बांग्ला कहानी
भूगोल का गणित
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जीने से ऊपर चढ़ते ही आदित्य को टी. वी. पर
समाचार चलने की आवाज़ सुनाई दी। यानी आज शिंजिनी के पिता घर पर ही हैं। ऑफिस से
लौट कर वे अक्सर ही अपने दोस्त के घर ताश खेलने जाते हैं या लाइब्रेरी जाकर मुहल्ले के अन्य बुजुर्गों
के साथ अड्डा मारते हैं। उस वक्त शिंजिनी की माँ टी. वी. देखा करती हैं। मेगा
सीरियल। लेकिन पिता घर पर हों ता सारा दिन न्यूज चैनेल ही लगाए रखते हैं। सीढियां
चढ़ते-चढ़ते ही आदित्य समझ जाता है कि ड्रॉइंग रूम में कौन टी. वी. देख रहा है।
ड्रॉइंगरूम
के बाद शिंजिनी के माता-पिता का कमरा है, उसके बाद शिंजिनी का कमरा। शिंजिनी
कुर्सी पर बैठी मेज पर झुक कर डायरी में कुछ लिख रही थी। कमरे में प्रवेश कर जैसे
ही आदित्य ने डायरी की तरफ झाँका, उसने फटाफट डायरी बंद कर दराज में रख दी आदित्य
हँस पड़ा, ‘क्या
लिख रही थी, कविता वगैरह ?’ शिंजिनी ने दोनों तरफ गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘आज कुछ भी पढ़ाई नहीं हो पाई।’
आदित्य के साथ इस तरह सिर्फ़ वही बात कर सकती है। उसके
अन्य छात्र अपने आदित्य दा से सपने में भी इस लहज़े में बात करने के बारे में नहीं
सोच सकते।
‘क्यों?’
‘टास्क करने के बाद भी अगर यही सुनना पड़े कि मैं नहीं
पढ़ती, तो न पढ़ना ही बेहतर है।’
‘क्या कह रही हो? किसने कहा कि तुम नहीं पढ़ती?’
‘शिंजिनी ने गुस्से से देखा, कहना चाहते हैं कि कल आपने
पिता जी से कुछ नहीं कहा। कहा नहीं कि मुझे भूगोल का गणित नहीं आता ?’
आदित्य को याद आया, कल जब वह पढ़ाकर निकल रहा था तो
शिंजिनी के पिता के साथ मुलाकात हुई थी। उन्होंने पूछा था -‘जा रहे हो? वो तुम्हारी स्टुडेंट की पढ़ाई कैसी चल रही
है ?’
‘जी ठीक-ठाक।’ आदित्य को लगा कि जवाब निहायत ही गैर-ज़िम्मेदाराना सा
लग रहा है। अत: ज़रा मास्टरी रंग-ढंग दिखाने के इरादे से ही शायद उसके
मुँह से निकल गया था, ‘भूगोल के सवालों में ज़रा.... लेकिन मैं कोशिश कर रहा
हूँ।’ आदित्य ने पूछा – ‘पिताजी ने डाँटा क्या ?’
शिंजिनी ने आँखें फैलाकर देखा, ‘बहुत खुशी हो रही है न?’ आदित्य ज़रा सा मुस्कुराया, ‘तो कल जो दो सवाल ग़लत
किए थे, यह भी तो सच है।’ शिंजिनी ने बात और न बढ़ा कर इतिहास की किताब खोली,
मात्र सोलह साल की उम्र में ही वह अपने आत्म-सम्मान के प्रति बहुत सजग है।
इसी बीच मेड आकर कॉफ़ी-सनैक्स रख गई थी। आदित्य चाय नहीं
पीता इसलिए इस घर में कॉफ़ी उसका पेटेंट पेय है। आदित्य ने आराम से कॉफी की चुस्की
ली लेकिन स्नैक्स मुँह में डालते ही रोज़ की तरह मुसीबत। चबाते ही कड़मड़ की आवाज़
होने लगती है। चूँकि पूरे घर में नीरवता सी छाई हुई है, इसलिए यह आवाज़ बहुत ही
तेज़ महसूस होती है। मध्यवर्गीय परिवार का आदित्य वैसे ही शिंजिनी के चिप्स वाले
फर्श, प्लास्टर ऑफ पेरिस वाली दीवारों, दीवारों पर लगी कलाकृतियों, क़ीमती चीज़ों
के बीच कैसा असहज सा महसूस करता है। तिस पर कड़मड़ की इस आवाज़ से उसे परेशानी
होती है। सिर्फ़ कॉफी की चुस्कियां लेने लगा। इसी तरह चार-पाँच मिनट गुज़र जाने के
बाद शिंजिनी ने कहा – ‘क्या हुआ, नहीं पढ़ाएंगे क्या?’ खाली प्याला प्लेट में
रखते हुए आदित्य ने मुस्कुरा कर कहा - ‘पढ़ोगी ? मूड ठीक हो गया ?’ शिंजिनी के गुलाबी होठों पर मुस्कान तैर गई, ‘लेकिन टास्क मत दीजिएगा।’
आदित्य समझ गया कि शिंजिनी के पिता ने उसे उतनी
डाँट-फटकार नहीं लगाई है वर्ना इतनी जल्दी उसका मूड ठीक नहीं होता।
‘टास्क नहीं किया तो पिताजी के पास इसकी कड़ी रिपोर्ट
करूंगा।’
‘हिम्मत है ?’ गर्दन तिरछी करके अपने ही अंदाज़ में कहा
शिंजिनी ने।
‘बहुत हो गया, अब ज़रा टिगनोमेट्री का टास्क दिखाओ।’ कहकर हँस पड़ा आदित्य।
सुबह जो छात्र उसके घर पर पढ़ने आते हैं, वे अगर देखें
कि उनका गुस्सैल टीचर आदित्य घोषाल इस घर की लड़की को कैसे हैंडल करता है। वे अपनी
आँखों पर कभी यकीन नहीं कर सकते। पता नहीं क्यों आदित्य उसे डाँट-फटकार नहीं कर
पाता। संभवत: इसका मुख्य
कारण है कि दूसरे उसके घर पढ़ने आते हैं और शिंजिनी को उसी के घर पढ़ाने आना पड़ता
है। उनके छोटे से किराए के घर और चारदिवारी में घिरे इस दो मंज़िले मकान में बहुत
फ़र्क है। वह मानो इस विशाल मकान में मिसफिट है। सेल में खरीदी उसकी सस्ती जींस की
टी शर्ट यहाँ बिलकुल बेमेल है। यहाँ सभी बहुत फिट-फाट हैं। शिंजिनी के पिता सदा
दूध सा सफेद कुर्ता-पायज़ामा पहने रहते हैं। माँ मंहगी साड़ियां पहनती हैं। और
शिंजिनी बढ़िया-बढ़िया सलवार-कुर्ते। यहाँ तक कि शिंजिनी की दादी भी दूध सी
चमचमाती सफेद साड़ी पहने रहती हैं और मंहगे फ्रेम वाला चश्मा। यहाँ आकर आदित्य हीन
भाव से ग्रस्त हो जाता है। वह हमेशा यही सोचता रहता है कहीं बेमेल सा कुछ न कर
बैठे। इसी लिए वह शिंजिनी को डाँट-फटकार करना भी नहीं चाहता। उसे सिर्फ़ यही लगता
रहता है कि इस घर में असंगत चीज़ें नहीं जंचती। सब कुछ मार्जित होना चाहिए।
शिंजिनी के सारे सवाल सही हुए हैं। कॉपी में हस्ताक्षर
कर आदित्य ने कहा, ‘यह तो एकदम वेरीगुड है, बस भूगोल के सवाल पता नहीं कैसे
ग़लत हो जाते हैं।’
शिंजिनी अपनी स्वभाविक भंगिमा में कहती है, ‘यूं ही ताना देना अच्छी बात नहीं। कहा न अब गलत नहीं
होगा।’ आदित्य हँसता है – ‘देखेंगे।’ शिंजिनी के ऐसे बर्ताव पर वह बिल्कुल भी दु:खी नहीं होता। बड़े घर
की छोटी बेटी का इस तरह का ‘डोंट केयर’ वाला रवैया अस्वाभाविक
नहीं है। पूरे घर में शिंजिनी पिता के सिवाय किसी से नहीं डरती। चाचा, चाची, चचेरी
दादी, माँ, दादी माँ किसी से भी नहीं। अत: आदित्य जैसे निरीह युवक को भला वह क्यों
पत्ता देगी ? हाँ, यह भी सही है कि वह आदित्य को डाँट-फटकार लगाने का
मौक़ा भी नहीं देती। पढ़ाई में वह बहुत अव्वल है। सब कुछ उसे आता है। हर विषय पर
उसकी अच्छी पकड़ है। सिवाय भूगोल के सवालों के।
2
माँ सुबह-सुबह क्यों पुकार रही है ? आदित्य का दिमाग गर्म हो गया। आज मंगलवार है। इस दिन
कोई ट्यूशन नहीं होती। आदित्य साढ़े आठ बजे तक सोता है। माँ सुबह-सुबह जगकर सिलाई
करने बैठ जाती है। माँ के लिए कोई भी दिन छुट्टी का दिन नहीं है। आदित्य ने बहुत
बार मना किया है। ट्यूशन के पैसों से ही तो किसी तरह गुज़र हो सकती है। क्या
ज़रूरत है ऐसी हाड़तोड़ मेहनत की। लेकिन कौन किसकी सुनता है ? पिता के गुज़र जाने के बाद किराए के घर में रहकर भी माँ
ने सिलाई के काम के बल पर उसकी परवरिश की है।
आदित्य को खूब शौक है कि माँ को पलकों पर बिठा कर रखेगा।
कुछ काम नहीं करने देगा। शायद उसका यह सपना कभी भी पूरा नहीं हो पाएगा। ग्रेजुएशन
किए उसे लगभग एक साल होने को आया है। एक भी नौकरी जुगाड़ नहीं कर पाया। सिर्फ़
ट्यूशन पढ़ाता है पूरे सप्ताह। दोनों वक्त। सिर्फ़ मंगलवार की सुबह छोड़कर। उस दिन
वह देर तक सोता है। आज भी सो रहा था। माँ की आवाज़ से नींद टूट गई। आदिय ने
विरक्ति से आँखें खोली - हुआ क्या ?
माँ को तो कह ही रखा है कि साढ़े आठ से पहले न जगाए। उसने फिर आँखें बंद कर लीं। सुबह-सुबह उठने की उसे आदत है ही नहीं। फर्स्ट ईयर में जब पढ़ता था तब अवश्य रविवार को जल्दी उठ जाया करता था। छह बजे तक नींद खुल जाया करती थी। बिस्तर पर लेटा आदित्य छटपटाता रहता। पौने सात तक वह आया करती थी। पीली सलवार, सफेद दुपट्टा। बस से उतर के उत्तम दा के कोचिंग सेंटर की तरफ बढ़ जाया करती थी। आदित्य को ऐसा लगता मानो उसके सामने कोई नदी गुज़र रही हो। मानो भीगी-भीगी सी हवा तन को स्पर्श कर रही हो। मंत्र-मुग्ध सा हो वह उस लड़की के पीछे-पीछे चल पड़ता।
लड़की
के कोचिंग सेंटर में घुस जाने के बाद वह पागलों की भाँति घर लौटता। डेढ़ घंटे बाद
फिर आ खड़ा होता रास्ते के मोड़ पर। लड़की बस स्टैंड पर लौटती। साथ में एक-दो
सहेलियां होती। सपनों की भाँति दिन गुज़र रहे थे। यह रविवारीय सम्मोहन छह महीनों
तक चला था। इसके बाद अचानक सब कुछ बंद हो गया था। वह रविवार की ही घटना थी। रोज़
की भाँति आदित्य रास्ते के मोड़ पर खड़ा था। समयानुसार लड़की बस स्टैंड पर लौटी।
साथ में थी आदित्य के घर से दो घर छोड़कर रहने वाली रीमा। रीमा हर दिन उसे बस में
चढ़ाती। संभवत: उस लड़की की इस कोचिंग
में यह बेस्ट फ्रेंड थी। आदित्य का जी चाहा कि वह रीमा से खुलकर कहे। लड़की के बस
में चढ़ते ही उसने रीमा को पुकारा।
‘क्या बात है आदित्य दा ?’
‘वो पीली सलवार
और सफेद दुपट्टे वाली तुम्हारी सहेली है .. ?’
‘आदित्य दा, मैं
इस बारे में तुमसे बात करने की सोच ही रही थी। रोज़ तुम इस समय उसके लिए ही खड़े
रहते हो न? मानसी को तुम भूल जाओ। हमारे कोचिंग के सौरभ का उससे
अफेयर है। वे लोग एक साथ बहुत सी जगहों पर घूमने भी गए हैं। मिलेनियम पार्क, नलबन –
दे लव ईछ अदर वेरी मच। सौरभ को तुम जानते तो हो ? उस मुहल्ले में रहता
है। तुम्हारे दोस्त सौगत का भाई।’
‘हाँ जानता हूँ।’
घर लौटकर शीशे के सामने खड़ा हुआ था आदित्य। शीशे में
मुंहासों से भरा अपना चेहरा देखा, कौवे के घोंसले जैसे बालों पर नज़र पड़ते ही
मानो चेतना लौट आई हो उसकी। समझ गया था कि मानसी के लिए सौरभ जैसा हैंडसम लड़का ही
ठीक है। उसके जैसे काला, पिचके गालों वाला नहीं। उसके बाद वह कभी भी रविवार की
सुबह रास्ते के मोड़ पर नहीं खड़ा हुआ। कभी भी किसी के लिए सुबह-सुबह उसकी नींद
नहीं टूटी।
माँ फिर पुकार रही है। आदित्य ने देखा घड़ी में सात बीस
हो रहे थे।
‘क्या हुआ ? आज मंगलवार है न ?’
‘तेरा फोन है।’
हड़बड़ा कर उठ बैठा आदित्य। इतनी सुबह-सुबह किसने फोन किया।
दौड़ कर रबीन की दुकान पर जा उसने फोन रिसीव किया। कहीं अमित तो नहीं है ?
‘हलो।’
‘हलो, आदित्य मैं अमित बोल रहा हूँ.....’
फोन पर बात करते हुए आदित्य का चेहरा खिल उठा था।
घर आकर माँ से लिपट गया वह। उसे लगा बाईस साल के इस जीवन
में कभी भी उसने इतनी रोशनी अपनी खिड़की से भीतर आती नहीं देखी थी।
3
आदित्य की लगभग महीना भर पहले बस में अमित से मुलाक़ात
हुई थी। अमित उसका सहपाठी और बचपन का दोस्त है। साउथ सबर्बन स्कूल में पाँचवी से
बारहवीं तक दोनों साथ-साथ पढ़े हैँ। काफ़ी गहरी दोस्ती थी। उसके बाद जो होता है,
आदित्य का घर टालीगंज में था और अमित का बेहाला में होते हुए भी कॉलेज में जाने के
बाद वैसा संपर्क नहीं रह पाया। बहुत दिनों के बाद बस में मुलाक़ात हुई थी। अमित
इसी बीच जीवन में अच्छी तरह स्थापित हो गया था। पिता के मोटरपंप के बिजनेस को और
भी बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। हल्दिया
में शीघ्र ही वे लोग एक ऑफिस खोलना चाहते हैं। आदित्य को अभी तक नौकरी नहीं मिली
जानकर अमित ने कहा – ‘ग्रेट! तो तू ही उस ऑफिस का ज़िम्मा ले ले। हमें तो
वैसे भी किसी न किसी को रखना ही पड़ेगा। तू रहेगा, यानी समझ ही रहे हो, विश्वासी
आदमी न हो तो....वहीं माँ को लेकर रहना। हमारा तो हल्दिया में भी घर है। नो
प्रॉब्लम। अपना फोन नंबर दे। मैं पिताजी से कंसल्ट करके तूझे सूचित कर दूंगा।’
‘हमारे तो फोन है ही नहीं, साथ वाली दुकान.... ’
‘वही दे दो।’
आदित्य ने सोचा नहीं था कि अमित फोन करेगा। अभी भी नौकरी
पाकर उसे यकीन नहीं हो रहा था।
परसों वे कलकत्ते से निकल पड़ेंगें। उससे पहले सभी
ट्यूशन एक-एक कर छोड़ दिए, हर छात्र के घर जाकर सूचित कर दिया। अब वह शिंजिनी के
घर पर था।
‘बहुत मुश्किल हो गई। अब नया मास्टर तलाशना.... तुम्हारे
साथ तो एडजस्ट कर लिया था।’
‘तो मैं चलूं।’
‘ठीक है। अपनी छात्रा से नहीं मिलोगे ?’
‘हाँ अवश्य।’
शिंजिनी के कमरे में कोई नही था। टेबल पर डायरी खुली
पड़ी थी। शिंजिनी बरामदे में खड़ी थी। आदित्य ने पुकारा, ‘शिंजिनी !’ गर्दन घुमा कर शिंजिनी ने देखा। हल्का सा मुस्कराई। कुछ
बोली नहीं। आदित्य भी चुप रहा। अभी-अभी नज़र से गुज़रे शिंजिनी की डायरी में लिख
रखे दो वाक्य उसके दिमाग में कौंध रहे थे। उसने गंभीर स्वर में पूछा – ‘तो चलूं ?’ जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने दरवाज़े
की तरफ कदम बढ़ाए। शिंजिनी ने कहा – ‘भूगोल का गणित बाकी रह गया। वह अक्षांश और
देशांतर का मामला।’ आदित्य हँसा – ‘वह तुम कभी भी खुद-ब-खुद
सीख जाओगी।’
तेज़ी से सीढ़ियां उतरने लगा आदित्य, दिमाग में दो
पंक्तियां लिए। दो वाक्य – ‘चले जा रहे हैं, और फिर लौट कर नहीं आएंगे।’ शिंजिनी की डायरी में लिखा था, जिस डायरी में अक्सर
शिंजिनी को कुछ न कुछ लिखते देखा था।
घर से बाहर आकर पता नही क्या सोचकर एक बार पीछे मुड़ कर
देखा आदित्य ने।
दूसरी मंज़िल की खिड़की से एक साया सा सरक गया। वह आगे
बढ़ता गया। मन ही मन कहा, ‘भूगोल का गणित सब जगह नहीं होता शिंजिनी....देशांतर,
अक्षांश... ये सब बिलकुल काम नहीं आते। मेरे काम आए क्या ? कुछ साल पहले की वह
पीली सलवार और सफेद दुपट्टे वाली अब किस अक्षांश और कितने डिग्री देशांतर पर है
मैंने जानना चाहा था। मन ही मन सोचने पर मैं रविवार की उन सुबहों तक पहुँच जाता
हूँ। तुम भी पहुँच जाना अपनी उन शामों में जिन्हें तुम भूलना नहीं चाहती। जान लो
उन सब पलों का हिसाब कभी भी किसी भूगोल के गणित के काम नहीं आता।’
साभार - ककसाड़ मासिक पत्रिका (दिल्ली), अगस्त - 2022
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लेखक परिचय
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