पंजाबी कहानी
(प्रस्तुत कहानी काश्मीर समस्या पर
केंद्रित है जिस में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस इलाके के लहू-लुहान वृतांत
को एक कश्मीरी युवती और भारतीय फौजी की मानसिकता के प्रसंग में प्रस्तुत किया गया
है।)
लहूलुहान
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बलविंदर
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
‘कितनी प्यारी रात है।’ चाँदनी रात में शांत नज़र आती पहाड़ी की तरफ नज़र
मारते हुए हरनाम ने कहा। पक्षी अपने घोंसलों में गहरी नींद में सो रहे थे।
ठंडी-ठंडी हवा के झोंकों से कंपकंपी सी लग रही थी।
‘देखना.... कहीं इश्क न
हो जाए। ’
गोरखे फौजी ने मुस्कुरा
कर कहा। उसके हाथ राइफल पर कसे हुए थे। आँखें मुस्तैद थी। चेहरा सतर्क। शरीर
बिलकुल सीधा तना हुआ, जैसे हर फौजी का होता है।
‘इश्क’ शब्द हरनाम के भीतर
सुहानी तरंग झंकृत कर गया। अल्हड़ उम्र का खूबसूरत नौजवान आज किसी अजीब से रंग में
रंगा प्रतीत हो रहा था। चाँद उसकी आँखों
में नशा बिखेर रहा था। दूर-दूर तक वृक्षों की ऊँची-नीची कतारें बड़ी रहस्यमयी
प्रतीत हो रही थीं, जैसे सैंकड़ो ऋषि किसी मौन समाधि में रत हों। जब हवा की हल्की
सी हिलोर चलती तो ऐसा प्रतीत होता मानों ऋषि रोमांचित हो कर झूम रहे हों।
‘तुम्हें नहीं लगता मानों प्रकृति का सारा सौंदर्य इस
रात में घुल गया हो ?’
‘क्या ?’
गोरखे ने आश्चर्य से
हरनाम की तरफ देखा। शायद उसे बात समझ नहीं आई थी। हरनाम अक्सर अपनी सोचों में खोया
रहता, परंतु गोरखा बेबाक बोलता रहता बिना इस बात की परवाह किए कि हरनाम सुन भी रहा
या नहीं। परंतु आज जब ड्यूटी के लिए चले थे, तो हरनाम ने पहले ही कह दिया था,
‘आज मत बोलना।’
‘क्यों ?’
‘क्योंकि आज पूर्णमाशी यानी पूर्णिमा है।’
‘मतलब ?’
‘आज खामोशी का संगीत सुनने को जी चाहता है।’
गोरखे को फिर हरनाम की
बात समझ नहीं आई, परंतु वह नाराज़गी से मुँह घुमा कर खड़ा हो गया। हरनाम ने जेब से
रम की बोतल निकाली और उसकी तरफ बढ़ा दी। हालांकि ड्यूटी पर इसकी सख्त पाबंदी थी।
वैसे वे अपने कोटे की रम कवार्टर से ही पी कर निकले थे। गोरखे की बाँछें खिल गई।
‘कम बोलूंगा, पर चुप नहीं रह सकता।’
दोनों खिल-खिला कर हँस
पड़े। दूर से अफसर के खाँसने की आवाज़ सुन हँसी का स्वर धीमा हो गया। यह वह इलाका था, जहाँ सरहद बिलकुल नज़दीक थी। बीच
में कोई तार भी नहीं थी। घुसपैठ की संभावना अक्सर रहती थी। दोनों तरफ से अक्सर
गोली-बारी होती रहती थी। अगर इधर ठहाका सुनाई देता, तो उधर से गोली चलती और अगर
उधर कोई रंगीन माहौल बनता तो इधर से गोली दाग दी जाती। दोनों तरफ की सेनाओं का
बात-चीत का यही तरीका था। पूर्णिमा की रात को दोनों तरफ से गोली का ख़याल लगभग बिसर
जाता। इस रात प्रकृति पूरे जलवे से अपने सौंदर्य की महक बिखेरती, शायद इस लिए।
ट्रेनिंग के बाद पिछले
महीने जब हरनाम पलटन के साथ यहाँ आ रहा था तो खुशी से उछल पड़ा था, ‘कितनी खूबसूरत
पहाड़िय़ां हैं।’
‘पहाड़ियां नहीं, वादियां।’
उसके अफसर ने घूर कर
कहा था। इस में एक डपट भी थी और चेतावनी भी कि अधिक उतावले होने की ज़रूरत नहीं।
‘वी आर आर्मी।’ अफसर ने सख्ती से कहा
था।
उससे अगले हफ्ते ही
उसकी चिट्ठी ज़ब्त कर ली गई थी। उसने अपने दोस्त जरनैल को चिट्ठी में एक कविता लिख
भेजी थी, जिसका सारांश यह था कि वादियों की महक हर किसी को पुकार रही है, आओ
तितलियों की भाँति आज़ाद उड़ें, आओ मुहब्बत के बीज बोएं, परंतु यहाँ हर दम भय
मंडराता है.... धरती की इससे अधिक बदनसीबी क्या हो सकती है।
कविता की एक-एक पंक्ति
पर तीखे सवाल उठ खड़े हुए थे। हरनाम को खुद भी नहीं मालूम था कि कविता के इतने
ख़तरनाक अर्थ भी हो सकते हैं। वह हैरान हुआ और थर-थर काँपा भी। मेजर ने कोर्ट
मार्शल का भय दिखा कर हरनाम से माफ़ीनामा लिखवाया था। पहली बार उसे जरनैल की बात
का अर्थ समझ आया।
जब नियुक्ति पत्र ले कर
वह दौड़ा-दौड़ा जरनैल के पास गया था, तो जरनैल उदास हो गया था, ‘कविता का क्या बनेगा?’
उसकी आवाज़ में
बुजुर्गों जैसा सयानापन और चिंता थी। हरनाम उसका सम्मान भी इसी लिए करता था,
क्योंकि उम्र में बड़ा होने के साथ-साथ साहित्य का भी गूढ़ ज्ञानी था। हरनाम को
कविता की बारीकियां समझाता। हरनाम जब भी नई लिखी कविता जरनैल को सुनाता, तो अक्सर
पहले तो जरनैल मंद-मंद मुस्कराता और फिर दृढ़ता से कहता, ‘तुम्हारी कविता अभी
शिशुओं की भाँति मासूम है.... धीरे-धीरे परिपक्व होगी।’
हरनाम की उम्र ही भला
अभी क्या थी। बारहवीं उत्तीर्ण की थी और कॉलेज में दाखिला लेने का चाव था परंतु
पिता ने हाथ खड़े कर दिए। चार एकड़ ज़मीन पर तीन परिवार पल रहे थे। साँझे खर्च में
से कोई भी हरनाम को आगे पढ़ाने के पक्ष में नहीं था। मामा सेना से रिटायर होकर आए
थे। वे हरनाम को अपने साथ ले गए। तीन
महीने फिजीकल टेस्ट की तैयारी करवाई और प्रथम भर्ती में ही उसका चयन हो गया। साऊ
और कमाऊ पूत बनने का चाव हरनाम से संभाला न जा रहा था। वह मिठाई ले कर चाव से
जरनैल के पास गया परंतु जरनैल की उदासी देख कर एक बार के लिए तो उसे घोर निराशा
हुई। उसे लगा कि शायद उनकी खुशी जरनैल को हज़्म नहीं हुई क्योंकि वह उनके
भागीदारों में से था परंतु उसकी चिंता सुन वह चुप-चाप लौट आया।
‘कविता का क्या बनेगा?’ यह तो उसने सोचा ही
नहीं था परंतु हर हालात में कविता लिखता रहेगा, वह जरनैल से वादा करके लौटा था।
ट्रेनिंग के दौरान वह
जरनैल से लगभग हर सप्ताह ही बात कर लेता। हर नई कविता सुनाता। उसकी बूटों वाली
कविता जरनैल को बहुत पसंद आई थी, जिसमें उसने लिखा था कि बूटों की ठक-ठक कविता को
चुप नहीं करवा सकती।
फिर उन्होंने बात-चीत
की अलग ही तरकीब ढूँढी, क्यों न ख़त लिखा करें। ख़त-ओ-खिताबत होने लगी, ख़त
संभाल-संभाल कर रखे जाने लगे। आज शाम भी जरनैल का ख़त आया था। उसने हरनाम के दिल
का राज़ खोल दिया। ख़त में लिखा था,
‘प्रिय हरनाम,
उम्र के जिस दौर से तुम
गुज़र रहे हो, इस उम्र में पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते....किसी के ख़्वाबों में
उड़ने को जी चाहता है... दिल किसी के नयनों की मस्ती में तर-ब-तर होना चाहता
है..... तुझे पता है यह बहारों का मौसम है ?’
ख़त में जरनैल ने हरनाम
से मसख़री की थी, पढ़ते ही हरनाम का दिल अल्हड़ युवती की भाँति धक-धक करने लगा।
उसकी आँखें शर्मा गईं और फिर शरारत से भर उठीं। बीते दिन की याद उसके अंग-अंग में
ताज़ा हो गई....
....वे एक गाँव में
तलाशी लेने जा रहे थे। वादी के तंग रास्ते में भेड़ों के झुंड ने रास्ता रोक रखा
था। सारे फौजी चौकन्ने हो गए, राइफ़लों पर हाथ सतर्क हो गए। रास्ता रोकने के पीछे
कोई साज़िश भी हो सकती थी। इस इलाके में
शक हर पल सेना के सर पर सवार रहता है।
‘गड़रिया ?..... गड़रिया कहाँ है ?’
सूबेदार अमृतसरी लहज़े
में रोब, अहंकार और घृणा से गरजा। हालाँकि भेड़ों ने रास्ता दे दिया था, परंतु
सूबेदार फिर गरजा। झाड़ियों की ओट से एक दुबली सी युवती अपनी सलवार को संवारते हुए
निकली। उसके कंधों पर लंबी शॉल थी। शॉल में उसने खुद को ऐसे समेट लिया मानो किसी
सुरक्षित कवच में घुस रही हो। सूबेदार का डील-डौल देख कर उसकी टाँगें काँपने लगीं।
आते ही बकरी की भाँति मिमियाने लगी,
‘हुजूर मैं....मैं.... ’
‘चुप !’
सूबेदार ने उसे सफ़ाई
का मौका ही नहीं दिया। गोरखा भेड़ों की तरफ मुड़ा और भेड़ों में भगदड़ मच गई।
युवती के ख़ामोश चेहरे पर लाली छा गई। उसके गोरे रंग, पतली नाक, रुई के फाहे जैसे
पतले होठों और नीली आँखों पर ख़ौफ़ का साया देख कर हरनाम को अजीब सी घबराहट हुई।
शायद युवती ने भांप लिया था। उसकी नज़र हरनाम की तरफ सरकी। पहली बार उसने किसी
युवती को इतने रीझ और गहराई से देखा था। ख़ास तौर से उसके नील नयन.... झील सी गहरी
नीली आँखों की उसने कविता अवश्य पढ़ी थी, परंतु सचमुच नीली आँखों के दीदार पहली
बार हुए थे।
वह गहराई में उतरना
चाहता था, परंतु भय का साया मानों जाल बन कर युवती क आँखों पर फैल गया था। काँपते
हाथों ने पहचान पत्र सूबेदार की ओर बढ़ाया। सूबेदार ने पहले पहचान-पत्र देखा और
आँखों ही आँखों में उसके पूरे तन की तलाशी ली। वह और भी अधिक सिकुड़ गई, मानो किसी
फूल को तपती भट्ठी की तपिश ने छू लिया हो। हरनाम बेचैन हो रहा था।
‘जाओ।’
शब्द अपने आप हरनाम के
मुँह से निकल गया, हालांकि उसे यह अधिकार नहीं था। नरमी और हमदर्दी का लहज़ा सुन
कर सूबेदार ने हरनाम को कटुता से देखा। युवती की आँखें विनम्रता से हरनाम की तरफ
उठीं और शुक्रिया के लहज़े में झुक गईं। एक पल का अंतर भी नहीं था, बस एक क्षण, जब
उसके नीले नयनों से भय का जाल सरका था और हरनाम ने हल्की सी डुबकी लगा ली थी।
अब चांदनी रात में नीली
रात को देखते हुए ऐसा लग रहा था मानो उसके नयनों का रंग पूरी वादी में घुल गया हो।
उसका जी चाहा, गोरखे को अपने दिल का हाल कह सुनाए, परंतु ख़ामोशी इतनी प्यारी थी
कि बिन बोले ही सब कुछ कहा जा सकता था। फिर भी उसके भीतर उठतीं तरंगें होठों पर
आकर गीत बन कर ठहर गईं,
‘नीले नयनों की खुमारी वे,
मस्ती का रंग छाया,
हमने लगा ली तारी
(डुबकी) वे।’
वह धीरे-धीरे गुनगुनाने
लगा। गोरखे के हाथ राइफल की बट पर ताल देने लगे।
‘कोई नई कविता लिखी है क्या ?’
‘यह कविता नहीं है, पंजाबी में टप्पा कहते हैं।’
‘टप्पा ?’
बोलते हुए गोरखे का
मुँह फूल गया। हरनाम की हंसी छूट गई। गोरखा मज़ाक के अंदाज़ में पहले से भी और
अधिक अजीब सा मुँह बना कर बोला,
‘टप्पा।’
फिर दोनों हंस दिए।
हरनाम को इस रात के समक्ष दुनिया की सभी कविताएं फीकी प्रतीत हुईं। कविता तो
प्रकृति के कण-कण में खेल रही थी। राइफ़ल के बट पर टुनकती उंगलियां भी कविता कह
रही थीं।
अचानक गोली चली। वादी
पर से हज़ारों परिंदों के पंख फड़फड़ाए....शोर करते वे उड़ गए। फिर कितनी ही
गोलियां चलीं...इधर से भी और उधर से भी। रात पहले की ही भाँति हल्की नीली थी,
परंतु संगीत शोर में बदल गया था। वादी की हरी-भरी, कोमल और पथरीले सीने पर एक
इन्सान लहू-लुहान हुआ पड़ा तड़प रहा था। उसके पास एक फूल मुर्झाया हुआ था। शायद
उसकी रुकती साँसों की पीड़ा फूल तक पहुँच गई थी। यह फूल अकेला नहीं था, बल्कि वादी
में लाखों-करोड़ों फूल और भी थे, जिन्होंने सूरज की पहली किरण के साथ अपनी
पत्तियां पूरी ताकत से आसमां की ओर फैला देनी थीं।
हल्की-हल्की सी बारिश
हो रही थी। बारीक बूँदें वृक्षों के पत्तों से सरकती और घनी घास पर से फिसलती हुई
मिट्टी को नम कर रहीं थीं। रंग-बिरंगे फूलों से महकती यह वादी सरहद से लगग तीस मील
के फासले पर थी। दुनिया भर के घुमक्कड़ यहाँ प्रकृति की गोद की गर्माहट और नज़ारे
का आनंद उठाने आते। इसकी एक तरफ से नदी की कल-कल बहते पानी का संगीत सुनाई देता।
इसके बीचो-बीच पक्की सड़क पर मस्त चाल से दौड़ते घोड़ों के खुरों की टप-टप सुरीली
तान छेड़ती। ऊपरी पहाड़ी पर जमी बर्फ़ पर जब सूर्य की किरणें पड़तीं, तो ऐसा लगता
मानो वादी के चेहरे पर रहस्यमय नूर फैला हो। सैलानी सराबोर हो यह नज़ारा देखते।
कहवा घरों से उठता धुंआँ आसमां को गर्माहट देता और ठंड से ठिठुरते सैलानी बादाम
मिला कहवा सुड़क-सुड़क कर पीते।
इस बार वैसी रौनक नहीं
थी। घोड़ों के छोटे-छोटे काफ़िले सैलानियों के इंतज़ार में सारा दिन सड़क पर लीद
बिखेरते रहते। यदि कोई इक्का-दुक्का सैलानी आ जाता, तो घोड़े वाले उसके गिर्द
मक्खियों की भाँति भिनभिनाने लगते। सैलानी नाक-भौं सिकोड़ते। अब घोड़ों के पेट
भीतर धंसे हुए थे। वे घोड़ों की बजाय टट्टु प्रतीत हो रहे थे। कहवाघरों के चूल्हे लगभग ठंडे थे। उनके
मालिक-मज़दूर सारा दिन फौजी कैंप की तरफ बिट-बिट तकते रहते। कंटीली तारों का जाल
बुन कर कैंप के चारों ओर बीस-बीस फुट ऊँची दीवारें बनी हुई थीं। भीतर से फौजी
चौकन्ना निगाहों से दूर-दूर तक चौकसी करते। जब कैंप से मिलिट्री गाड़ियों का
हथियारबंद काफिला निकलता, ढाबों के तंदूरों पर रोटी बनाते लांगरियों के हाथों में
पेड़े धरे रह जाते। उनकी सवालियां नज़रें
एक-दूसरे से ख़ामोश वार्तालाप करतीं। अगर किसी सैलानी को इसका सुराग मिलता तो वह
इस साज़िशी माहौल से काँप जाता।
काफ़ी महीनों से हरनाम
फिज़ा में पसरी इस घुटन को अजीब रौ से देख रहा था। शुक्रवार का दिन सभी सैनिकों के
लिए असह्य होता। कैंप से काफ़ी दूर एक
निचले समतल मैदान में एक मेला लगता। खचाखच भरी गाड़ियां इस मैदान में आ पहुँचती।
तंबू लगते। मनियारी की दुकाने सजतीं।
बच्चे, वृद्ध, नौजवान और महिलाएं बहुत उत्साहित दिखाई देते। नौजवान टोलियां
बना-बना कर नाचते, गाते और गाड़ियों में सवार हो कर बेपरवाही से किलोल करते।
गाड़ियां कैंप के साथ सड़क पर सारा दिन घूमती रहती। नौजवान खिड़कियों से सर निकाल
लेते, कुछ पीछे लटक जाते और कुछ छत पर बैठ कर कानफाड़ू, दिल को कंपा देने वाली
चीखें मारते। चिढ़े हुए फौजी अपने दाँत पीसते। हरनाम को उनकी आँखों की लाली बहुत
चुभती। उसकी नसें तन जातीं। राइफल पर
हाथों की पकड़ और मजबूत हो जाती। कुत्ते रोते और बीयाबान में उल्लू बोलते उसने
बहुत सुने थे परंतु ये डरावनी और नफ़रत भरी दहाड़ें उसके भीतर शोर मचातीं। यह अजीब किस्म का तमाशा उसकी समझ से बाहर था।
आज शुक्रवार था। हरनाम
की नज़र गाड़ी की छत पर किलकारियां मारते नौजवान को ताड़ रही थीं। वह मुट्ठियां
भींच-भींच कर कैंप की तरफ शोर मचा रहा था। उसके चेहरे पर गिर रहीं बूंदें पसीने
में मिल जा रही थीं।
‘गोली से उड़ा दूंगा सालों को।’
राम प्रसाद पान थूकते
हुए गुस्से से गुर्राया। आँखों में हिकारत थी। सामने ऊपर की तरफ जाती पगडंडी पर
अंग्रेज युगल कलोल करता जा रहा था। हरनाम कितनी देर तक उनकी चुहलबाजियां देखता
रहा। पतली लंबी गोरी युवती आसमां की तरफ बांहें फैलाए झूम रही थी। एक टिमटिमाता
ख़याल हरनाम को हिलोर सी दे गया।
काश वह भेड़ें लेकर इस
रास्ते से गुज़रे।
कितने अर्से बाद आज
उसकी याद का झोंका आया था। नीली आँखों का प्यारी सी झलक दिखी थी। पल भर में ही
मीठी सी लहर तरंगित हो उठी। मौसम और भी हसीन हो गया था।
पूनम की कितनी ही रातें
आईं और गुज़र गई थीं। आसमां की चाँद-तारों से सजी चादर की तरफ कभी उसकी नज़र ही
नहीं उठी थी। सीने के भीतर एक घाव सा रिसता रहता था। उसका दिलदार यार गोरखा जुदा
हो गया था। उस रात गोरखे का तड़पता फड़फड़ाता जिस्म उससे देखा नहीं जा रहा था।
गोरखे को संभाले या गोलियों की बौछार करे? दुविधा से वह घबरा गया
था। एक गोली हरनाम के कान के पास से सांय से गुज़र गई। फिर तो मानों पागलपन सा छा
गया था। वह चीखता.....ललकारता हुआ अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए......ज़ोर-ज़ोर से
भागा। आगे झाड़ियों के पत्तों को चीरते
हुए गोलियां आ रहीं थीं। वह बेख़ौफ़ दौड़ा चला जा रहा था। कुछ ही कदमों पर एक शरीर
ने तड़पते हुए दम तोड़ दिया। हरनाम समेत पाँच फौजी उसके शव पर बंदूकें तान कर खड़े
हो गए।
‘मर गया साला !’
राम प्रसाद ने उसकी लाश
पर थूका। हरनाम को मानो तसल्ली न हुई। उसने मैग्ज़ीन भरी और सूबेदार के रोकने के
बावजूद लाश में छेद कर दिए। राम प्रसाद ने उसे बड़ी मुश्किल से काबू किया।
अगले दिन उसे बुखार हो
आया। कई दिन वह काँपता, ऊँघता और सिसकियां भरता रहा। कभी उस दहश्तगर्द नौजवान के तीखे नैन-नक्श, ताज़ी
फूट रही मूँछें, सर पर लंबे घुंघराले बाल और खून से लथपथ लाश बार-बार उसके ख़यालों
में साकार हो उठते। कभी गोरखे के शरीर से खून की गर्म धाराएं उसे भीतर तक कंपा
देती। दोनों के चेहरे धुंधले होकर गड्ड-मड्ड हो जाते। वह भूलने की कोशिश करता
परंतु बेचैनी पीड़ा बन जाती और वह आहें भरता.. करवटें लेता।
गोरखे की छोटी-छोटी
शर्मीली आँखों को भला वह कैसे भुला सकता था। उसके छोटे कद, गोल-मटोल चेहरे और
फुर्तीले बदन में हर वक्त तरोताज़गी रहती। छेड़खानी के मामले में वह किसी को नहीं
बख्शता था। वे दोनों हँसते-हँसाते
गुत्थमगुत्था हो जाते। पहलवानों की भाँति एक-दूसरे को बहुत देर तक गिराए रखते। कान
मसल-मसल कर सूहा लाल कर देते। कभी-कभी उदास होकर अपने दु:ख-सुख बाँट लेते। इस
साँझेदारी और स्नेह में निर्मलता और गहनता थी, एक-दूसरे की फ़िक्र थी और शायद
ज़रूरत भी। यादों के झोंके बावरोले बन
जाते और उसका सर चकराने लगता। सूबेदार उसकी हालत से बहुत ऊब चुका था। एक रात
गुस्से में उसने हरनाम की रजाई उठा कर परे फेंक दी और कॉलर से पकड़ कर खड़ा कर
लिया –
‘यह क्या तमाशा है?’
उसकी अमृतसरी लहज़े की
हिन्दी हरनाम को बहुत अजीब और हास्यास्पद लगी।
‘सेना का जवान चट्टान की तरह सख़्त और ताकतवर होना
चाहिए। चाहे खून की नदियां बह जाए, मगर देश का सच्चा सिपाही..... ’
सूबेदार ने लंबा भाषण
दिया था। उसके तल्ख़ और रोबीले शब्द हरनाम के सर के ऊपर से निकल गए। उसे या तो घुटनों में सरसराती पीड़ा सता रही
थी, या फिर सूबेदार के फड़कते होंठों के ऊपर घनी मूँछों की अजीब हलचल परेशान कर
रही थी। सूबेदार ने राम प्रसाद को स्थाई तौर पर नत्थी कर दिया था और उसकी हर हरकत
की ख़बर देने का हुक्म दिया।
राम प्रसाद का रंग गहरा
और चेहरा तेज़-तर्रार था। उसके बोलचाल में हमेशा सख्ती और घृणा का समावेश रहता।
सारा दिन दाँत पीसता रहता -
‘गोली से उड़ा दूंगा सालों को।’
यह उसका तकिया कलाम था।
गोरखे से उसकी झड़प होती रहती थी। गोरखा उसे इस तरह देखता, जैसे तीखी शरारत कर रहा
हो। परंतु सामने से राम प्रसाद की आँखों में क्रोध दिखता। जब राम प्रसाद जज़्बे की
रौ में देश-भक्ति गीत गाता -
‘मर मिटेंगे देश की ख़ातिर।’ तो गोरखा आगे से जोड़
देता,
‘मर मिटेंगे पेट की ख़ातिर।’
राम प्रसाद उसे गालियां
देता। और गोरखा हँस – हँस कर दोहरा हो जाता। हरनाम इस प्यारी सी नोंक-झोंक का खूब
आनंद लेता। एक राक राम प्रसाद गोरखे को याद कर बहुत रोया। उसने कुछ ज्यादा ही पी ली थी। हरनाम गोरखे का
मीठा सा गीत गाता रहा, जो उसने अपने पिता से सुना था और उसके पिता ने अपने पिता
से....। गोरखे के पुरखे चरवाहे थे, जो नेपाल की पहाड़ियों पर भेड़ें चराते हुए
कई-कई कोस का सफ़र तय करते थे। यह चरवाहों का गीत था, जिस में भेड़ का बच्चा अपने
विलाप करते हुए अपने मालिक को अपने हिस्सेदार से सुलह करने की विनती करता है। पहले
दोनों एक साथ बड़े झुंड की देख-भाल करते थे, परंतु तकरार होने के बाद दोनों आपस में
झुंड को आधा-आधा बाँट लेते हैं जिस कारण भेड़ के बच्चे के साथी बिछुड़ जाते हैं।
उसका जी नहीं लगता और वह विलाप करते हुए अपने साथियों को पुकारता है ताकि वे भी
अपने मालिक से सुलह करने के लिए कहें। गोरखे का यह गीत हरनाम को इतना प्यारा लगा
कि उसने उसी वक्त उसका पंजाबी में तर्जुमा कर लिया। हालांकि राम प्रसाद को यह गीत
कभी पसंद नहीं आया, परंतु उस रात हरनाम के कंपकंपाते होठों से यह वैराग्यपूर्ण गीत
सुनता रहा और आँसू बहाता रहा।
अगले दिन राम प्रसाद ने
अजीब सी सख्ती अख़्तियार कर ली, मानो रात की भावुकता का पश्चाताप कर रहा हो। हरनाम
गुम-सुम रहता और राम प्रसाद हर वक्त दाँत पीसता रहता।
आज जब वे अपने
इर्द-गिर्द पसरे सहम और रोष को महसूस कर रहे थे तो वे इस बात से शायद ही वाकिफ़ थे
कि सब कुछ अचानक नहीं हुआ। बल्कि लगभग आधी सदी से घटनाक्रम की लंबी श्रृंखला बनती
आ रही थी जो तनाव और टकराव की चिंगारी को कई तरफ से हवा दे रही थी। क़त्ल,
बलात्कार, पत्थरबाज़ी, सरहद पर होते हमले और घुसपैठ की घटनाएं इतनी आम और शरेआम हो
गई थीं कि अख़बारों की अहम् सुर्खियां बनने के बावजूद किसी को हैरानी नहीं होती थी।
घटनाओं की इस गड़बड़ी
में हरनाम बुरी तरह उलझ गया था। हार कर उसने अपने भीतर मानो गहरी खाई खोद ली थी और
सब कुछ से दूर होकर बैठ गया था। यहाँ तक कि खुद से भी। जरनैल के लगातार कई ख़त आए
थे। उसने हरनाम के जवाबी ख़त न लिखने पर अपनी नाराज़गी व्यक्त की थी। किसी नई कविता
के इंतज़ार में जरनैल हरनाम को टटोलने की बार-बार कोशिश कर रहा था। अंतत: हरनाम ने दो पंक्तियों
का जवाब लिख कर पिंड छुड़ाया।
‘अभी बहुत व्यस्त हूँ, फ़ारिग हो कर लिखूंगा, सब्र
रखो।’
उसके शब्दों में रूखापन
था। करता भी क्या? जरनैल को लिख भेजने के लिए उसके पास कुछ था ही नहीं
भेजने के लिए। कविता आती ही नहीं थी मानों उससे रूठ गई हो। पहले की लिखी कविताएं
भी पराई-पराई सी लगतीं। कभी हैरानी होती, कभी संशय होता और कभी सब कुछ निरा झूठ और
बकवास प्रतीत होता।
जिस तरह लंबे सूखे के
बाद हरी-भरी वादी सूख और पथरा जाती है और लंबे अरसे के बाद यह कल्पना करना भी मुश्किल हो जाए कि
कभी इस धरती पर हरियाली रही होगी। हरनाम
की हालत लगभग ऐसी ही ही गई थी परंतु सूखी धरती को हमेशा बारिश का इंतज़ार रहता है।
इस तरह हरियाली की उम्मीद भी बनी रहती है।
बूँदा-बाँदी का संगीत
सुन कर और प्यार में रंगे उस जोड़े को देख कर हरनाम के भीतर भी हलचल सी हुई। होंठ
खुद-ब-खुद गुनगुनाने लगे –
‘देख बरसती बूँदें रे,
तेरी जुदाई हीरीये,
हमारे दिल पर क्या बीते
रे।’
उसका स्वर धीमा था
परंतु मिठास गहरी थी। राम प्रसाद और भी चिढ़ गया। उसने देखा हरनाम की आँखों पर नमी
की हल्की सी परत बिछ गई थी। इतने तनावपूर्ण और शोर वाले माहौल में हररनाम के इस
रोमांच से उसे बहुत चिढ़ हुई। गुस्से से मुँह घुमा लिया। हरनाम अभी भी उस पगडंडी
की तरफ ध्यान से देक रहा था। बारिश की
बूँदें मोटी, और घनी तथा तेज़ हो गईँ। सामने एक रिक्तता थी। हरनाम ने उसमें कल्पना
का रंग भरना चाहा....
....वह शॉल लहराते हुए
बारिश में भीगती हुई आती है। नीली आँखें इशारा करती हैं। हरनाम कंटीली दीवार के
ऊपर से छलाँग मार कर उसकी तरफ दौड़ता है। इतनी ऊँची छलाँग देख कर वह खुशी से झूम
उठी है। उसने अपना शॉल हरनाम की तरफ उछाल दिया। हरनाम नाचे बगैर न रह सका। उसकी
दीवानगी जैसी मस्ती देख वह खिल-खिला कर हँस पड़ी....
‘चलो।’
‘कहाँ ?’ उसने राम प्रसाद के गुस्सैल चेहरे
की तरफ देखा, जे परेशान और घबराया सा दिखा। कैंप में अचानक हलचल तेज़ हो गई।
गाड़ियां स्टार्ट थीं। हथियारबंद वाहन भी तैयार खड़े थे। राइफलों से लैस जवान
गाड़ियों में सवार हो गए। हूटरों का चेतावनी भरी आवाज़ सुनकर बाहरी शोर मंद पड़
गया और दूर-दूर तक सड़क लगभग सूनी हो गई। अगर कोई वाहन या घोड़ों का क़ाफ़िला
मिलता, तो वह जल्दी-जल्दी रास्ता दे देता। उनकी यह गति बहुत ही असहज और असुखद लग रही थी। बूँदा-बाँदी थम गई। बादल ऊँचे
हो रहे थे। उनकी दरारों में से लुकाछिपी
खेलती सूरज की रोशनी वादी की हरियाली को कभी गहरा और कभी फीका कर रही थी।
हरनाम को अपने
इर्द-गिर्द ख़तरा मंडराता महसूस हुआ। ऐसा ख़तरा जो व्यक्ति को चौकन्ना कर दे, खून
में गर्मी भर दे और चेहरे पर तनाव, ख़ौफ़ और गुस्से के मिले-जुले भाव अंकित कर दे।
राम प्रसाद की तरफ देख वह मुस्कुराए बिना न रह सका। उसके चेहरे की तल्ख़ी पल-पल
बदल रही थी। आस-पास कितने ही चेहरे थे जिनमें से किसे विरले का ही होश ठिकाने था।
किसी के ख़याल गाड़ी से आगे दौड़ रहे थे और किसी का ध्यान पीछे बहुत दूर लौट गया
था। किसी की बंद आँखों से यूं लग रहा ता, मानो अपने इष्टदेव का ध्यान कर रहे हों।
कुल मिलाकर ऐसा लग रहा था, मानो सब ने अपनी कल्पना की डोरें खोल दीं हों, ताकि मन
तरोताज़ा हो जाए और वे पूरे होश-ओ-हवास से मुक़ाबला कर सकें। गुम चेहरों को देखकर
हरनाम के भीतर ताज़गी का अहसास जगा। ऐसी ताज़गी जिसमें मस्ती का मीठा सा सरूर हो
और होश बरकरार हों। हर शै ऐसी नज़र आए, मानो वह अपने वास्तविक रूप में हो। सुंदर
आकारों में रूप बदलते बादल और बेलों से सजी वादी दिल में मीठी-मीठी सी झनझनाहट
छेड़ गई। ढलान पर भेड़ों का झुंड नज़र आया।
‘हाय रब्बा ! वही हो !’
दीदार की प्यास भड़क
उठी। मोड़ मुड़ने से पहले वह लहराते शॉल
में से उसका चेहरा देख लेना चाहता था। खुशनसीबी का यह पल शायद फिर कभी नसीब न हो !
‘काश ! वह मुड़ कर मेरी तरफ देख ले !’
परंतु वहाँ एक वृद्ध चरवाहा था, जो भीगी हुई लोई
को हवा में झाड़ रहा था। लालसा, बेसब्री और पीड़ा ने उसका सीना छलनी कर दिया। दिल
उदास हो गया। हृदय के अंधेरे कोनों में ऐसी स्मृति तलाशने लगा, जिस से राहत और
तसल्ली मिले। कल्पना में धुंधले-धुंधले से साये उभरे....
....उस वक्त शायद इसी
रास्ते से गुज़र रहे थे। हाँ बिलकुल.... यही रास्ता था। तब हरनाम बीमारी से पूरी
तरह उबर नहीं पाया था। कमज़ोरी अभी भी हड्डियों में चुभती थी। सचमुच यही जगह थी।
वो सामने समतल चारागाह पर वह भेड़ों के जल्दी-जल्दी ललकारते हुए चोर निगाहों से
उसे तक रही थी। परंतु आगे हरनाम उदासी से इस तरह देखता रहा, मानो दुनिया की हर शै
उसके लिए बेअसर हो।
आज उसे बेहद अफ़सोस
हुआ। उसे उस तरह क्यों नहीं देख पाया था, जैसे अभी देखने के लिए उतावला हो रहा है।
उसका दिल बेकाबू हो गया और बेवजह गुज़रे वक्त में भटकने लगा। निगाहें कपास रंगी
बादलों में गुम हो गईं। बादलों से बर्फ़ का ख़याल आया। बर्फ़ से पहाड़ी....।
पहाड़ी से नदी और नदी से सपने की याद आई।
...वह घने जंगल में
रास्ता भूल गया था। उमस इतनी थी कि साँस
रुकती थी। कंटीले रास्तों पर बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। अंतत: नदी के किनारे जा खड़ा
हुआ। बेसब्रों की भाँति पानी पीने लगा। जब रंग देखा तो वह खून की नदी थी...। वह
भड़क उठा। प्यास से होंठ सूख चुके थे। होंठों से गोरखा याद हो आया। जब वह होंठों
पर जीभ फिराते हुए हरनाम के पास आया था,
‘कैसा लगा ?’
‘मज़ा आ गया।’
‘मज़ा कैसे न आए.... एक तो नर्म-नर्म भेड़, तिस पर
नेपाली बाबू का तड़का !’
सुनते ही माँस का
लोथड़ा हरनाम के हलक में फँस गया था। साँसें अटक गई थीं। फिर इतनी बुरी उल्टी आई कि आँतें खिँच गईँ।
आँखों में पानी भर आया। दिन में उसने महकते हुस्न का दीदार किया था। शाम को सरूर
में उसके होश-ओ-हवास गुम थे और रात को सारा स्वाद।
और कितने ही ख़याल
गाड़ियों की रफ़्तार के साथ उसके भीतर दौड़ रहे थे। बुलेट प्रूफ जैकट की डोरियां
कसती जा रही थीं। हर हाथ बेचैन था। आस-पास
इतनी तेज़ी के बावज़ूद हरनाम बेहरकत खड़ा था। उसकी नज़रें तेज़ी से पीछे खिसक रही
सड़क की तरफ थीं, जो लगभग सुनसान थी। अगर कोई एक-आधा राहगीर नज़र भी आता, तो उसकी
चाल तेज़ प्रतीत होती। यहाँ तक कि सड़क के
साथ-साथ बहते नाले का गंदा पानी भी पहले से तीव्र प्रतीत हो रहा था। उसमें से उठती
दुर्गंध भाप की भाँति हवा में घुल रही थी।
अब वे दिन लद चुके थे,
जब रंग-बिरंगे रेशमी शालों वाली महिलाएं इन राहों पर चिड़ियों की भाँति चहकती थीं।
बच्चों की किलकारियों में पहले सी बेपरवाही भी नहीं थी और न ही फौजी बूटों की
ठक-ठक में पहले सी बेपरवाही थी। बहुत थोड़े समय में हर शै अपने नग्न रूप में सामने
आ गई थी, बिलकुल गंदगी के ढेर की भाँति....।
फिलहाल हँसी किसी गहरे
सदमे में खोई प्रतीत होती थी। ज़ख़्मी हुए रीछों की भाँति दहाड़ें थीं और नटखट
बंदरों जैसी ज़िद भी। रात को सुनसान गलियों में उल्लू बोलते थे या फिर कानफाड़ू
धमाके सुनाई देते थे। किस जंगल, किस शहर, किस गली और किस कोने में कौन घात लगाए
बैठा है, कुछ पता नहीं था। हर चेहरा साज़िशी प्रतीत होता था और हरेक आँख में लाली
नज़र आती थी। ऐसा लगता था मानो गर्म कुर्तों की लंबी आस्तीनों में छुपे हाथ खाली
नहीं थे और न ही खुले थे, बल्कि हर हाथ बंद मुट्ठी में बदल गया था।
हर तरफ ‘हाई अलर्ट’ था।
अंतत: वह जगह आ ही गई, जहाँ पहुँचने के लिए गाड़ियां
बेसब्री से दौड़ी थीं। हरनाम ने देखा, हर तरफ भगदड़ थी। दुकानें बंद थीं। लगातार हर शटर पर नारे अंकित
थे। यह एक खुली सड़क थी, जहाँ से थोड़ी दूरी पर एक चौराहा था। चौराहे के बीच पुलिस की गाड़ी से लपटें उठ रही
थीं। साथ ही कॉलेज था। कॉलेज के भीतर सैंकड़ों विद्यार्थियों ने घमासान मचा रखा
था। उनकी दहाड़ें कॉलेज के भीतर भी गूंज रही थीं और बाहर भी। ईंट, पत्थर जो भी
उनके हाथ में आता, उसे बारिश की भाँति बरसा रहे थे। सेना बार-बार पस्त हो रही थी।
काबू करे तो कैसे ? आँसू गैस के गोलों, गुलेलों और हवाई फायरिंग कभी
उन्हें कॉलेज के भीतर धकेल देती और कभी उनकी तरफ से बरसाए जा रहे लगातार पत्थर फौज
को पीछे हटने के लिए मजबूर कर देते क्योंकि चौराहे पर फौज के पास केवल एक ही
हिस्सा होता जबकि वे तीनों तरफ से भयानक हमला करते। राम प्रसाद गुलेल से निशाने
लगा रहा था। हरनाम कभी भीड़ के दाईं तरफ गोले फेंकता तो कभी बाईं तरफ। इधर एक
पत्थरबाज काबू आ गया था। उसकी हो रही दुर्गति देख कर ख़लकत की चीखों ने आसमां सर
पर उठा लिया था। किसी के हाथ में लोहे की
रॉड थी। किसी ने सड़क के बीचो-बीच ज़मीन पर पटक-पटक कर बेंच चूर-चूर कर दिया
था। उसके बिखरे टुकड़ों को किसी ने हथियार
बना लिया था। कोई दीवार पर खड़े होकर ललकार रहा था। कोई धुआँ छोड़ते गोले को वापिस फेंक मारता।
सूबेदार गरज रहा था। हरनाम और साथी पूरा ज़ोर लगा रहे थे। एक लड़की की तरफ बार-बार
उसका ध्यान जा रहा था। वह नितंबों पर दोनों हाथ मारते हुए आगे बढ़ती... कभी पीछे
हटती... कभी मुट्ठियां भींच-भींच कर चीखती... इधर-उधर दौड़ी फिरती। गुलेल का
निशाना उसकी आँख को बींध गया। खून की धाराएं फूट पड़ीं और उसका छरहरा बदन दर्द से
दुहरा हो गया।
‘यह तो वही है !’ हरनाम के भीतर से मानो
कोई चीख उठा।
‘वही शॉल....वही चेहरा....वही नीली आँखें।’
‘नहीं, नहीं.... यह नहीं हो सकता।’
उसने मानो अपने भीतर से
आ रही आवाज़ का मुँह बंद कर दिया हो। परंतु वह और ज़ोर से चीख उठा –
‘वही है.... वही है....!!!’
उसकी आँखों के समक्ष वह
ज़ख्मी साँप की भाँति ज़मीन पर करवटें ले रही थी। हरनाम ने आँखें मूंद लीं, परंतु
युवती का चेहरा मानो उसके भीतर धँस गया और आँख से फूटती खून की धार उसे भीतर तक लहू-लुहान कर गई। एक पत्थर हरनाम के माथे पर
आ लगा। अब बाहर भी ज़ख्म था और भीतर भी। आँखों के समक्ष सब कुछ धुँधला हो गया था।
धुँध में दो आँखें थीं.... एक जो देख सकती थी और एक अंधी।
हरनाम ने पूरा ज़ोर लगा
कर फिर से देखना चाहा – युवती का एक हाथ आँख पर था और दूसरे हाथ से पत्थर बरसा रही
थी।
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लेखक
परिचय
बलविंदर
पं पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला से पत्रकारिता और जनसंचार में एम. फिल। एक दशक से रंगमंच
से जुड़ाव तथा पंजाबी फिल्मों में अभिनय। नाटक साहिबा मिर्ज़ा का लेखन और मंचन। नाद रंगमंच के संचालक।
पंजाबी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। सरगर्म लाहौरिए, रॉकी मेंटल, ननकाणा,
भज्जो वीरो वे, नाढू खां, तुनका तुनका आदि पंजाबी फिल्मों में अभिनय। भाखड़ा और परज़ात
कुड़िए फिल्मों के संवाद और पटकथा लेखन।
ईमेल संपर्क – bulletbalwinder@gmail.com
पता
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