पंजाबी कहानी
ऐतिहासिक दिल्ली में खोई चवन्नी
एस. बलवंत
पंजाबी से अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
कबीर के दफ्तर में काम करने आई मालिनी पहले ही दिन
कबीर से बहुत प्रभावित हो गई थी। फिर वह हर पल कबीर में अपनी दिलचस्पी बढ़ाने की
कोशिश करती रही। मालिनी बला की खूबसूरत थी और बहुत धाकड़ भी। जब वह कदम उठाते हुए
चलती तो ऐसा लगता मानो धरती भी धड़क रही हो। यानी बेहद खूबसूरत थी मालिनी। लाल आभा
लिए रंग, तीखे नक्श। निहायत ही शिष्ट युवती थी वह। कबीर भी किसी दृष्टि से कम नहीं
था। खूब ऊँचा-लंबा, गोरा चिट्टा। वह जो भी पोशाक पहनता, बहुत ही जंचती उस पर।
बातें भी बहुत समझदारी वाली करता था कबीर। उसका मुस्करा कर विनम्रता से बात करने
का अंदाज़ मालिनी के अंतर्मन को गहरे तक छू जाता। कभी-कभी तो मालिनी का जी चाहता
कि वह अपनी कुर्सी से उठे और सबके सामने कबीर को आलिंगन में ले ले।
अख़बार के इस दफ्तर का मालिक भी खुद कबीर ही था और मालिनी ने बतौर विज्ञापन
प्रबंधक अभी-अभी इस दफ्तर में कार्य संभाला था। मालिनी ने खूब लगन से काम समझा और
कुछ ही दिनों में सारा काम अपने हाथों में ले लिया। फोन कॉल्स से लेकर पेमेंट की
वसूली तक। हर बात उसने फटाफट समझ ली
थी। अब वह क्लांइटस् को फोन पर अपने
अख़बार की विशिष्टताएं, उससे जुड़े पाठकों और पाठकों के स्तर के बारे में बताती तो
लोग ज़बरदस्ती उसे विज्ञापन देने को तत्पर हो जाते।
कबीर उसके काम से बहुत खुश था।
जब सारा काम चल निकला तो वे कभी-कभार बाहर भी जाने लगे। दफ़्तर में इतना एकांत
नहीं मिलता था कि काम को और आगे बढ़ाने के लिए कुछ और गंभीर योजना बनाई जा सके।
मालिनी वैसे भी कबीर के साथ एकांत में समय गुज़ारना चाहती थी। उसके दिल में कबीर
के लिए भीतरी लगाव पैदा होना शुरू हो गया था। वो कहते हैं न ‘लव एट फर्स्ट साइट’, पहली नज़र में प्यार। उसके भीतर
शायद ऐसी हलचल शुरू हुई और बढ़ती ही गई। मालिनी कबीर के प्यार में मचल चुकी थी,
परंतु यह सब इकतरफा ही था।
कबीर के दफ़्तर के पास ही एक फाइव स्टार होटल था और उसमें ही एक बहुत ही
खूबसूरत रेस्तरां था ‘मचान’। कबीर का वह पसंदीदा ठौर था और वह पहले भी यहाँ ही अपनी शामें गुज़ारा करता
था। अब मालिनी का साथ मिल गया तो वे दोनों एक कोना तलाशते और सलाह-मश्वरा करने बैठ
जाते। साप्ताहिक अख़बार को दैनिक बनाने की तरकीबें सोचते। उस पर होने वाले खर्च और
विज्ञापनों से होने वाली आय के बारे सोचते। बाज़ार का मूल्यांकन करते और अन्य सभी
संभावनाओं को तलाशते।
बीच-बीच में मालिनी कबीर की निजी ज़िंदगी की बातें भी छेड़ लेती परंतु संकोचवश
कबीर उसे कुछ न बताता। बलकि उलटा वह ही मालिनी से उसके बारे में पूछ लेता और
मालिनी उसे सब कुछ बता देती। मालिनी ने ही कबीर को बताया था कि उसका सबसे बड़ा भाई
सेना में कर्नल है, और उससे छोटा बैंक में मैनेजर। पिता सरकारी अफसर हैं और एक बहन
है। बहन अभी कॉलेज में पढ़ती है और किसी बंगाली से आशिकी कर रही है। मालिनी ने यह
भी बताया कि उसका परिवार आधुनिक विचारधारा का है। मालिनी ने खुद इतिहास और
अंग्रेजी साहित्य में डबल एम. ए. कर रखी थी।
बीच-बीच में वह कबीर के बारे, उसकी ज़िंदगी की ख़ास घटनाओं, पूरी-अधूरी
इच्छाओं के बारे में भी पूछती रहती थी।
मालिनी का जी चाहता था कि कबीर भी उसे अपने बारे में पूरी कहानी सुना दे
परंतु कबीर टाल-मटोल कर देता और मालिनी में यह सब जानने की इच्छा और भी प्रबल हो
जाती। कबीर को यही महसूस होता कि ये सब बेहज निजी बातें हैं और वह हँस कर टाल
देता। ज़्यादातर कबीर चुप ही रहता। बस इतना ही बताता कि वह शादीशुदा है और उसके दो
बच्चे हैं।
कभी-कभी कबीर बुझे मन से दिल्ली की आप-हुदराशाही का उल्लेख ज़रूर करता और अपने
पिता और उसके पूर्वजों के साथ हुई ज़्यादती का हवाला देता। या फिर कभी-कभी वह एक
चवन्नी की बात करता परंतु इसके बारे में विस्तार से कुछ न बताता। इसके बाद उसके
होठों पर फुलस्टॉप लग जाता।
एक दिन मालिनी ने मचान में कबीर के साथ कॉफी पीते हुए उससे काफ़ी गंभीरता से
पूछा, मुझसे दोस्ती करोगे?
कबीर ने हँस कर टाल दिया, हम तो अब भी दोस्त ही हैं.....कोई कमी है क्या?
नहीं ।.... परंतु मैं इससे भी और ज़्यादा दोस्ती चाहती हूँ। संपूर्ण
स्त्री-पुरुष की दोस्ती।
परंतु तुम्हें पता है कि मेरा परिवार है। बच्चे हैं।
मुझे सब पता है। बहुत ही चार्मिंग फैमिली है आपकी। मैं वादा करती हूँ कि कभी
भी आपके पारिवारिक जीवन के आड़े नहीं आऊँगी।
नहीं नहीं। यह कभी नहीं हो सकता। कबीर के यह कहने पर वे वहाँ से उठ आए। बाद
में कई दिनों तक अपने-अपने कामों में व्यस्त रहे।
इस तरह वक्त गुज़रता जा रहा था कि एक दिन कबीर की गैरहाज़िरी में मालिनी को
किसी क्लाइंट के साथ किए गए एग्रीमेंट की कॉपी देखने की ज़रूरत पड़ी। ऐसे सभी काग़जात
हमेशा कबीर की कस्टडी में होते थे। वह उस एग्रीमेंट को कबीर की टेबल के दराज़ों
में ढूँढ रही थी कि अचानक उसे कबीर की एक डायरी मिली। मालिनी ने उसे निकाल कर
उलटा-पलटा तो कुछ पंक्तियां पढ़ कर वह चकित रह गई।
मालिनी ने वह डायरी पढ़नी चाही और उसने इसे वहाँ से इस तरह उठाया कि कबीर को
शक न हो। यहाँ तक कि मालिनी ने उस एग्रीमेंट को भी ढूँढना छोड़ दिया ताकि कबीर को
कोई संदेह न हो।
अब फुर्सत मिलते ही मालिनी कबीर की डायरी खोल कर बैठ जाती थी। बहुत ही रोचक
कहानी थी कबीर की पृष्ठभूमि की। अभी पढ़ना शुरू ही किया था कि उसका जी चाहा कि
फटा-फट सारी डायरी पढ़ डाले। पढ़ते-पढ़ते उसके मन में कभी कोई विचार आता तो कभी
कोई।
कबीर ने उस डायरी में लिखा था कि वह पैदा तो अच्छे-ख़ासे घर में हुआ था परंतु
दिल्ली की राजनीति ने उसे बेइंतहा गरीबी की ओर धकेल दिया। कबीर ने आगे लिखा था कि
पाकिस्तान के जिस गाँव से विस्थापित हो कर वे आए थे, उस गाँव की ज़मीन बहुत ही
उपजाऊ थी और उनके खेत इतने थे कि कबीर का पिता उसकी माँ से कहा करता था, “जहाँ तक तुम्हारी निगाह जाए वह सारी ज़मीन तुम्हारी है। और जहाँ तक न जाए वह
अपने बच्चों की।”
आगे लिखा था, “परंतु सब कुछ उधर ही धरा का धरा रह गया। सरकारों का क्या था?... बस झट फैसला किया और दुनिया इधर से उधर। जैसे एक ढेर का गोबर दूसरी जगह
शिफ्ट करना हो। सेंस ऑफ बिलॉन्गिग के तो पल भर में ही टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे इन
राजनीतिज्ञों ने। सालों ने हमें भिखारी
बना दिया। कहा था भारत आने पर मुआवज़ा मिलेगा पर यहाँ जो अलॉट हुआ वह तो न के
बराबर था। भारत आ कर पंजाब के एक गाँव में
बड़ा हो रहा था कि उन्नीस सौ संतावन की बाढ़ ने कहर ढा दिया और जो कुछ बचा-खुचा था
उसे भी बहा ले गई।”
आगे लिखा था, क्या करते ? ....दिल्ली तो आ गए परंतु मेरा पिता
पढ़ा-लिखा नहीं था। पाकिस्तान वाले समय
में वह इस लिए नहीं पढ़ा कि जाटों के पुत्तर कौन सा नौकरियां करते हैं? ... अब हालात बदले तो दिल्ली आने के बाद बिना पढ़े मज़दूरी के सिवा कोई और
नौकरी नहीं मिल सकती थी। ले दे कर एक ड्राइविंग ही बची थी, जो मेरे पिता को आती
थी। अत: उसने यह नौकरी कर ली।....
“दिल्ली में तब हमारा घर वहाँ था
जहाँ दिल्ली को जीतने के लिए पिछली कई सदियों में कई युद्ध हुए थे। जितने भी हमलावर भारत पर ज़मीनी हमला करने आए,
उनके खुद के और दूसरों के लहू-लुहान इतिहास की धरती थी यह। परंतु अब वहाँ सब्जी और
फलों की मंडी थी। इस जगह से लोगों को खाने को मिलता था। फल, सब्ज़ियां और भी बहुत
कुछ खाने का सामान।”
“इस मंडी के ऊपर एक पहाड़ी थी जहाँ
एक मीनार बनी हुई थी। इसे ‘जीतगढ़’ कहा जाता था। 1857 के गदर में विजय प्राप्त करने के बाद इस लड़ाई में
अंग्रेजों के पक्ष में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए गोरे फौजियों की याद में
अंग्रेजों द्वारा निर्मित इस चर्चनुमा गुंबद को मैं कुतुबमीनार का छोटा भाई कहा
करता था। यह मीनार प्रकृति से भले ही क्रिश्चयन थी, परंतु दिखने में लगभग
कुतुबमीनार जैसी। ऊपर जाने के लिए लगभग एक सौ बारह सीढ़ियाँ थीं, या एक सौ बाईस।
इनसे ऊपर चढ़ कर दिल्ली के नज़ारे देखे जा सकते थे। ऊपर टॉप पर चारों तरफ चार
झरोखे बने हुए थे। एक तरफ से मुगलों की पुरानी दिल्ली, दूसरी तरफ से अंग्रेज़ी
हुकुमत का सचिवालय। अंग्रेज वायसरॉय का घर, जहाँ अब दिल्ली यूनिवर्सटी बन चुकी थी
और चौथी तरफ ख़ाली ज़मीनें जहाँ अब बड़े-बड़े कॉम्पलेक्स और मॉल उभर आए हैं।”
“इस सब्ज़ी मंडी में सारा दिन
शोर-शराबा होता रहता था। कभी एक ट्रक सब्ज़ियों या फलों से लदा हुआ आता और दूसरा
वहाँ से जा रहा होता। हमारे घर के सामने एक सिंधी का केले का गोदाम था। वह कच्चे
केले खरीदता और मसाले डाल कर उन्हें पका कर बेचा करता था। वह बहुत ही धार्मिक
व्यक्ति था। इन्सानियत का पुजारी। उस सिंधी व्यक्ति ने अपने दफ्तर में अपने मुनीम
को हुक्म दे रखा था। उस हुक्म के अनुसार कोई भी भूखा व्यक्ति उस सिंधी व्यक्ति के
दफ्तर से एक पर्ची ले सकता था और पर्ची
दिखा कर वह मंडी के किसी भी ढाबे से भर पेट खाना खा सकता था। उस पर्ची की क़ीमत हुआ करती थी सिर्फ़ एक
चवन्नी और उन दिनों ढाबों में इस क़ीमत में एक दाल, एक सब्ज़ी के साथ भर पेट रोटी
मिलती थी।
मेरे इस घर के सामने वाली सब्ज़ी मंडी में चारों तरफ दुकानें बनी हुईं थीं।
बीचो-बीच एक बड़ा सा चबूतरा बना हुआ था। कभी-कभी शनिवार को वहाँ रास लीला होती थी।
लड़के ही अभिनय करते। कोई कृष्ण बनता तो कोई राधा। यह रासलीला बहुत ही संगीतमयी
होती थी। एक गीत हमेशा ही गाया जाता था, जिस के बोल थे, “जाम थाम ले... सोचते ही सोचते न बीते सारी रात।.... जाम थाम ले...।”
सभी सिंधी दर्शक इस गीत को सुनते ही झूम उठते थे। व्हिस्की के गिलास टकराने
लगते और सारा माहौल रोमांटिक हो जाता।
आगे उसने लिखा था, मेरे घर से उतर कर अगर दाएं मुड़ें तो बर्फ़खाने से बाईं
तरफ ऊपर की तरफ जीतगढ़ नामक एक पहाड़ी थी। एक बड़ा सा जंगल। डरावना, परंतु इस वक्त
बस अड्डे से होते हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी की तरफ एक सड़क बनाई गई थी।
जीतगढ़ गुंबद से थोड़ा आगे कुतुब की लाट स्थित है। इसी पहाड़ी से सामने की तरफ
नीचे उतरा जाए तो अंग्रेज़ों के समय का सचिवालय आ जाता था जो आज दिल्ली सरकार का
दरबार है। वहाँ से बाईं तरफ जाएं तो वह घर आ जाता था जहाँ अंग्रेज वायसरॉय रहा
करते थे। 1933 में लॉर्ड हार्डिंग के समय के इस घर को यूनिवर्सिटी में बदल दिया
गया था। वर्तमान की दिल्ली यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार के दफ्तर वाले कक्ष में ही
अंग्रेज वॉयसराय की शादी हुई थी।
शुरू – शुरू में जब भी समय मिलता मैं इस जीतगढ़ पहाड़ी पर अपनी किताबें ले आता
और एक तरफ बैठ कर पढ़ता रहता। यहीं बैठ कर मैं इस दिल्ली के इतिहास के बारे में
क़यास लगाता। विगत कुछ सदियों में दिल्ली पर हमलावरों द्वारा चढ़ाई करते समय इस
इलाके में ही ज़्यादा युद्ध होने के कारण मैं बैठा-बैठा कल्पना करता रहता कि जब
यहाँ लड़ाईयां होती होंगी तो इस इलाके की क़ायनात में कैसे अहसास रहे होंगे ? तलवारों के आपस में टकराने की
आवाज़ें.... घोड़ों की हिनहिनाहट.... हाथियों की चिंघाड़, घायलों की चीखें,
सिपाहसालारों की ललकारें। ... तब मैं एक ऊंचाई पर दिल्ली के इतिहास को अपने ज़ेहन
में इसी तरह मापता।
बस यह उन दिनों की ही बात है, जब मेरे पिता के ट्रक से एक ठेले वाले का
एक्सीडेंट हो गया था। उस एक्सीडेंट में ठेलेवाले व्यक्ति की मौत हो गई और मेरे
पिता को नौ महीनों की जेल हो गई। पिता ने बहुत शोर मचाया कि वह आगे-आगे आराम से
गाड़ी ले जा रहा थे और मृतक पीछे अपनी बैलगाड़ी पर तेल के ड्रम ले जा रहा था। उनकी
गाड़ी के सामने एक रिक्शा आ गया था और उसे बचाने के लिए ही उन्होंने ब्रेक लगाई
थी। उन्हें तो यह भी पता नहीं चला कि पीछे बैलगाड़ी है और ब्रेक लगने के कारण
बैलगाड़ी चालक झटके से नीचे जा गिरा था और बैलगाड़ी में लदे और खुले रखे तेल का एक
ड्रम झटके से ही उसके ऊपर जा गिरा था। यह हादसा इतना मामूली था कि मेरे पिता को
पता भी न चला कि पीछे इतना कुछ हो गया है। वह अपनी ही चाल से चलते रहे परंतु पुलिस
ने केस यह बनाया कि मेरे पिता व्यक्ति को मार कर भाग रहे थे। तब हम छोटे थे। दिल्ली में कोई परिचय भी नहीं
था और न ही हमें कोई जानता था। सो जेल की सज़ा माननी पड़ी।
तब तिहाड़ जेल नहीं थी। दिल्ली गेट के पास खूनी दरवाज़े के सामने जहाँ अब
मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज और इरविन/जय प्रकाश नारायन अस्पताल है, यह
जेल हुआ करती थी। उसी जेल में मेरी माँ मेरे पिता को खाना और कपड़े देने जाया करती
थी। कभी-कभी मैं साथ चला जाता था, परंतु अक्सर माँ मुझे जेल के गेट के सामने बिठा
कर खुद भीतर चली जाती क्योंकि मुझे देखते ही मेरे पिता रोने लगते।
तब मैं जेल के सामने खूनी दरवाज़े के नीचे पड़े पत्थरों पर जा बैठता।
इक्का-दुक्का लोग इस खूनी दरवाज़े को देखने आते थे तो मैं उनकी बातें बहुत ध्यान
से सुनता था। एक दिन उस दरवाज़े को देखने आए दो दोस्तों को आपस में बातें करते
सुना, “देखा, इस खूनी दरवाज़े को? अभी भी लाल खून लगा हुआ है।” मुझे यह सुनकर हैरानी हुई। दरअसल
वह लाली पत्थरों में या तो लाल पत्थर की थी और या तो समय के साथ वहाँ कुछ जम गया
था परंतु फिर भी चुपचाप ऐसी बातें सुनता रहता और ऐसी डींगें हाँकने वालों को देखता
रहता।
बाद में जीतगढ़ी पहाड़ी पर बैठ कर इन बातों के बारे में इतिहास की किताबों में
दर्ज़ पृष्ठों को खंगालते हुए मुझे इस दरवाज़े की असली कहानी के कुछ पहलू इस तरह
समझ आए कि जब 1857 में हिंदुस्तान भर में गदर मच गया तो अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बड़ी
बगावत उभरी तो उस वक्त भारत के हर हिस्से में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ अंगारे उभरने
शुरू हो गए। अंग्रेजों ने इस आग को कुचलने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया। एक अंग्रेज
अफ़सर कैप्टन विलियम होडसन ने 1857 में 22 सितंबर को मुगलों के अंतिम बादशाह
बहादुरशाह ज़फर के पुत्र मिर्ज़ा मुगल, मिर्ज़ा खिज़र सुल्तान और उनके पौत्र
मिर्ज़ा अबू ब़ख्त को अल्फ़ नग्न कर यहाँ क़त्ल कर दिया था। बाद में इन तीनों
शहज़ादों के शव चाँदनी चौंक में कोतवाली ( जो अब शीशगंज गुरूद्वारे का अंश है) के
सामने नुमाइश में रखा गया था। उस दिन इसी अंग्रेज अफ़सर कैप्टन होडसन ने शाही
खानदान के सोलह सदस्यों को हुमायूं के मकबरे से गिरफ़्तार किया था और जब वह एक सौ
घुड़सवारों के संग गुज़र रहा था तो अनेक मुसलमानों ने उसे घेर लिया। कहा जाता था
कि होडसन ने जवाब में बच्चे, बूढ़े और औरतों सभी के क़त्ल का हुक्म दे दिया था।
वैसे इस दरवाज़े के बारे में यह मिथक भी सुना जाता था कि यह दरवाज़ा 1857 से
पहले भी यहाँ मौजूद था और जब 1739 में
फारसी हमलावर नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला करके दिल्ली वासियों का
क़त्ल-ए-आम करवाया था तो यह दरवाज़ा उसकी भी गवाही देता है।
इसी तरह कई अन्य मनघड़ंत कहानियां भी सुनने को मिलती हैं इस दरवाज़े के बारे में।
कोई इसे दिल्ली का तेरहवां दरवाज़ा कहता था तो कोई इसे औरंगज़ेब के साथ इस बात के
लिए जोड़ देता कि यह वही दरवाज़ा है जहाँ औरंगज़ेब ने हुकूमत हासिल करने के लिए
दारा शिकोह का सर काट कर अपनी जीत का इज़हार करने के लिए यहाँ ही टाँगा था।
मालिनी यह सब पढ़ते हुए कबीर के मन की गहराईयों तक धंस जाती। जैसे – जैसे वह
कबीर के पिछले जीवन के बारे जानती गई उसका लगाव कबीर के प्रति और भी बढ़ता गया। और
अंतत: वह यह सोच कर ख़ामोश हो जाती कि उसके भाग्य ने उसे कबीर तक पहुँचाने में देर
कर दी। मालिनी को शायद अपने जीवन की
संपूर्णता के लिए कबीर जैसे व्यक्ति की ही तलाश थी। परंतु वह सोचती थी क्य़ा यह
किस्मत थी? कोई रिश्ता था या रिश्ते की तलाश ?.... मालिनी कुछ भी न समझ पाई, परंतु चलती गई।
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कबीर ने आगे लिखा था, एक दिन मैं स्कूल से घर लौटा तो माँ रोए जा रही थी। कारण
घर के खर्च थे। माँ का यह हाल देख कर मैंने नियमित पढ़ाई छोड़ दी और पार्ट टाइम
पढ़ना शुरू किया। साथ-साथ कोई छोटी-मोटी नौकरी करने लगा।
परंतु जो नौकरी सबसे पहले मिली वह रोशनारा रोड पर कश्मीरी लाल की चाय की दुकान
पर लोगों की दुकानों पर चाय पहुँचाने की थी। मैं लोगों के पास चाय लेकर जाता और
बाद में बर्तन भी लेकर आता। कई ग्राहकों का मासिक हिसाब था परंतु कुछ नकद भी देते
थे। एक दिन एक ग्राहक ने मुझे दो बार चवन्नी दे दी थी। मुझे उस वक्त समझ नहीं आया
परंतु उसने कश्मीरी लाल के कहने पर मेरी ईमानदारी जाँचने के लिए दी थी। मेरे मन में
बेईमानी आ गई थी और मैंने उनमें से एक चवन्नी अपने पास रख ली और दूसरी चवन्नी
कश्मीरी लाल को दे दी।.... कशमीरी लाल ने इसी बात पर मुझे नौकरी से निकाल दिया।
कबीर ने और भी बहुत कुछ लिखा था। आगे चल कर वह लिखता है - इस तरह समय बीतता गया। वक्त का पहिया चलता रहा।
यहाँ मेरे साथ कुछ बहुत ही अनोखी घटनाएं भी घटित हुईं। कुछ तजुर्बे भी हुए।
फिर कबीर भावुक हो जाता है। उस ने अपनी डायरी में आगे लिखा था कि, बाकी बातें
तो बहुत विस्तार चाहती है परंतु यहाँ एक घटना ज़रूर साझा करने को जी चाहता है।
मेरे पिता के जेल से बाहर आने के बाद हमने उस इलाके से जमुना पार कृष्णानगर में घर
बदल लिया। जहाँ हम नए घर में गए, वहाँ साथ वाले घर में ही एक व्यक्ति रहता था।
उसकी पत्नी मेरी बहन की बहुत अच्छी सहेली बन गई थी। बातों-बातों में उन्होंने तय
कर लिया कि मैं पार्ट टाइम पढ़ाई के साथ-साथ एक प्रिटिंग प्रेस में काम सीखूं।
वहाँ कई अख़बारें भी छपती थीं। उस पड़ोसी का छोटा भाई कमला मार्केट में एक प्रेस
में कंपोज़िंग का ठेकेदार था। तय हुआ कि वह मुझे काम तो सिखाएगा परंतु पहले तीन
महीने तनख्वाह नहीं मिलेगी।
तब मुझे घर से रोज़ एक चवन्नी मिलती थी। पाँच पैसे बस का भाड़ा आने में और
पाँच पैसे जाने में लगता था। बाकी पंद्रह पैसे घर से लाए परांठों के साथ छोले लेने
के लिए या कुछ और खाने के लिए थे। मैं पाँच पैसे देकर दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास
कौड़िया पुल तक बस में सफ़र करता और वहाँ से पैदल चलते-चलते मैं कभी फतेहपुरी से
लाल कुएं की तरफ से होते हुए हाउज़ काज़ी और फिर अजमेरी गेट से कमला मार्केट पहुँच
जाता। कभी-कभी बल्लीमारां से गुज़रते हुए चाचा ग़ालिब के घर को सलाम करते हुए आगे
हौज़ काज़ी से बाज़ार सीताराम से होते हुए तुर्कमान गेट की तरफ निकल जाता। परंतु कभी-कभी मुफ़्त सफ़र के लिए लाल किले से
बाड़ा हिन्दुराव तक चलती बिजली ट्राम जब शीशगंज गुरूद्वारे के सामने से गुज़रती तो
मैं पीछे लटक जाता और हिलोरें लेता हुआ लाहौर गेट पहुँच कर वहाँ से रेड लाइट इलाके
जी बी रोड से गुज़रता। सुबह का वक्त होता
तो वे बिखरे बाल लिए बुसबुसा सा थोबड़ा लिए नीचे की तरफ झांकती दिखती, मानो कोई
सुबह सवेरे भी दस-बीस का ग्राहक आ जाए। कमाल की बात यह थी कि इस रोड पर ग्रांउड
फ्लोर पर बड़ी-बड़ी कारोबारी दुकानें थीं परंतु पहली मंज़िल से ऊपर तक सब इनके
कोठे थे। दिन के वक्त ग्राउंड फ्लोर वाले
अपनी चमक-दमक दिखाते हुए धंधा करते और रात होते ही वेश्याओं की चमक-दमक शुरू हो
जाती।
आगे कई पृष्ठ खाली थे। फिर आगे लिखा था, ‘इस
जी बी रोड की स्थापना की कहानी भी इतिहास में कुछ इस तरह दर्ज है कि मुगल बादशाह
जब कहीं भी हमला करके या उनके गुर्गे इधर-उधर लूट-मार करते तो गरीब या
गैर-मुस्लिम, ख़ास करके हिंदु घरों की खूबसूरत युवतियों को भी लूट लाते और बादशाह
को पेश करते। जब बादशाह जहाँगीर की मृत्यु हुई तो उस के हरम में सात हज़ार
युवतियां, औरतें, रखैलें थीं, जिनके साथ बादशाह चुहल किया करता था। जहाँगीर के
पुत्र शाहजहाँ को उसका वारिस होने के नाते वे सात हज़ार रखैलें भी विरासत में दे
दी गईं, परंतु शाहजहाँ ने ढल चुके यौवन या ढलने के कागर पर खड़ी सभी रखैलों को
अपने महल/हरम से निकाल दिया। परंतु साथ ही उनकी सहायता करके उन्हें जी बी रोड पर बसा
दिया ताकि वे अपना जिस्म या हुनर बेचकर अपनी रोज़ी कमा सकें। बाद में यही आंटियां अपने धंधे में बढौत्तरी
करने के लिए और भी बहुत सी युवतियों को जोड़ती गईं और बाद में यह इलाका सदर बाज़ार
के पीछे बने इलाके जिसे तब काठ बाज़ार कहा जाता था, वहाँ तक बढ़ा लिया। दूसरी तरफ
इस का कुछ हिस्सा चावड़ी बाज़ार में से भी इसी तरह के काम के लिए शामिल कर लिया
गया। काठ बाज़ार सस्ती वेश्याओं का इलाका था। जी बी रोड में बढ़िया और खूबसूरत
वेश्याएं मिलती थीं परंतु चावड़ी बाज़ार को तहज़ीब या संगीत के रसियाओं का इलाका
कहा जाता था।’
आगे कबीर ने लिखा था कि ‘जी बी रोड वाली
आंटियों के बारे यह भी सुना था कि शाही महल में रहने के कारण इनके पास तहज़ीब और
बात-चीत के सलीके का बहुत बढ़िया हुनर था। ऐसे सलीके और तहज़ीब का प्रशिक्षण उनके
शाही महल में पहुँचते ही शुरू हो जाता था ताकि उन्हें जब बादशाह के समक्ष पेश किया
जाए तो उनकी प्रस्तुति में कोई कमी न रहे। इन सबके सलीके और तहज़ीब में माहिर होने
के कारण तब कई धनाढ्य माता-पिता द्वारा अपने बिगड़ैल शहज़ादों को तहज़ीब सीखने के
लिए इन आंटियों के पास भी भेजा जाता था।’
कबीर ने अगले पृष्ठों पर लिखा था कि ‘जब
गुरुदत्त की प्यासा फिल्म आई तो कंजकों को कंजरी बना कर हो रहे इस धंधे से संबंधित
बहुत शोर-शराबा हुआ था। उस फिल्म के माध्यम से इनका दु:ख सामने आया कि कैसे इन कन्याओं को जिस्मानी अत्याचार
और तकलीफों से दो-चार होना पड़ता था, और कैसे इन्हें बीमारी में भी और अपनी औलाद
को बिलखते छोड़ मर्दों की हवस का शिकार होना पड़ता था। सुना तो यह भी था कि इस
फिल्म को देख कर जवाहर लाल नेहरू खुद भी रो पड़े थे। ख़ास तौर से इस फिल्म के इस
गीत को सुनते हुए, ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?’ यह भी तभी सुना था कि तब दिल्ली सरकार
को वेश्यावृत्ति बंद करने के लिए कानून बना पड़ा था और इस कानून के मुताबिक
वेश्याओं का जिस्मानी धंधा बंद कर दिया गया था। फिर ये कोठे सिर्फ़ नाच-गाने की
इजाज़त देने तक रह गए थे परंतु धंधा
यहाँ पहले की भाँति ही चलता रहा... बस पुलिस का ‘हफ्ता’
बढ़ गया था।’
मालिनी यह सब पढ़ते हुए कभी डायरी बंद करके ख़ामोश हो जाती और कभी आँखें बंद
करके कुछ सोचने लगती। फिर अपने काम में लग जाती और कुछ ही समय के बाद फिर से डायरी
खोल कर बैठ जाती।
‘तब तक मेरे देखते-देखते ये इलाके
कारोबारी बाज़ारों में तब्दील होना शुरू हो गए थे। और अब चावड़ी बाज़ार या सदर
बाज़ार दिल्ली के सब से महत्वपूर्ण और मंहगे कारोबारी इलाके माने जाने लगे थे।
वेश्याओं ने तब भी चावड़ी बाज़ार और काठ बाज़ार के इलाकों से अपनी जगहें बेचनी
शुरू कर दी थीं, परंतु कुछ आंटियां यही धंधा बाहरी इलाकों में जा कर सॉफिस्टीकेटेड
ढंग से चलाने लगी थीं। और तब से ही यह धंधा दिल्ली की निजी कॉलोनियों में भी फैलना
शुरु हो गया था।’
यह तो था उस वक्त की दिल्ली का माहौल और इतिहास परंतु जिस घटना का मैं उल्लेख
करना चाहता था, वह यह थी कि मैं उन दिनों जीन की निक्कर ही पहना करता था। घर से
मिली चवन्नी जेब में डाल कर हर रोज़ इसी तरह काम सीखने चला जाता और शाम को घर लौट
आता था। कभी-कभी मैं अपने किसी दोस्त के साथ साइकिल पर बैठ कर चला जाता। जो परांठे
घर से ले कर जाता उनमें अचार ज़रूर होता था। कभी-कभी मैं पतीले वाले छोले- कुलचे
वाले से छोले न लेता और अचार के साथ रोटी खा लेता तो मेरी चवन्नी सारा दिन न खर्च
होती। इस तरह पैसे बचा कर कभी-कभी रास्ते में पड़ते ‘ऐक्सलसीयर’ और कभी ‘न्यु अमर’ सिनेमा में लगी पिक्चर देखने की
ठगी कर लेता। एक दिन बची हुई चवन्नी जेब में डाले मैं कौड़िया पुल से बस पर सवार
हुआ। भीड़ बहुत थी। आदमी पर आदमी चढ़ा हुआ था। बस यमुना का पुल पार कर रही थी।
भीड़ में से ही एक सवारी ने मुझे अपने साथ बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया। मेरी
बाईँ तरफ एक ठाठ-बाठ वाली महिला बैठी थी। मैंने उसकी तरफ देखा और उसने मेरी तरफ।
वह बहुत बन-ठन कर बैठी थी ताकि लगे कि कोई अमीरज़ादी थी। अचानक मेरी नज़र फर्श पर
गिरी हुई एक चवन्नी पर पड़ी। मैंने ज़ोर से कहा कि ‘किसी की चवन्नी गिरी हुई है।’ उस महिला ने लपक कर कहा, ‘यह मेरी है।’ वह चवन्नी उसने उठा कर अपनी कमीज़
के भीतरी हिस्से में सीने में छुपा ली। अगले स्टॉप पर उसे उतरना था, सो वह उतर
गई।
बाद में कंडक्टर टिकट पूछता हुआ मेरे पास आया और तब मैंने अपना टिकट लेने के
समय देखा कि मेरी अपनी जेब वाली चवन्नी ही गायब थी। ....मुझे तब अहसास हुआ कि शायद
यह वही चवन्नी थी, जो मैंने अपनी ईमानदारी में उस अमीरज़ादी महिला को उठवा दी थी।
उस वक्त मैं हक्का-बक्का सा इधर-उधर देखूं। कंडक्टर को मुझ पर तरस आ गया और उसने
यकीन कर लिया कि मैं झूठ नहीं बोल रहा था। उसने मुझे बिना टिकट ही मेरे घर वाले
स्टॉप तक सफ़र करने दिया।
‘परंतु इस घटना ने मेरे दिल पर वह
असर किया जो मैं कभी न भूला। और ख़ास करके इस महिला का चेहरा, जिस का अक्स तो
ठाठ-बाठ दिखाने के लिए बाहर से कितना चुपड़ा हुआ था परंतु भीतर से उस में कितनी
कालिख भरी हुई थी। कभी-कभी मुझे अपनी बेवकूफी पर ज़्यादा तरस आता।’
वैसे तो उसके जीवन में कई चवन्नियों का काफ़ी महत्व था, परंतु कबीर ने इस चवन्नी
के बारे बहुत ही मार्मिक शब्दों में जिक्र करते हुए अपने आप पर हुए असर के बारे
लिखा था। बार-बार वह अपने भीतर गुस्सा करता। उस पल को याद कर गुस्से में अपनी
मुट्ठियां भींचता। उस बारे में पश्चाताप करते हुए कबीर ने अंत में लिखा था कि ‘वह वक्त तो गुज़र गया परंतु मैं इस बेईमानी को कभी भी न भुला सका।... मेहनत से
प्रिटिंग और अख़बार का काम सीखा और आज यह ‘टाईम कैप्सूल’ नामक साप्ताहिक अख़बार भी शुरू कर
लिया है परंतु मेरी ख़्वाहिश है कि मैं अपने पिता को वहाँ पहुँचाऊं जहाँ उन्हें
पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़ कर आना पड़ा था।’
मालिनी कबीर की यह डायरी बार-बार पढ़ती और फिर चुप-चाप काम में लग जाती। परंतु
जब-जब भी वह इसे पढ़ती तो कुछ पलों के लिए सोच-विचार में डूब कर आँखें बंद कर कुछ
सोचती रहती।
पहले की भाँति ही उनका ‘मचान’ जाना लगातार जारी रहा था। अब मालिनी कबीर को बड़ी गंभीर सलाहें देती। वे बहुत
कुछ डिस्कस करते। बेशक मालिनी के भीतर कबीर के प्रति मुहब्बत का अहसास भरपूर भर
चुका था परंतु उसने फिर कभी भी इसका इज़हार नहीं किया। वह कबीर से अथाह मुहब्बत तो
करने लग गई थी परंतु वह नहीं चाहती थी कि उसकी वजह से कबीर के परिवार को कोई क्षति
पहुँचे।
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हर मीहने की पहली तारीख को सबको तनख्वाह मिलती थी। एक तनख्वाह वाले दिन जब
मालिनी ने तनख्वाह ली और वह कबीर से बोली, ‘मैं अभी आती हूँ।’ थोड़ी देरी बाद जब वह वापिस आई और
कबीर से आकर कहा, ‘उठो, मेरे स्कूटर के पीछे बैठो।’
मालिनी ने ज़बरदस्ती कबीर को अपने स्कूटर के पीछे बिठा कर स्कूटर भगा लिया जो
अंतत: सीधे यमुना पुल पर जाकर रुका। मालिनी एक तरफ से
रेलवे ट्रैक के ऊपर चढ़ कर चलते हुए यमुना पुल के बीचो-बीच जाकर रुक गई। इसी पुल
के नीचे वाली जगह कबीर के साथ वह चवन्नी वाली घटना घटी थी। यहाँ से उत्तर प्रदेश
और कलकत्ते की तरफ जाने वाली गाड़ियां दिल्ली को छोड़ती थीं। उस वक्त मालिनी के
हाथ में एक बड़ा सा लिफाफा पूरा चवन्नियों से भरा हुआ था। शायद वह पूरी तनख्वाह बैंक से चवन्नियों में बदलवा
लाई थी। लिफाफा कबीर के सामने करते हुए मुट्ठियां भर-भर कर सारी चवन्नियां आधी
यमुना के पानी में इधर और आधी उधर फेंक देने को कहा।
कबीर
को अपनी वह चवन्नी वाली बात याद आ गई। सारी कहानी एक फिल्म की भाँति उसके आँखों के
समक्ष घूम गई। मालिनी के ज़बरदस्ती करने पर जब कबीर ने चवन्नियों की पहली मुट्ठी
ही भरी तो उसकी रुलाई फूट पड़ी।
जब
कबीर ये चवन्नियां यमुना नदी में फेंक रहा था तो हज़ारों सवाल उस वक्त कबीर के मन
में सर उठा रहे थे। वह इन चवन्नियों को तो यमुना नदी में फेंक रहा था परंतु साथ ही
उसकी आँखों से टप-टप आँसू झर रहे थे।
जब सारी चवन्नियां यमुना में फेंक चुका तो कबीर ने वहीं यमुना के पुल पर आसमां के नीचे खड़े होकर मालिनी को अपनी बाँहों में भर कर चूम लिया।
साभार - साक्षात्कार पत्रिका (भोपाल) , मई - जून 2021
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लेखक परिचय - एस. बलवंत
पंजाबी साहित्य जगत में बेहद लोकप्रिय वरिष्ठ प्रवासी लेखक। पत्रकारिता से
शुरूआत, तत्पश्चात् प्रकाशन जगत और विभिन्न संस्थाओं में वाइस चेयरमैन
भी रहे। विशेष रूप से पंजाबी तथा हिन्दीसाहित्य, इतिहास और संस्कृति संबंधी
लेखन के लिए विख्यात। एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता।
An Encyclopaedia of Punjabi Culture and History,
अंग्रेजी-पंजाबी-गुरुमुखी कोश,हीर और राँझा के प्रेम संवाद
(वारिस शाह की हीर से चुनिंदा अंश - पंजाबी, देवनागरी और
रोमन लिपि में), गुमनाम सिपाही – देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी
मास्टर काबुल सिह “गोविंदपुर”की रचनाओं और जीवनी का संपादन।
कहानियों में
उल्लेखनीय हैं - महानगर, एक मरियम और ।
दिल्ली सरकार और भारतीय प्रकाशक संघ सहित अनेक संस्थानों से विभिन्न
सम्मानों से विभूषित।
17 अगस्त 2021 को
निधन।
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