किसी बहाने जब भी मिलते, दूसरी मुश्किलों के अलावा
गलियारा खोलने की बात ज़रूर करते परंतु उन्हें बहुधा पसंद न किया जाता। अपने गाँवों
के चौधरियों से काम-काज और आवाजाही पर लगी रुकावटें ख़त्म करने के लिए कहते और साथ
लगते चार-पाँच गाँवों के बाशिंदों को खुश करने के लिए वे ऊपरी दिल से सांझे
काम-काज की घोषणाएं कर देते, परंतु बात आगे बढ़ती तो दोनों पक्षों में फिर से कोई
झमेला उत्पन्न हो जाता तो पास आने के बजाय दूरी और बढ़ जाती। उनके अगुआ पहले
एक-दूसरे को ताने देते, फिर लड़ पड़ते और अंतत: अस्पताल, कारखाने और स्कूल बनवाने के बजाय बंदूकों और
बमों के भंडार में वृद्धि करने में जुट जाते। बारूद के ढेरों के विरुद्ध अगर गाँव
का कोई बाशिंदा बात करता तो उसे उठा कर जेल में ठूँस दिया जाता या उस पर गद्दार का
ठप्पा लग जाता।
कुछ बुजुर्गों ने लोगों को बताया कि बेशक
हमारा धर्म अलग-अलग है परंतु दोनों धर्मों तथा अन्य विभिन्न धर्मों से जुड़े
सैंकड़ों लोग दोनों गाँवों में सदियों से रह रहे हैं। यदि धर्म के नाम पर हम
एक-दूसरे को मारते रहे तो धर्म को तो कुछ नहीं होगा बल्कि हमारा ही नुकसान होगा।
बुजुर्गों की एक टोली ऐसी भी थी जो अलग-अलग धर्मावलंबियों को एक छत के नीचे एकत्र
कर यह बताना चाहती थी कि कोई भी धर्म परस्पर लड़ने-मरने की शिक्षा नहीं देता बल्कि
सारी इन्सानियत को एक ही सूत्र में आबद्ध करता है। परंतु उनकी बातों पर भी अधिकतर
लोग कान न देते।
गाँवों
का बंटवारा हुआ तो कुछ बच्चे एक – एक साल के थे, कुछ उन दिनों अभी पैदा ही हुए थे
और कुछ युवा थे। जो युवा थे वे बूढ़े होकर कब के गुज़र भी गए थे और जो बच्चे थे वे
भी बहुत बूढ़े हो चले थे और अपने पूर्वजों की निशानियों को देखने की उम्मीद में
अभी भी ज़िंदा थे। दलबीर नामक एक बच्चा उन दिनों अपनी माँ की गोद में था परंतु अब
उसकी उम्र सत्तर साल से भी अधिक थी। वह भी मृत्यु से पहले एक बार पड़ोसी गाँव में
जाने की ख़्वाहिश रखता था। उसके अवचेतन मन में बाप-दादों से सुनी बातों के साये
साथ-साथ बड़े हुए थे। उन सत्य कथाओं के पात्र उसे याद थे, उनका एक साथ मिल कर जीने-बसने का जज्बा उसे
भूला नहीं था। दोनों गाँवों के काम-काज को आगे बढ़ाने के लिए एक कमेटी बनी थी
जिसमें उसके पुत्र चेतन से अलावा दोनों गाँवों के और भी बहुत से युवा शामिल थे परंतु
पड़ोसी गाँव का शाहीया और वह एक–दूसरे के बहुत क़रीब आ गए। उनका कारोबारी ढंग भी
एक-दूसरे से मिलता-जुलता था और दुनिया भर में अमने चैन के साथ दोनों गाँवों की
दोस्ती के लिए वे दूसरों से अधिक उतावले थे। काम-काज बढ़ाने वाली कमेटी की मीटिंग
के बाद एक सत्र के अंतराल में चेतन ने अपने यार से कहा, “शाहीया ! जो कुछ होता रहा या होता
रहता है, उसे देख कर यू लगता है जैसे पिछली दो पीढ़ियों की भाँति हम भी वक्त से
हार मान कर बैठ जाएंगे और हमारे बच्चे भी हमारी तरह एक-दूसरे से मिलने और बिछुड़ने
की कहानियां ही सुनते रहेंगे।”
“हाँ, परंतु हम कर भी क्या सकते हैं ?”
“अपने-अपने गाँव के बाशिंदों को ऐसे मंच पर ला सकते हैं
जो गाँव के बुजुर्गों पर गलियारा खोलने के लिए दबाव बना सकें।”
“परंतु अब तो हमारे बुजुर्ग भी यह बात जान गए हैं कि
गलियारा खुलने में दोनों ही गाँव के बाशिंदों का फायदा है।”
“मुझे नहीं लगता कि हमारे जीवित रहते यह गलियारा खुल
सकेगा. कितने ही दोस्तों के बाप-दादा गलियारा खुलने की उम्मीद दिल में लिए ख़त्म
हो गए और हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही होता नज़र आ रहा है। शाहीये ने कहा।”
अलग-अलग
परंतु एक-दूसरे से सटे गाँवों में एक ही मौसम में जन्म लेने वाले दोनों दोस्तों के
शब्द तो हिम्मत और उम्मीद से लबरेज थे परंतु उन पर अमल करने वाले कम और मुखालफ़त
करने वाले अधिक थे। वे यह भी कहते थे कि वक्त के हाथों धरती का जो बंटवारा हुआ है,
इसे स्वीकार कर लेना चाहिए, न ही इस दीवार को ढहाने की ज़रूरत है और न ही और ऊँचा
करने में कोई फायदा है बल्कि इसमें ऐसे दरवाज़ें और खिड़कियां लगने चाहिए जिनके
मार्फत एक दूसरे से बात करने और आर-पार जाने में सुविधा हो।
शाहीये
ने अपनी आँखों से ही देखा था कि सुंदर शक्ल-सूरत वाला बाबा बैलों की जोड़ी के पीछे
हल चलाते हुए इस गाँव से उस गाँव और फिर उससे भी आगे आ जा रहा था। गाँव के लड़कों
ने उसे देखा तो वे उसके साथ चल दिए। उस पार के गाँव से लौट कर बाबा इधर आया तो इस
गाँव के लड़के भी उसके पीछे-पीछे इधर आ गए। उसके चेहरे पर इतना नूर था कि कोई भी
उसकी तरफ सीधे नहीं देख सकता था। उसे बहुत ही कम लोगों ने देखा था परंतु जिन्होंने
भी देखा था, वे समझ नहीं पाए थे कि इस तरफ का है या उस तरफ का है या कोई पीर, वली,
अवतार है जो दोनों गाँवों में लगे बारूद के ढेरों और रास्ते में लगी तारों की
परवाह किए बगैर धरती का फूलों और फसलों से ऋंगार करने के लिए अचानक ही सामने आ गया
है।
गलियारा
खुलने पर दोनों पक्षों के बहुत से लोग बहुत खुश थे और एक - दूसरे को आगे होकर
आलिंगन कर रहे थे। परंतु कुछ ऐसे भी थे जिन्हें यह सब कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। उनका मानना था कि आने-जाने वालों में जासूस भी
हो सकते हैं। कुछ लोगों का तो यह भी कहना था कि इससे एक गाँव को फायदा होगा परंतु
बुजुर्ग उन्हें कहते, जिस बाबे की बदौलत यह गलियारा खुला है, उसके अनुयाई इधर भी
हैं और उधर भी हैं बल्कि दुनिया की हर जगह में उनकी अलग पहचान है। इस गलियारे का
फायदा किसी एक पक्ष को नहीं बल्कि दोनों गाँवों में रह रहे हर प्राणी को होगा बेशक
वह किसी भी धर्म, जाति या कबीले का क्यों न हो।
एक
बूढ़ा ये सब बातें सुनकर ख़ामोश रहता और ज़रा सा हँस कर आगे बढ़ जाता। सब ने सोचा
इस शैदाई से भी पूछ लें कि गलियारे की बात सुनकर यह ख़ामोश क्यों हो जाता है ?
बूढ़े
ने ग़मगीन सा हो कर कहा, धर्म के नाम पर होने वाले बंटवारे ने मेरे बाप-दादा का घर
भी जला डाला था और उसके बच्चे भी खो गए थे परंतु जिस हस्ती ने अपनी करामात से
बरसों से बंद गलियारा खोला है, मुझे पता है वह कौन है। उसकी सोच बहुत ऊँची है ओर
वह सभी धर्मों को मानता है। सभी इन्सानों को जाति-पाति से परे एक समान मानता है।
क्या आप उसकी सोच पर चल सकेंगे? ”
दोनों
गाँवो के बाशिंदे गलियारे के बीचो-बीच खड़े एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे।
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साभार - परिकथा (दिल्ली), मार्च -अप्रैल, 2022
लेखक परिचय
तौक़ीर चुगताई
जन्म 13 मई, 1961. मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर।
डेली एक्सप्रेस करांची, भारत में ट्रिब्यून, अजीत, नवां ज़माना, साप्ताहिक देस परदेस,
वतन कनाडा (मासिक) हेतु स्तंभ तथा समसामयिक विषयों पर लेखन।
जफाकश, समाज, बाग आदि पत्रिकाओं के संपादन के साथ कविता और कहानी लेखन।
उर्दू, हिन्दी,
गुरुमुखी, सिंधी, पंजाबी, हिंदको, पोठोहारी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के जानकार।
प्रकाशित पुस्तकें - तुम्हारा ख़त नहीं आया (उर्दू काव्य संग्रह),
वलूहणा (पंजाबी काव्य संग्रह), वछोड़ा(पंजाबी काव्य संग्रह),
अखीरला हंजु (पंजाबी कहानी संग्रह),
नूरजहाँ (जीवनी), रोशन ख़याल लोग (जीवनी)।
E-mail - tauqeerc@yahoo.com
नीलम शर्मा ‘अंशु’
पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला से पंजाबी में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक अनुवाद।
कुल 20 अनूदित पुस्तकें प्रकाशित। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं
स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन।
23 वर्षों से आकाशवाणी एफ.
एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी।
विशेष उल्लेखनीय -
सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’वर्ष 2002 के कोलकाता
पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही। कोलकाता
के रेड लाईट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास‘लाल बत्ती’का हिन्दी अनुवाद। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक देबेश राय के
बांग्ला उपन्यास “तिस्ता पारेर बृतांतों” का साहित्य अकादमी के
लिए पंजाबी में अनुवाद “गाथा तिस्ता पार दी”।
संप्रति – केंद्रीय सरकार के अंतर्गत दिल्ली में कार्यरत।
सम्पर्क -
rjneelamsharma@gmail.com
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