पहरेदारी
0 रघबीर सिंह मान
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
गाँव से हटकर शहर की तरफ की सड़क पर खेतों में बनी सरदार जरनैल सिंह की कोठी
का मैंने छोटा गेट खोला। कोठी के आँगन में सरसरी नज़र डाल कर गेट बंद किया और
धीरे-धीरे चलते हुए आँगन में रखी कुर्सियों के पास पहुँची ही थी कि सरदारनी
इंदरजीत कौर लॉबी का दरवाज़ा खोल भीतर से बाहर आई। उनके हाथ में चाय का गिलास था।
मुझे देख वे कुर्सियों के पास खड़ी हो गईं। मैंने पास आकर उनका अभिवादन किया।
“मीतो, भीतर से अपने लिए चाय लेकर यहीं आ जाओ।” सरदारनी ने मुझे
कहा, और एक कुर्सी खींच कर बैठ गईं। मैंने रसोई में जाकर गिलास में चाय उड़ेली और
सरदारनी के पास आ खड़ी हो गई।
“बैठ जा.....।” सरदारनी ने मुझे खड़ी देख कुर्सी की तरफ इशारा किया। वे
मुझे हमेशा अपने बराबर बिठा लेती थीं। अपनों की भाँति बर्ताव करतीं, मालकिन और
नौकरानी की भाँति नहीं।
“मीतो, परसों तुम शाम तक यहीं रहना।” सरदारनी ने चाय का
घूँट भरते हुए ठसक से कहा।
“बीजी शाम तक ?” मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए कहा।
“हाँ, शाम तक।” सरदारनी ने सीधे मेरी आँखों में देखते हुए कहा।
“वह क्यों ?” मैं अक्सर दोपहर एक बजे काम ख़त्म कर अपने घर चली जाती थी। अगर सरदारनी को
कभी किसी काम से बाहर जाना होता तो कोठी की साफ़-सफ़ाई का काम ख़त्म होने तक शहर
से वापिस आ जाती थीं। शाम तक तो मैं कभी
कोठी में रुकी ही नहीं थी।
“मीतो, तुझे याद नहीं, परसों मेरी जैतपुर वाली बहन के दोहते (दोहित्र) की शादी
है।” सरदारनी ने हँसते हुए कहा।
“अरे हाँ, बीजी मुझे तो याद ही नहीं था।” मैं भी सर पर हाथ
मार कर हँस पड़ी। और हैरान भी थी कि मुझे याद कैसे नहीं रहा ? शादी का कार्ड तो वे मेरे सामने ही दे गए थे।
“परसों मैं, सरदार जी और रोज़ी शादी पर जाएंगे। सफ़र दूर का है। लौटने में शाम
हो जाएगी। जाना अपने हाथ में होता है और लौटना उन लोगों के। मीतो, तुम हमारे लौटने
के बाद ही घर जाना।”
“कोई बात नहीं बीजी, मैं परसों को शाम तक यहीं रहूँगी।” मैंने हमेशा सरदारनी
का हुक्म सर-माथे पर लिया था। कभी ना-नुकुर नहीं की थी। इस बात पर वे मुझसे बहुत
खुश थीं।
“मुझे तुझ पर भरोसा है मीतो।” सरदारनी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। दृढ़ता से
फिर कहा, “तभी तो तुम्हारे सहारे घर छोड़ कर चली जाती हूँ। तुम्हारे रहते मुझे पीछे की
ज़रा भी फिक्र नहीं रहती।”
“बीजी, अब ज़माना बहुत ख़राब है। घर सूना छोड़ने का समय नहीं।” हर रोज़ होने वाली लूट-मार और चोरियों की ख़बरों से मैं भी फ़िक्रमंद थी।
“आज कल नशेड़ियों का क्या पता मीतो, सूना घर देख कर कहीं हाथ ही न साफ़ कर
जाएं। मुहल्ले में घर हो तो फिर डर नहीं होता। हमारे तो आस-पास कोई घर ही नहीं है।” सरदारनी ने बाहर की तरफ देखते हुए कहा। “तुम परसों बच्चों को
छुट्टी के समय स्कूल से सीधे यहाँ ही बुला लेना। उन्हें आकर जो भी खाना होगा, बना
कर दे देना। झिझकना मत, सब कुछ है घर में। दयाल तो शाम को देर से ही आता है न ?” सरदारनी ने पूछा।
“हाँ बीजी, उनको आते-आते अंधेरा हो जाता है।”
“तब तक तो हम आ ही जाएंगे।”
“सैंडी नहीं जाएगा शादी में ?” मैंने बात बदलते हुए सरदारनी के कॉलेज पढ़ते
बेटे के बारे में पूछा।
“नहीं, सैंडी नहीं जाएगा। उसके इम्तहान सर पर हैं। कहता है इम्तहान की तैयारी
करनी है।” सरदारनी ने कहा। “मीतो, उसकी मर्ज़ी है। मर्ज़ी का मालिक है वह।
परंतु उसके सहारे मैं घर नहीं छोड़ सकती। वह कहीं घर पर टिक कर भी बैठता है ? बहुत लापरवाह है। वह कहता कुछ है और करता कुछ और है।” कहते हुए सरदारनी
उठी और फूलों की क्यारी में पाइप से पौधों पर पानी का छिड़काव करने लगी। मैं भी
लॉबी का दरवाज़ा खोल रसोई में चली गई।
सरदार खेती के साथ-साथ शहर में कोई ठेकेदारी भी करता है। कोठी के चारों तरफ
ऊँची चहारदीवारी बना रखी है। बड़ा सा लॉन है। कोठी में भाँति-भाँति के फूलदार और
सजावटी पौधे लगे हैं। उनकी देख-भाल के लिए हफ्ते बाद माली आता है। कोठी का पूरा
आँगन हरियाली से भरा पड़ा है।
सरदार के लाखों काम हैं। आमदनी का कोई हिसाब-किताब नहीं है। घर में किसी चीज़
की कमी नहीं। आँगन में दो गाड़ियां खड़ी हैं, एक सरदार की और दूसरी उसके बेटे
सैंडी की। सैंडी के पास बुलेट मोटर साइकिल भी। एक ऐक्टिवा भी खड़ी है। कोठी के साथ
ही हवेली भी है। कोठी के आँगन में से ही
एक दरवाज़ा है हवेली में जाने के लिए। खेती बाड़ी का सारा ताम-झाम और पशु-मवेशी
हवेली में ही है। नौकर हवेली में ही रहते
हैं। अगर नौकरों को किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वे हवेली से घंटी बजा देते हैं। कभी
कोठी में नहीं आते। सरदार की सारी ज़मीन कोठी के पिछवाड़े में ही है।
ठेकेदारी के सिलसिले में सरदार का मेल-जोल शहर के बड़े-बड़े खाते-पीते लोगों
के साथ है। कोठी में कोई न कोई आया ही रहता है।
किसी को जूस, किसी को कोल्ड ड्रिंक और किसी को चाय या कॉफ़ी पिलाई जाती है।
सरदार के आगंतुकों के लिए एक अलग कमरा है, वहाँ एक बड़ा सा फ्रिज रखा है, उसमें
बीयर और शराब की बोतलें रखी होती हैं। यह फ्रिज सिर्फ़ सरदार के लिए है, रसोई में
अलग फ्रिज है। गर्मी के मौसम में बीयर की खाली बोतलों के बोरे भर कर कबाड़ियों को
बेचे जाते हैं।
सरदारनी की बिटिया रोज़ी भी क़लेज में पढ़ती है। कॉलेज जाते समय उसकी पोशाक
देखने लायक होती है, मानो मॉडलिंग करने जा रही हो। कद-काठी में पिता जैसी ही लंबी,
रंग-रूप माँ जैसा गोरा, चिकना चेहरा, सुडौल छाती, मोरनी जैसी गर्दन, पतली कमर और
भरवां बदन। उसकी खूबसूरती देखते ही बनती है।
कॉलेज से लौट कर वह ज़्यादा अपने कमरे ही घुसी रहती है। लैपटॉप पर नेट खोले
रखती है। उसके कमरे में पोंछा लगाते समय अगर कोई कॉल आ जाए तो मेरी हाज़िरी में वह
इतनी धीमी आवाज़ में बात करती है कि मुझे भी उसकी बातें नहीं सुनाई देती। एक बार
मैंने उसे बात करते हुए मोबाइल को चूमते हुए भी देखा था। मुझे यकीन हो गया उसके
कहीं अफेयर चल रहे होंगे।
वह सलवार सूट तो कभी गुरूद्वारे जाते समय ही पहना करती थी। अक्सर जीन टॉप ही
पहनती। जीन में उसके नितंब किसी पहलवान की भाँति लगते। घर में वह अक्सर कैपरी और
टी शर्ट ही पहनती। टी शर्ट में से बाहर निकले उसके सुडौल वक्ष देख कर मैं शरमा कर
सोचती कि इसे शर्म नहीं आती होगी। परंतु वह, सबके सामने बेझिझक घूमती रहती। घर का
कोई भी सदस्य उसकी पोशाक पर न तो ध्यान देता और न ही टोकता था।
सरदारनी घर में मेहमानों की तरह सजी-संवरी रहती है। स्वभाव बहुत अच्छा है।
दरियादिल है। मुझे कभी अपनी काम वाली नहीं समझा। किसी त्योहार पर खुशी से मुझे
दो-चार सौ झट से थमा देती हैं। कोई न कोई चीज़ लिफ़ाफ़े में डाल कर मेरे बच्चों के
लिए रख छोड़ती हैं। कहेंगी, मीतो, जाते समय यह बच्चों के लिए ले जाना। कभी बहुत
खुश होती हैं तो फेरी वाले को कोठी में बुला कर मुझे एक सूट ले देती। मेरी
निर्धारित पगार अलग से देतीं। वे मेरी आदतों, स्वभाव और चाल-चलन की क़ायल हैं।
अक्सर मुझ पर भावुक हो कर मेरी तारीफें करती रहती हैं।
सरदार कटी दाढ़ी रखता है। हफ़्ते बाद उसे रंगता भी है। हमेशा नौजवानों की
भाँति बन-ठन कर रहता है। देखने में युवा लगता है। एल ई डी पर पंजाबी गीत सुनता
रहता है। फिल्में भी देखता है। वह टच स्क्रीन मोबाइल इस्तेमाल करता है। कई बार
आँगन में बैठा मोबाइल पर उंगलियां मारते हुए फेसबुक और व्हॉटस् ऐप में मग्न रहता
है। उस वक्त सरदारनी ज़रा खीझ कर उसे कहती है –
“फेसबुक का पीछा छोड़ दीजिए अब, उठ कर हवेली का चक्कर लगा आईए। नौकरों की
निगरानी भी किया कीजिए। नौकरों के सर पर खड़े रहो तभी काम करते हैं।”
सरदार मुझे अय्य़ाश और ठरकी स्वभाव का लगता है। जब मैंने इस घर में साफ़-सफ़ाई
का काम शुरू किया तो मैं अपना दुपट्टा कोठी के आँगन में पड़ी कुर्सियों पर रख देती
थी और पोछा लगाने लगती। स्वभाविक रूप से मेरी शक्ल-सूरत आकर्षक है। हमारे पूरे
परिवार का रंग गोरा है और नैन-नक्श भी आकर्षक हैं। मैं सस्ते कपड़ों में भी खूब
जंचती हूँ। सरदार बार-बार मेरी तरफ देखता। पोछा लगाते समय बहाने से घूमता रहता। एक
बार मैंने उसे गिरेबान में झाँकते देखा है। उस वक्त मैंने शरमा कर साइड बदल ली।
अपने कपड़ों को ठीक-ठाक कर मैं पोंछा लगाती रही। दूसरे दिन दुपट्टा कंधे से तिरछा
कर के कमर पर बाँध लिया था। सरदारनी ने इस पर ग़ौर किया और समझ गई। उसने सरदार से
कहा, “सरदार जी, जब मीतो पोंछे लगा रही हो तब बाहर बैठा कीजिए। इंदर-इंदर करते हुए
मेरे पीछे-पीछे घूमते हुए गीले पोंछे पर पैरों के निशान मत डाला करें। हमें साफ़-सफ़ाई
तसल्ली से करने दिया कीजिए। पोंछा सूख जाने के बाद भीतर पाँव धरा कीजिए।” सुनते ही सरदार लज्जित हो गया। और पाँव पटकते हुए हवेली की
तरफ चला गया। फिर कभी उसने गीले पोंछे पर पैर नहीं धरा। न ही कभी पोछा लगाते वक्त
मेरे सामने आया। मेरा पूरा नाम लेकर पुकारता। बेशक मैं उसकी पुत्रवधु लगती हूँ
परंतु उसने कभी मुझे ‘बेटा’ कह कर नहीं पुकारा था। मैं सरदार से बहुत कम
बात करती हूँ।
“मीतो, कल अपने घर का सारा काम निपटा कर ही आना, बेशक ज़रा देर से आ जाना।” सरदारनी ने शादी पर जाने से एक दिन पहले मुझे घर जाते समय कहा।
“और शाम को हमारे लौटने से पहले ही अपने घर मत जाना। बेशक सैंडी आया ही क्यों न
हो।” सरदारनी ने हुक्म की भाँति ताकीद की।
अगले दिन मैं अपने घर की साफ़-सफ़ाई करके और कपड़े-लत्ते धो कर रोज़ की तुलना
में कुछ देर से कोठी आई। सरदारनी शादी पर जाने के लिए तैयार खड़ी थीं। उन्होंने
बालों में ताज़ा-ताज़ा डाई कर रखा था। गहरा मेक-अप कर रखा था। पूरी कढ़ाई वाला सूट
पहना हुआ था। बाँहों में सोने की चूड़ियां और गले में चेन पहन रखी थीं। बाँह में
पर्स झुलाए वे इधर से उधर टहल रही थीं।
मुझे वे नव-ब्याहता दुल्हन सी जान पड़ी। दूर से ही मुझे देख मुस्कुराईं।
मैं पास पहुँची तो परफ्यूम का झोंका मेरे नथुनों में तरंग सी छेड़ गया। इर्द-गिर्द परफ्यूम से महक रहा था।
“मीतो हम निकल रहे हैं।” मेरे सत् श्री अकाल के जवाब में उन्होंने कहा, “घर का ख़याल रखना। हमारे आने तक यहीँ रहना। सैंडी कॉलेज चला गया है। जब आए तो
खाने के लिए कुछ बना देना। नौकरों को ग्यारह और तीन बजे वाली चाय बना कर हवेली के
गेट से आवाज़ देकर पकड़ा देना। बाहरी गेट का डबल अरल (कुंडी) लगा कर रखना। कोई
भिखारी आए तो गेट मत खोलना। खुद भी चाय बना कर पी लेना। फिर साफ़-सफ़ाई करना।” सरदारनी मेरे पास खड़ी होकर मुझे हिदायतें देती रहीं।
“बीजी, आप बिलकुल टेंशन मत लें।” मैंने सरदारनी को विश्वास दिलाया। “मज़े से शादी देखिए। मैँ आपके लौटने का बाद ही घर जाऊँगी। मैंने दयाल से कह
दिया था कि मैं आज शाम तक कोठी में रुकुंगी। स्कूल से छुट्टी के बाद राविया और
हर्ष भी सीधे यहीं आ जाएंगे।” जब मैंने बताया तो सरदारनी ने अपनत्व से मेरे
कंधे पर हाथ रखा।
रोज़ी भी भीतर से निकल आई थी। उसने स्लीवलेस हल्की कढ़ाई वाला मोरपंखी रंग का
लंहगा पहन रखा था। बाल खुले थे और स्ट्रेट
किए हुए थे। हाथ में टच स्क्रीन मोबाइल पकड़ रखा था। उसकी खूबसूरती मुग्ध कर रही
थी।
सरदार ने गाड़ी स्टार्ट की। माँ-बेटी गाड़ी में बैठ गईँ। सरदारनी ने बाहरी गेट
खोलने का इशारा किया। मैंने जल्दी से जाकर गेट खोला। गेट से निकलते समय सरदारनी ने
मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर अपना हाथ हिलाया। मैंने भी मुस्कुरा कर हाथ
हिलाया। कुछ देर वहाँ खड़े रह कर जाती हुई गाड़ी को देखती रही। फिर गेट का डबल अरल
लगा कर मैं घमंड से भीतर की तरफ चल दी। मेरी नज़र खुले-डुले और सुनसान घर में फैल
गई। चारों तरफ सन्नाटा था और ख़ामोशी पसरी हुई थी। “इतने बड़े घर में
मैं अकेली ?” सोचते हुए मुझे भय सा लगा। “मैं किसी से डरने वाली तो नहीं। अगर सचमुच यह घर
मेरा होता, मीतो तब भी तू डरती ?” मैंने खुद से पूछा। “भीतर से कमज़ोर नहीं
मैं, शादी से पहले तो कई बंदिशें होती हैं। कई बार मजबूरन चुप रहना पड़ता है। अब
नहीं मैं किसी से डरती। बेशक कोई टुंडीलाट आ जाए।” सचमुच मुझमें बहुत
हौंसला था। कोई भय तो मेरे निकट भी नहीं था। मैं एक खिले हुए गुलाब को पकड़ कर
सहलाने लगी। फूल को सूँघा। खुशबू से मैंने तरो-ताज़ा महसूस किया। अगले ही पल मुझे
साफ़-सफ़ाई और झाड़-पोंछ का ख़याल आया।
“पहले कुछ खा-पी लूं, साफ-सफ़ाई बाद में शुरू करती हूँ।” यह सोच कर मैं लॉबी का दरवाज़ा खोल भीतर आ गई। गुरमीतो चाय का क्या पीना,
रोज़ ही पीती हो। मैंने खुद से कह कर फ्रिज खोला। रीयल के जूस का डिब्बा उठाया,
स्टील का गिलास पूरा भर लिया। फ्रिज का डोर बंद कर खड़े-खड़े ही दो भरपूर घूंट गटक
लिए। गिलास लेकर बाहर कुर्सी पर बैठ कर
टाँग पर टाँग चढ़ा कर चारों ओर देखते हुए छोटे-छोटे घूँट भरने लगी। एक दम मेरा ध्यान दयाल की तरफ चला गया। जी चाहा
कि उसे फोन करके अभी ही कोठी में बुलवा लूं। दयाल के ख़याल से मेरा वजूद खिल उठा
था। जूस का गिलास भर कर उसके हाथ में
थमाऊंगी। घूँट भरते हुए दोनों साथ बैठ कर दिल की बातें करेंगे। दयाल के गले में
बाँहें डाल सरदारनी के बेड पर लेटने की इच्छा भी जगी। फिर सोचा, “छोड़ो यार, उसकी आज की छुट्टी चली जाएगी। प्राइवेट नौकरी है, तनख्वाह कट
जाएगी। सैंडी भी कॉलेज गया हुआ है। पता नहीं कब आ धमकेगा। मैं मन मसोस कर रह गई।”
जूस पीकर नौकरों के लिए चाय बनाई। हवेली के गेट से उनको
आवाज़ देकर चाय का डोलू पकड़ा आई। फिर साफ़-सफ़ाई और झाड़-पोंछ के काम में जुट गई।
सारे दरवाज़े और खिड़कियों की झाड़-पोंछ की। झाड़ू लगाया और पोंछे लगाने लगी। सभी
कमरों में पोंछा लगाने के बाद जब मैं लॉबी में पोंछा लगाने लगी तो लंबी कॉलिंग बेल
दो-तीन बार बजी। मैं सहम गई। कुछ घबराहट
भी हुई। बेल इसी तरह बजी थी मानो गेट पर खड़ा व्यक्ति भीतर आने के लिए बहुत व्यग्र
हो।
“पता नहीं कौन होगा ?” मैंने पोंछा वही
फेंक मारा, फटा-फट हाथ साफ़ करके बाहर आई। गेट की तरफ निगाह मारी। गेट के बाहर
सैंडी की गाड़ी थी। “कॉलेज से आ भी गया ? इतनी जल्दी” मुझे हैरानी हुई। “अभी तो ग्यारह ही
बजे हैं।” कुर्सी पर रखा दुपट्टा उठा मैंने सर पर ले लिया।
बिजली जैसी फुर्ती से मैं गेट की ओर लपकी। गेट खुला तो सैंडी ने पूरी स्पीड से
गाड़ी अंदर की। गाड़ी की सामने वाली सीट पर एक खूबसूरत युवती बैठी थी। उसे देख मैं
दंग रह गई। “यह क्य़ा माज़रा है ?” मैंने सोचा। मेरी तरफ देख वह मुस्कुराई थी। मैं
इतना घबरा गई कि उसकी मुस्कुराहट का जवाब देना भी भूल गई। मेरा दिल धक-धक करने
लगा। हाथ-पाँव फूलने लगे। मैं पत्थर हो गई। मुझे पसीने छूट गए। गाड़ी भीतर आते ही
मैंने फुर्ती से गेट बंद कर दिया। मुझे सारा माज़रा समझ आ गया था। मैं अदृश्य भय
से काँप रही थी। दुपट्टे से माथा पोछ मैंने बाहर निगाह मारी। सड़क सुनसान थी।
मैंने कोठी की तरफ कदम बढ़ाए। चलते हुए मुझे अपने पाँव बहुत वजनी महसूस हुए। मेरा
बदन निर्जीव सा लगा। सैंडी ने दीवार के पास गाड़ी खड़ी की। जल्दी से गाड़ी से निकल
युवती की तरफ का दरवाज़ा खोला। ऊँची-लंबी, सुंदर युवती बाहर आई। सैंडी उसका हाथ
पकड़े सीधे भीतर चला गया। कुर्सियों के पास खड़े-खड़े मेरी टाँगे काँप रही थीं।
मुझमें बैठने की हिम्मत नहीं बची थी।
लॉबी में पोछा लगाना बाकी था। मैं भीतर जाने की हिम्मत न कर सकी। किसी भय के
वशीभूत हो सोच में पड़ गई। अगर सरदारनी आ गई तो मेरी पहरेदारी का जलूस निकल जाएगा।
अगर गाँव से कोई सरदारनी से मिलने आ गई तो उसे मैं क्या जवाब दूंगी ? गेट से कैसे लौटाउंगी उसे ? किसी अदृश्य भय से मेरा दिल डूब रहा था। “अब क्या करूं ?” पल-पल मेरी घबराहट बढ़ रही थी। मुझे लगा जैसे
मेरे चारों तरफ किसी भय की बहुत ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी हो गई हों। मैं भीड़ में
खो जाने की भाँति डरी-घबराई खड़ी थी। कुछ
भी नहीं सूझ रहा था। मैं घबराई सी खड़ी चारों ओर अजनबियों की भाँति देख रही थी।
“आंटी.... ” लॉबी से आई सैंडी की आवाज़ से मैं काँप गई।
मेरी हथेलियां पसीने से तर-ब-तर थीं। मैं नपे-तुले कदम रखते हुए लॉबी में आई।
“दो गिलास जूस लाना।” उसने
पल भर मेरी तरफ देख कर कहा और कमरे में जा कर दरवाज़ा भिड़ा दिया। मैंने काँपते हाथों से गिलासों में जूस डाला और
सैंडी के कमरे के पास जाकर दरवाज़ा खटखटाया।
“आंटी आ जाईए।” सैंडी
ने भीतर से ही कहा। मैंने झिझकते हुए भीतर पाँव धरे। उसने स्टडी टेबल पर गिलास
रखने का इशारा किया। युवती बेड पर टाँगे लटकाए बैठी थी। मेरी तरफ देख वह फिर
मुस्कराई। मैं भी हल्का सा मुस्कुराई।
युवती मेरे बारे में क्या सोचती होगी भीतर खड़े सोचते हुए मुझे अपने भीतर
कुछ घटता सा प्रतीत हुआ। मैं भीतर ही भीतर हल्का महसूस करने लगी। स्टडी टेबल पर
जगह बना गिलास रख कर बाहर आने लगी।
“आंटी एक मिनट... ” सैंडी
ने पीछे से आवाज़ दी। मैं दरवाज़े के पास सहम कर वहीं खड़ी हो गई। पीछे मुँह घुमा
कर सैंडी की तरफ देखा। “यह मेरी क्लासफेलो है, जोतइंदर। हमारी
फ्रेंडशिप है।” बताते हुए सैंडी मुस्कुरा रहा था। “आंटी, मम्मी-डैडी को पता नहीं चलना चाहिए। आपको मेरी कसम।” सैंडी सीधे मेरी आँखों में देख रहा था। “यह हम दोनों के बीच की बात है। तीसरे को ख़बर नहीं होनी
चाहिए।” मैं साँसें थामें सुनती रही।
“आंटी, आप बाहर बैठ जाईए, बाकी काम थोड़ा बाद में कर लीजिएगा।”
“पर....” मेरे मुँह से अचानक निकला।
“आंटी, पर क्या..... बताईए.....” सैंडी
जल्दी से कह कर हैरानी से मेरे पास आ खड़ा हुआ।
“अगर कोई आ गया ?” मैंने धीरे से कहा।
“मम्मी लोग तो अभी आने वाले नहीं, मैंने उनको फोन किया था।
वे अभी तो पहुँचे ही हैं।” उसने बेफिक्री से कहा। “कोई और आए तो किसी भी हालत में गेट मत खोलिएगा। बेशक कोई भी
हो, गेट से ही लौटा दीजिएगा।” सैंडी ने सख़्त हुक्म सुनाया।
मैं निढ़ाल सी बाहर कुर्सी पर आ गिरी। मेरा तन माटी हो गया।
माता-पिता सोचते होंगे, हमारी बेटी कॉलेज पढ़ने गई है। परंतु
ये... सोचते हुए मैं धरती में समाती जा रही थी। कितनी जुर्रत है इन दोनों की मुझे
हैरानी हो रही थी। मुझे बेचैनी सी होने लगी, मैं सर से पाँव तक उचाट सी इधर-उधर
चहल-कदमी करने लगी। मन को बेचैनी खाए जा रही थी। अचानक मेरी सोच-विचार की डोर बहुत
पीछे चली गई। जब मैं प्लस टू में शहर पढ़ने जाया करती थी। पढ़ाई में मेरी बहुत
दिलचस्पी थी। आधी-आधी रात तक पढ़ती रहती थी। दसवीं में अस्सी प्रतिशत नंबर लिए थे।
सोच रही थी कि प्लस टू में भी बढ़िया नंबर लेकर कोई कोर्स करूंगी। नौकरी करके
आत्मनिर्भर बनूंगी। डैडी का हाथ बटाऊंगी। छोटे भाई और बहन को भी अच्छी तरह पढ़ा कर
सेट करूंगी। अपनी शादी स्वावलंबी
बनने के बाद ही करवाऊंगी। मेरे सपने अंबर से भी ऊँचे थे। मैंने घर की ग़रीबी दूर
करने का मन ही मन निश्चय कर लिया था।
मैं मम्मी के साथ भी घर का सारा काम करवाती थी ताकि मम्मी
मुझे अपने पर बोझ न समझे। बड़ी होने के नाते छोटे भाई-बहन की पढ़ाई में भी उनकी
मदद करती थी।
गाँव से हम सात लड़कियां शहर पढ़ने जाया करती थीं। जिस बस
मैं स्कूल जाती थीं, वह बस पिछले गाँवों से ही यात्रियों से ठसाठस भर कर आती थी।
बस में तिल धरने की भी जगह न होती परंतु स्कूल तो जाना ही होता था। ठसाठस बस में
ही कठिनाई से चढ़ जाती। फंस-फंस कर आगे बढ़ती। भीड़ में हमारे नाज़ुक अंग मसले
जाते। जब कोई मेरे साथ छेड़खानी करता तो मुझे बहुत बुरा लगता। रोना आ जाता। मैं
भीड़ में सिकुड़ती रहती। गाँव के निखट्टु छोकरे आशिकी करने के लिए बस में जान-बूझ
कर चढ़ते। लड़कियों के पास आ खड़े होते और चालाक़ी से उनके च्यूटियां काटते। आगे की तरफ जाते वक्त जान-बूझ कर लड़कियों से
सट-सट कर निकलते। रिमार्कस देते। उनकी गलीज़ हरकतें देख कर मैं उन्हें घूर कर देखती।
तल्खी से गाह-बगाहे उनकी लानत-मलामत कर देती।
ज़मींदारों का एक निखट्टू लड़का वीरू उनका लीडर था। बस में
उछल-कूद करता हुआ उल्टा-सीधा बोलता रहता। चलती बस में वह एक जगह टिक कर न खड़ा
होता। कभी आगे जाता, कभी पीछे ताकि भीड़
में ज्यादा से ज़्यादा लड़कियों के साथ सट सके।
मैं उसे गुस्से में एक जगह टिके रहने को कहती। मेरी अक्सर उससे तू तू - मैं मैं हो जाती। वह मुझे सुना-सुना कर बातें करने लगा। मैं
गुस्से में आग-बबूला हो जाती। मेरे माथे
पर त्योरियों का जाल घना हो जाता। बाकी
सभी लड़कियां चुप रहती। मुँह के सामने दुपट्टा रख कर लड़कों के रिमार्क्स सुन कर
हँसती रहती। मेरा साथ न देतीं। इसी कारण वीरू दिन-ब-दिन सर चढ़ता जा रहा था। मेरे
मुहल्ले की एक लड़की वीरू के दोस्त के साथ सेट थी। वे दोनों साथ-साथ खड़े होकर खुसुर-फुसुर करते
रहते। देख कर मेरा दिमाग गर्म हो जाता, जी
चाहता कि उस लड़की को चोटी से पकड़ चलती बस से बाहर निकाल फेंकू। मैं जब गुस्से
में अंधी हो कर बोलती तो वीरू भी पलट कर जवाब देता – “जानता
हूँ तुझे बड़ी सती सावित्री को। याद रखना, तेरा घमंड चूर न किया तो मेरा नाम वीरू
नहीं।” मुझे ललकारते हुए वह ज़ोर से बोलता। बात बढ़ती देख मैं चुप
हो जाती। वह जब घूर-घूर कर मेरी तरफ देखता तो मेरा जी चाहता कि उसका सर
टुकड़े-टुकड़े कर दूं। मुझे उसकी बेहूदा बातें हथेली में गड़ी फाँस की भाँति
चुभतीं महसूस होतीं। वीरू, जिसका नाम
माता-पिता ने बलवीर रखा था पर वह वीरू बन गया। जैसा नाम, वैसा काम। वह सारा-सारा दिन आवारागर्दी करता रहता। स्कूल
नहीं जाता था। बदन से तलंगू सा था। नशे भी
करता था। जबड़े की हड्डियां बाहर को उभरी हुईं थीं। मुझे वह नाम से ही गुंडा और
बदमाश लगता। बोलने की उसे ज़रा भी तमीज़ नहीं थी। उसके काम गुंडे और बदमाशों वाले
ही थे। उसने माता-पिता द्वारा रखे नाम को शर्मिंदा ही किया था। पता नहीं क्या सोच
कर वह मुझ पर अधिकार जमाने के लिए लगातार मेरा पीछा करने लगा था परंतु उसे देख के
मेरे माथे पर त्योरियों का जाल तन जाता।
“क्य़ों बस में धक्के खाती है ? अकड़
छोड़ दे। बैठ यारों के मोटर साइकिल पर, स्कूल छोड़ आऊँ। देखना कैसा मज़ा आता है।” एक दिन गाँव से बस में चढ़ने लगी तो पास आता वीरू बोला।
मैंने पल भर के लिए भी नज़रें उठा कर उसकी तरफ नहीं देखा।
मूरख के साथ क्या मत्थे लगना, मैंने मन ही मन सोचा। उसने अब नई मोटर साइकिल ले ली
थी। बस में न चढ़ता, परंतु बस के शहर पहुँचने से पहले ही बस से उतरते ही वह हमारे
सामने खड़ा होता। हर रोज़ स्कूल की तरफ जाते समय मेरे साथ चलते वक्त ऊट-पटांग
बोलता रहता। वह मेरे पीछे ही पड़ गया था। मुझे लगातार परेशान करने लगा, परंतु मुझ
में भी असीम ज़िद थी, टूटना असंभव था। उससे मेरे चिढ़ जारी रही। मैं इस बारे में मम्मी-डैडी को बताना चाहती थी
परंतु किसी बखेड़े के डर से चुप रही। मुहल्ले के कई लड़कियों के रोमांटिक किस्से
चर्चा में थे। मुझे उनसे नफ़रत थी। मैं उनसे मेल-जोल नहीं रखती थी।
एक दिन जब मैं बस से उतरी तो कंडक्टर से बकाया लेते समय,
मुझे थोड़ी देरी हो गई। मेरे गाँव की बाकी लड़कियां मेरा इंतज़ार किए बिना आगे
निकल गईं। बकाया ले मैं उनके पीछे-पीछे जल्दी-जल्दी स्कूल की तरफ चल पड़ी। वीरू,
मोटर साइकिल के पीछे बैठा धीरे-धीरे मेरे बराबर चल रहा था। मोटर साइकिल उसका दोस्त
चला रहा था। वीरू
ऊल-जलूल बोलता जा रहा था। आस-पास आते-जाते लोगों को देख मुझे उस पर गुस्सा आ रहा
था। आगे-आगे जा रही गाँव की लड़कियों ने मुड़ कर मेरी तरफ देखा। मैं शर्म से
पानी-पानी हुई जा रही थी। स्कूल थोड़ी दूर ही था। मैं आपे से बाहर होकर शोले की
भाँति मचलते हुए वीरू पर चीख पड़ी। उस ने हवा से उड़ते मेरे दुपट्टे का एक सिरा
पकड़ लिया। मैं छुड़ाने लगी, परंतु उसने एक झटके से मेरा दुपट्टा खींच लिया। मैंने
दुपट्टा पकड़ने की कोशिश की, परंतु व्यर्थ। उसने मोटर साइकिल तेज़ कर ली। मोटर
साइकिल पर वीरू के हाथ में पकड़े मेरे दुपट्टे को झंडे की भाँति उड़ते देख मेरे
पाँवों तले से ज़मीन खिसक गई। मेरा उड़ता दुपट्टा लड़कियों ने भी देख लिया था।
उन्होंने पीछे मुड़कर मेरी तरफ देखा और तेज़ कदमों से स्कूल के मोड़ की तरफ मुड़
गईँ। मेरे भीतर आँधियां चल पड़ीं। मैं
बहुत ही दीन-हीन और माटी समान वहीं खड़ी थी। बेबसी से दिल रुआंसा हो रहा था। लगा
जैसे वीरू ने मुझे भरी सभा में नंगा कर दिया हो। मैं तल्ख़ी से खौल रही थी।
“आज कल के छोकरे तो जूते मारने लायक हैं।” कोई पास से गुज़र रहा व्यक्ति बोल रहा था। शायद उसने सब
कुछ देख लिया हो। मैं मुट्ठी से रेत की भाँति झर रही थी।
अगले पल मैं उदास और लड़खड़ाते कदमों से, नज़रें झुकाए
स्कूल की बजाय बाज़ार की तरफ चल पड़ी। सर पर बिना दुपट्टे के मैं बाज़ार से
गुज़रते हुए शर्म से मरी जा रही थी। तेज़ कदमों से चलते हुए मैं दीना क्लॉथ हाउस
की दुकान के सामने जाकर रुकी। इसी दुकान से हम कपड़ा लिया करते थे। दीना अंकल ने
अभी दुकान खोली ही थी। नया दुपट्टा लेते समय मेरा गला भर्रा गया। दीना अंकल ने
मुझसे दुपट्टे के बारे में पूछा। जब मैंने बताया तो उन्होंने प्यार से मेरे सर पर
हाथ रखा, “घबराओ मत बेटी, मैं तुझे स्कूटर पर स्कूल छोड़ कर आता हूँ।” मेरे काँपते हाथ देख उन्होंने कहा।
“नहीं अंकल, ऐसी बात नहीं। मैं इतनी भी कमज़ोर नहीं कि ऐसे
ही डर जाऊँ।” मैंने अपने भय को छुपाते हुए हौंसले से कहा। खुद को कमज़ोर
नहीं साबित करना चाहती थी।
स्कूल पहुँचने तक अंग्रेजी का पीरियड मिस हो गया था। नीना
मैडम क्लास से बाहर आ रही थी। मैं घबराई हुई सी क्लास रूम में कदम रख रही थी। मुझे
देख मैडम मेरे सामने खड़ी हो गईं।
“यह तुम्हारे आने का टाइम है मेरी तरफ देख मैडम ने गुस्से से
कहा। छुट्टी के वक्त मिल कर जाना।” सुनकर मैं सुन्न हो गई। मेरी क्लास में मेरे
मुहल्ले की लड़कियां मेरी तरफ देख हँसीं। मैंने नज़रें झुका लीं। मुझे क्लास में
बेइज़्जती का भयानक अहसास हो रहा था। छुट्टी के वक्त तक मैं बुझी-बुझी सी रही। आधी
छुट्टी के वक्त भी कुछ न खाया। गाँव की लड़कियों के सामने मैं हल्का महसूस
कर रही थी। जी चाह रहा था कि एक बार वीरू मेरे सामने आ जाए, मैं उसकी हड्डी-पसली
एक कर दूंगी।
“बीबा, तू पढ़ाई के बहाने आशिकी कर रही है। तुम्हारे बारे
सुन कर हैरान हूँ मैं।” जब मैं छुट्टी के वक्त स्टाफ रूम में नीना
मैडम से मिली तो उन्होंने तुरंत मुझ पर चोट करते हुए कहा। मैडम के शब्द मेरे सीने
में पत्थर की भाँति टकराए। मेरी आँखें भर आईं। आँसुओं की धार बह निकली। उस वक्त
स्टाफ रूम में कोई और नहीं था। मुझे लगा साथ वाली लड़कियों ने मैडम को कुछ गलत-सलत
बताया होगा। मैंने साहस जुटाकर विस्तार से सारी बात दृढ़ता और संज़ीदगी से मैडम को
बताई।
“बेटा, ऐसी समस्याएं औरतों के समक्ष तो कदम-कदम पर आती हैं।” नीना मैडम एक दम नरम हो गईं। “परंतु
बेटा, अगर औरत में हिम्मत और हौंसला हो, वह भीतर से मजबूत हो तो उसका कोई कुछ नहीं
बिगाड़ सकता। समाज की इस दलदल से वही निकल सकता है, जिसका कुछ करने और बन कर
दिखाने का हठ हो। जो कुछ हुआ, उसे भूल जाओ, पढ़ाई में पूरा ध्यान दो। हमेशा अलर्ट
रहो। बी ब्रेव ऐंड डू द बेस्ट।” कहकर मैडम ने मेरे सर पर हाथ रखा। सीने से
लगाया। “मे आई हैल्प यू?”
“नो, थैक्स मैम!” मेरा
ख़त्म होता हौंसला थम गया। मैं स्टाफ रूम से बाहर आई। फटी आँखों से चारों तरफ
देखा। मेरे गाँव की सभी लड़कियां जा चुकी थीं। मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मेरा
इंतज़ार भी नहीं किया। कितनी निर्मोही निकलीं। मुझे अकेले पड़ जाने का अहसास हुआ।
बिखरा हुआ साहस जुटा कर मैं बस अड्डे पहुँची। अब कोई शै मेरे आस-पास भी नहीं थी।
वीरू से दो हाथ करने के लिए मैं तन-मन से तैयार थी। मैंने तो मरने-मारने तक का भी
सोच लिया था। अब मैंने बुत बनकर पीड़ा को न सहने का फैसला कर लिया था।
आख़िरी बस पकड़ घर पहुँची। मम्मी परेशान खड़ी मेरा इंतज़ार
कर रही थीं। उनका चेहरा उतरा हुआ था। मुझे
सर से पाँव तक देख मम्मी ने आलिंगन में ले लिया। उनकी आँखें नम थीं। सुबह मेरे साथ
घटित घटना मुहल्ले में सुलग रही थी। मैंने मम्मी को दिलासा देते हुए सारी आप-बीती
सच-सच बता कर ठंडी आह भरी।
“बेटी, तुम्हारे पिता बहुत झगड़ालू हैं। वे हमारी नहीं
सुनेंगे। मुझे ही पता है कैसे मैंने उनके साथ निभाई है।” मम्मी ने बेबसी
ज़ाहिर की। वे रुआँसी सी हो रही थीं। मम्मी की बातों से भय झलक रहा था। डैडी अकड़ू
और ज़िद्दी स्वभाव के थे। पता नहीं डैडी कितना तल्ख़ होंगे। मैंने दु:ख से सोचा। मेरी तो मानों जान निकली जा रही थी।
“आंटी.....” भीतर से आई सैंडी की आवाज़ से मैं चौंक कर अपने-आप में वापिस लौटी। थके-थके
से बदन को घसीटते हुए लॉबी में आई। मैं होश में नहीं थी। पाँवों से हिली हुई थी।
“आंटी, मैं जा रहा हूँ। आप गेट के पास चलिए, गेट उसी वक्त खोलना जब मैं गाड़ी
गेट के पास ले आऊं। गेट खोलने से पहले बाहर भी देख लीजीएगा। मेरे कमरे से गिलास
उठा लीजिएगा और सफ़ाई कर दीजिएगा।” सैंडी ने कहा। “आंटी, याद रहे, मेरे
आने की किसी को ख़बर न हो।” मैंने चुप-चाप सुनते हुए सर हिलाया। भीतर से
घबराई हुई थी परंतु सैंडी के चेहरे पर कोई घबराहट नहीं थी। मैं धीरे-धीरे गेट की
तरफ बढ़ी। चलते हुए मेरी टाँगें काँप रही थी। जब गाड़ी गेट के पास आई तो मैंने
छोटे गेट से बाहर निगाह मार एकदम से बड़ा गेट खोल दिया। गाड़ी निकल जाने के बाद सामने
गेट का डबल अरल बंद कर गेट के साथ ही टेक लगा कर खड़ी हो, ठंडी साँस ली। सर से
मानों भारी बोझ उतर गया हो। मैं तनाव मुक्त महसूस कर रही थी।
सोच-विचार में उलझी मैं कुर्सी पर आ बैठी। एक और बोझ मेरे ज़हन पर लटक गया था।
“अगर कभी सरदारनी को इस घटना की भनक लग गई तो क्या होगा ? मेरी चोटी उखाड़ फेंकेगी सरदारनी। किए कराए पर पानी फिर जाएगा। मुझ पर
बना-बनाया भरोसा टूट जाएगा।” मैंने चिंतित होकर सोचा। “फिर क्या करूं ?” उहा-पोह में मैंने खुद से पूछा।
मेरे तन में बेचैनी सी थी। मानसिक उलझन में फँसा महसूस कर रही थी। अचानक उठी
और एक खिले हुए फूल के पास आ खड़ी हुई।
“गुरमीतो, क्यों बेकार टेंशन ले रही हो।” मैंने खुद से कहा।
बड़े घरों के नबावज़ादों के काम ही अलौकिक होते हैं। इनके लिए तो यह कुछ भी नहीं।
तू क्यों ऐसे ही अपना खून जलाए जा रही है। आज तुम सरदारनी के घर की रखवाली कर रही
हो, घर वालों की नहीं। घर का सदस्य भाड़ में जाए। तू अपने काम से मतलब रख। तुझे
पता है, सैंडी बड़े घर का इकलौता बेटा है, इसके लिए हर बड़ी ग़लती भी माफ़ है।” मैं अपना टेंशन दूर करना चाहती थी। “अगर कभी सरदारनी को
पता चल भी गया तो कहूंगी, तुम्हारा ही तो लाडला है, कोई दूसरा तो नहीं। तुम्हें
अपने लाडले की ख़बर नहीं।” मैने खुद को पूरी तरह से तनावमुक्त कर लिया था।
“आजकल के युवा कितने बेपरवाह हैं। इनके भीतर कैसी आग लगी पड़ी है। बौखलाए फिरते
हैं। शर्म हया तो इनके पास भी नहीं फटकती।” मैं हैरानी और
गुस्से से उबल रही थी, “माँ-बाप ने बेटी को पढ़ने भेजा है, पर यह..... ” कितना बड़ा धोखा है माता-पिता के साथ। सरदारनी कह रही थी, “सैंडी को इम्तहान की तैयारी करनी है।”
“ले सरदारनी, आज तेरे पुत्तर ने इम्तहान की तैयारी कर ली है। तू शादी में मज़े
ले।” मुझे सरदारनी पर भी गुस्सा आया। कितनी भोली बातें करती है। भला उसे अपने बेटे
का नहीं पता, कैसी हरकतें हैं उसकी। आँखें मूंद रखी हैं सरदारनी ने। चल छोड़ मीतो,
खसमां नू खाए। मैं क्या कर सकती हूँ। मैं किसी बोझ तले नहीं पिसना चाहती थी।
धीरे-धीरे मेरे चेहरे का तनाव दूर हो रहा था।
सैंडी के कमरे में गई। मेज़ पर पड़े गिलासों को देखा। एक दम मेरा ध्यान बेड की
चादर की सलवटों पर गया। मेरा कलेजा काँप उठा। “पतंदर, लड़की के
वट्ट ही निकालता रहा, चादर की सलवटें भी निकाल जाता। अगर तेरी माँ देख लेती तो वह
तो मेरे ही वट्ट निकाल देती।” मैंने एक ही झटके से बेड से चादर खींची, झाड़
कर फिर से बिछा दी। मैंने कमरे की हर चीज़ को गौर से देखा। कहीं कोई कमी न रह जाए।
सरदारनी तो सूँघ कर देख लेती है। मुझे कमरे से अजीब सी और अलग सी गंध आती महसूस
हुई। मैंने कमरे में दोबारा पोंछा लगाया। सैंडी की अलमारी से परफ्यूम निकाला और
चारों तरफ स्प्रे किया। बाहर आई, गेट की तरफ देखते हुए मुझे युवती की मुस्कुराहट
याद आई। ‘कंजरी के चेहरे’ पर तनिक भी शिकन नहीं थी। अपना ‘सब कुछ’ लुटा कर भी मुस्कुरा रही थी। मैंने
क्रोध से उबलते हुए सोचा। ‘मेरा तो वीरू ने दुपट्टा ही खींचा था। मैं
मरणासन्न हो गई थी। मेरे लिए ज़मीं आसमां एक हो गया था।’
मेरी मम्मी डैडी से
कुछ भी छुपाना नहीं चाहती थीं। “मेरी बच्ची, आज अगर तुम्हारे पिता से यह छुपा
लेते हैं, कल को उन्हें भनक लग जाए तो अपनी तो शामत आ जाएगी।” मम्मी सहमी हुई थीं। उनके चेहरे पर पीलापन उभर आया था। वे ऐसे घबराई हुईं थीं
मानो मुझसे बहुत बड़ी अनहोनी हो गई हो। मम्मी की घबराहट से मेरी जान भी मुट्ठी में
आ गई थी।
डैडी घर आए। मम्मी ने डरते-डरते काँपती आवाज़ में सारी बात बता दी। वे भड़क उठे। उनकी बदली निगाहें देख कर मैं भी
सहम कर सिकुड़ गई।
“स्कूल जाना बंद।” डैडी के मुँह से मानों अंगारे बरस रहे थे। मैं तड़प कर रह
गई। सुनते ही वहीं जड़ हो गई। मेरे सर पर सैंकड़ों घड़े पानी गिर गया था। मुझे
मेरे अरमान, सर पर गिरे पानी में बहते प्रतीत हुए। मेरे डूबते दिल में इतना कुछ
उमड़ आया कि मेरा मन भर गया। डैडी का इतना बड़ा फैसला सुनकर मैं हैरान-परेशान
फटी-फटी सी आँखों से उनकी तरफ देखती रही।
“डैडी जी, मुझे प्लस टू कर लेने दें। अब मैं भीतर से मजबूत हो गई हूँ। आप चिंता
न करें। मैं कभी भी आपका सर नीचा नहीं होने दूंगी। मैं हाथ जोड़ कर मिन्नतें करते
हुए रोने लगी।”
“लड़की, बार-बार स्कूल जाने की रट लगाई तो मेरा मरा मुँह देखोगी।” डैडी गुस्से में दहाड़े। सुनते ही मैं सुन्न हो गई। मेरी ऊपर की साँसें ऊपर और नीचे की नीचे रह
गईं। दु:ख मेरे भीतर बिखर गया। मेरे खुले होंठ
सिल गए। डैडी से इतने बड़े फैसले की मुझे उम्मीद नहीं थी। मैं चीख कर अपनी ग़लती पूछना चाहती थी, पर
चुप्पी ही साध ली। दिल की बातें दिल में ही रह गईं। मेरे नसीबों का चूल्हा सदा के लिए बुझ गया। मैंने
दाँतों तले जीभ दबाकर कुएँ जितनी ब़ड़ी सी आह भरी। मन को बहुत बड़ा सदमा लगा। मैं
किसी गहरी उदासी के कफ़न में लिपट गई थी।
मेरी एक-एक ख़्वाहिश कहीं दिल में मर मिट गई थी। मेरे अंबर से ऊँचे सपने
तहस-नहस हो गए थे। मुझे अपने भविष्य में घना अंधेरा पसरा प्रतीत हुआ।
“मैं तो कहती हूँ, चार आदमी इकट्ठे कीजिए और जूते मारिए उस छोकरे के।” मम्मी मेरे साथ हो रही नाइंसाफी के विरुद्ध पूरी तरह सुलग रही थीं।
“तुम चाहती हो मैं गाँव में दुश्मनी मोल ले लूं। पालो, ठंडे नसीबों वाले गरीब
किसी के साथ भी गरम नहीं हो सकते और परिवार की बदनामी मैं सहन नहीं कर सकता। मैं
नहीं चाहता कि लोग मेरी बेटी की तरफ उंगली उठा कर बातें करें।” डैडी का गुस्सा शांत नहीं हो रहा था।
“कोई कैसे बात करेगा मेरी बेटी की। मेरी बेटी पवित्र है।” मम्मी ने मुझे आलिंगन में ले सीने से लगा लिया। वे मेरी पक्षधर बनी खड़ी थीं।
मम्मी के गिरते आँसू मैंने अपनी हथेली में थाम लिए।
घर में कई दिनों तक पचर-पचर होती रही। डैडी मुझे स्कूल भेजने के लिए तैयार
नहीं हुए। मैं मन मसोस कर रह गई। दिल पर पत्थर रख कर सब्र कर लिया। आज सोचती हूँ
दुपट्टे वाली घटना इतनी बड़ी घटना नहीं थी। मैं आगे से और भी मजबूती से विचर सकती
थी परंतु डैडी कमज़ोर निकले, डर गए। मुझ
रह-रह कर सब पर गुस्सा आ रहा था। डैडी के अकड़ू स्वभाव और ज़िद के कारण हम
माँ-बेटी बेबस हो गई थीं। स्कूल आने के लिए मैडम के भेजे संदेसों को
भी डैडी ने नकार दिया था।
कुछ दिनों बाद वीरू एक लिफ़ाफ़ा घर के आँगन में फेंक
गया। मैंने पैर से वह लिफ़ाफ़ा हिला कर
देखा। उस में वही दुपट्टा था जिसे वह खींच कर ले गया था। मेरे सर से पाँवों तक आग
धधक उठी। मैंने अंगूठे और उंगली से
लिफ़ाफ़ा उठाया और चूल्हे में डाल कर आग लगा दी।
“अगर लड़की को स्कूल नहीं भेजना है तो एक लवेरा (दुधारू पशु)
रख लेते हैं।” मम्मी ने डैडी की सलाह दी।
“चारा तो ज़मीदारों के खेतों से ही लाना पड़ेगा। मुझे मंज़ूर
नहीं। औरतों के साथ ज़मींदारों से जुड़े किस्सों से तुम अन्जान नहीं हो। मैं उन
जैसा नहीं बन सकता। सम्मान की रोटी खाऊँगा, भले ही आधी मिले। घर में कोई तंगी है आप लोगों को? किसी चीज़ से वंचित हैं आप लोग? जो चाहिए बताओ,
पूरा करूंगा। जहाँ से मर्ज़ी पैदा करूं।” डैडी ने ऊँचे स्वर
में बोल कर सब को चुप करा दिया। “पालो, इसे सिलाई सिखाओ।” डैडी ने हुक्म
दिया।
मम्मी सिलाई जानती थीं। उन्होंने मुझे सिखाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे मैं
कपड़े सिलना सीखती गई। घर में मेरा दिल लगना शुरू हो गया। जल्दी ही मैं सलवार सूट
सिलना सीख गई। सिलने के लिए गाँव से सूट आने शुरू हो गए। जब पैसे जमा होने लगे तो
मुझे मानसिक स्तर पर राहत महसूस हुई। परंतु पढ़ाई छूटने के तीव्र पीड़ा के शूल अभी
भी मेरे ज़हन में डेरा डाले हुए थे। जब किताबों की तरफ देखती तो मेरा दिल सुलगने
लगता। पढ़ाई के लिए मेरी उदासी कम नहीं हो रही थी। मैं गुम-सुम सी वीरू पर दाँत
पीसते हुए मन ही मन उबलती रहती।
आज इस घर में मेरी पहरेदारी की धज्जियाँ उड़ाती सैंडी की करतूत से मुझे अपना
अतीत याद हो आया था। एक हूक सी दिल में उठी, मुझे वीरू और सैंडी एक से प्रतीत हुए।
वीरू ने मेरा स्कूल छुड़वाया था और सैंडी आज मेरी पहरेदारी की बखिया उधेड़ कर यह
घर छुड़वा सकता था। सरदारनी की नज़रों में
मेरी बनी-बनाई छवि को धूल धुसरित कर सकता था। मुझे लगा सैंडी भी मेरे साथ ज़्यादती
कर रहा था। मैं सोच रही थी मेरे जैसी
महिला के लिए आज के समाज में जीना कितना मुश्किल है। फिर भी मैं हर हादसे के बाद
और मजबूत बनकर निकली हूँ। मेरे जिस्म को कोई स्पर्श करे मैं बर्दाश्त नहीं कर
सकती। शादी से पहले मुझे सैंडी जैसी हरकतों से सख़्त नफ़रत थी। इस तरफ मेरा कभी
ध्यान ही नहीं गया था। पता नहीं मैं किस मिट्टी की बनी हुई हूँ परंतु जिस भी
मिट्टी की होऊँ, ठीक हूँ।
डैडी ने अपनी फैक्टरी में अपने साथ कार्यरत अपने दोस्त के भानजे दयाल के साथ
मेरा रिश्ता कर दिया। उसकी दुल्हन बन कर मैं इस गाँव में आ गई।
मैं भाग्यशाली हूँ कि दयाल बहुत अच्छा है। कोई ऐब नहीं उसमें। शहर में किसी
फैक्टरी में कलर्क था। पहली रात मैंने दयाल के दोनों हाथ पकड़ उसकी आँखों में
आँखें डाल कहा, “भले आदमी, आज मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप रही हूँ जिसे
मैंने सिर्फ़ तुम्हारे लिए संभाल रखा था। मिल-जुल कर गृहस्थी की गाड़ी खींचेंगे।
कभी मेरे हाथों में से अपना हाथ मत खींचना।” कह कर मैंने आँखें
मूंद लीं। दयाल ने खींच कर मुझे सीने से लगा कर भींच लिया। चूम कर कहा, “गुरमीत, वादा रहा, पर मुहल्ले में कभी मेरी नज़रें नीची न होने देना।”
“मुझ पर भरोसा रखना मेरे चंदा।” उसकी
बाँहों में सिमटते और उसकी साँसों के बहुत निकट होकर मैंने कहा।
दयाल अब मेरी साँसों में बसता है। जान में जान है हमारी।
मेरी हर बात को वह अपनी हथेलियों में थाम लेता है। उसके माथे कभी त्योरी नहीं
देखी। अपने नाम की भाँति वह बहुत दयालु है। मेरा पूरा सम्मान करता है, फूलों की
भाँति रखता है, साँस के साथ साँस लेता। गुस्सा तो कभी उसके चेहरे पर मैंने देखा ही
नहीं। अब मैं दयाल के लिए पूरी तरह समर्पित हूँ। उसके बिना जीने का कोई अर्थ नहीं
प्रतीत होता।
मेरी सास भी सरदारनी इंदर कौर की कोठी में काम करने आती थी।
उसके गुज़र जाने के बाद सरदारनी मेरी बाँह थाम मुझे ले आई। “हमारी तो आपके परिवार के साथ मुद्दतों की साँझेदारी है।
मेरे जीते जी यह नहीं टूट सकती।”
सरदारनी ने कहा था।
खुद मैं भी गुरबत के आगोश में नहीं खोना चाहती थी। सब कुछ
भूल-भाल कर मैंने मशक्कत करने की ठान ली। कोठी का काम जी जान से करना शुरू कर
दिया। मैं साफ़-सफ़ाई के अलावा, बर्तन धोने, खाना बनाने, कपड़े धोने और कोठी में
और भी कई छोटे-मोटे काम करती रहती। दोपहर तक काम करती थक कर चूर हो जाती। सरदारनी
के घर के अलावा और किसी घर में काम नहीं करती थी।
सरदारनी कभी मेरा हक नहीं मारती थी। और घर के सदस्य की तरह
मानती थी मुझे। मेरे साथ दिल की बातें भी कर लेती थी। कोई लुकाव-छुपाव न करती। शहर
जाना होता, मेरे भरोसे घर छोड़ जाती। कहीं ताला न लगाती। मैंने भी उनका भरोसा
टूटने नहीं दिया था। घर में पड़े पैसे
धेले और क़ीमती चीज़ों की तरफ मैंने कभी आँख भर कर भी नहीं देखा था।
सैंडी और रोज़ी की तरफ देखती हूँ तो दिल बैठता जाता है। दिल
जलने लगता है। सोचती हूँ, उनके पास पढ़ने का मौक़ा है, वे पढ़ते नहीं। मैं पढ़ना
चाहती थी, मुझसे मौक़ा छीन लिया गया। इन्हें पढ़ाई का मोल नहीं पता। घर में अभाव
नहीं देखा, बना बनाया सब कुछ मिल गया।
कहीं मन के किसी कोने में वीरू के लिए नफ़रत उफ़नती है। उस
समय मैं दीये की लौ की भाँति धधक उठती हूँ। चीख कर उसे कहना चाहती हूँ, “वीरू के बच्चे, मैं अपने घर में बहुत सुखी हूँ, मुझे पता चला है आज कल तेरी हेकड़ी मंद हुई पड़ी है।
तू जेल की हवा फाँक रहा है। आशिकी से नशे, फिर लूट-खसूट, गुंडागर्दी, नाजायज़
कब्ज़े और फिर गैंगस्टर बन गया। जो बोया वही पाया। मेरा अंतर्मन तुम्हें बददुआएं
देता है। तू नहीं जानता, तूने मेरी तमन्नाओं का कितना बड़ा ख़तरनाक क़त्ल किया है।
मेरे सपने तोड़े हैं।” अतीत पर कुढ़ते हुए मैं खौल रही हूँ।
मुझे वीरू पर घिन आई। “मूरख,
तूने ग़लती की होती, मैं तुझे माफ़ कर देती, परंतु तूने मेरा शरेआम अपमान किया था।
मैं तुझे कभी माफ़ नहीं कर सकती। तेरी दुर्दशा पर मुझे खुशी नहीं परंतु दिल से
अफ़सोस है। बेवकूफ़, न तो तू कुछ बना न
मुझे बनने दिया।” मेरा रोम-रोम क्रोध से जल उठता। “पता नहीं तेरे जैसे
कितनों ने मेरे जैसी युवतियों के सपने चकनाचूर किए होंगे। मेरा जी करता है,
तुम्हारी ऐसी दशा करूं कि तुम एड़ियां रगड-रगड़ कर मरो।” यह सोचते ही मेरा
चेहरा गुस्से से तन जाता। भौंहे फड़कने लगती।
बच्चों को ऊँची तालीम देने के लिए अब मैंने दिन रात एक कर रखा है। मेरी बेटी
राविया चौथी और बेटा हर्ष दूसरी क्लास में पड़ते हैं। दोनों ही बच्चे बहुत होनहार
हैं। अब मैं अपने सपने भूल बच्चों के सपनों में खोने लगी है। दयाल के कंधे से कंधा
मिला कर काम करती हूँ। बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए हर संभव प्रयास कर रही हूँ।
बच्चों की मार्फत अपनी तमन्नाएं पूरी करूंगी। माथे से उठती हर तरंग को मैंने
मशक्कत के चूल्हे में झोंक दिया है। सरदारनी के घर के कामों के अलावा मैं रात को
लोगों के कपड़े भी सिलती हूँ। मेरी और दयाल की मेहनत से घर में खुशहाली खेलती है।
मैंने लॉबी में आकर क्लॉक पर नज़र डाली। बच्चों की छुट्टी का समय हो गया था।
मैं लॉन के साथ खिले फूलों के पास चक्कर काटने लगी। बहुत तरह के फूलों की खुशबू से
मैं हल्का महसूस कर रही थी। कुछ पलों बाद गेट पर दस्तक हुई। मेरे बच्चे, राविया और
हर्ष स्कूल से आ गए थे। मैं गेट की तरफ दौड़ी। गेट खोल दोनों बच्चों को चूमा। सीने
से लगाया। उनके बैग पकड़ कर कंधे पर लिए। उनके हाथ पकड़कर घमंड से चलती हुई भीतर
आई।
“मम्मी, पानी पीना है।” थके-हारे दोनों बच्चों ने लॉबी में आते हुए
कहा।
“पानी नहीं, बेटा आज जूस पिलाऊंगी।” मैंने दोनों बच्चों
को गिलासों में जूस डाल कर दिया। हसरत भरी नज़रों से मैं उनको देख रही थी। बच्चे
जूस पीते हुए मेरी तरफ देख मुस्कुराए।
“बेटा, आज शाम तक यह घर अपना है। यहाँ जो मर्ज़ी करो। खेलो, नाचो, कूदो,
लुड्डियां पाओ। फ्रिज से जो जी चाहे खाओ। खुली छूट है। मैं आज के दिन को जी भर कर
जीना चाहती हूँ।” मुझे लगा यह मेरे सपनों का घर था जो बन न सका।
आज इस घर में चलते हुए मेरी चाल में गज़ब की अकड़ थी। मैंने लॉबी में खड़े हो
बाँहें ऊपर उठा कर अंगड़ाई ली। सैंडी के कमरे का अधखुला दरवाज़ा बंद करने के लिए
उधर चल दी।
“मम्मी आपका दुपट्टा....” मेरी बेटी ने जूस का अंतिम घूँट भरते हुए ऊँचे स्वर में कहा। मैंने घबरा कर पीछे बेटी और अपने दुपट्टे की तरफ देखा। मेरे दुपट्टे का एक छोर फर्श पर घिसट रहा था और दूसरा मेरे कंधे से फिसल रहा था। मैंने गिरते दुपट्टे को एक दम से संभाल लिया था। और सैंडी के कमरे का अधखुला दरवाज़ा पूरे ज़ोर से बंद कर रसोई की तरफ चल दी। मैंने देखा बच्चे फ्रिज खोल कर, खाने के लिए कुछ और तलाश रहे थे। साभार - ककसाड़ (दिल्ली), मई - 2022
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लेखक परिचय – श्री रघबीर सिंह मान
पंजाबी के वरिष्ठ रचनाकार। अर्ध सरकारी संस्थान से सेवानिवृत। दो कहानी संग्रहों सहित ‘उलझ गई सिक्ख कौम’ तथा ‘भारतीय ट्रैफिक समस्या और समाधान’ गद्य पुस्तकें प्रकाशित।
संपर्क – ईमेल – rsmann000@gmail.com
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