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मंगलवार, दिसंबर 20, 2022

 कहानी श्रृंखला - 33                        

बांग्ला कहानी (बांग्लादेश से)    


   जासूस                                                                  

            

           

0 मुजफ्फर हुसैन                                                                                                                


 अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु


            वृहस्पतिवार। स्कूल की आधी छुट्टी। छुट्टी हुई दो बजे, घर पहुँचते-पहुँचते और थोड़ा सा समय लगा।  हमारी बैठक के सामने उस वक्त विभिन्न उम्र के लोगों का जमावड़ा। छोटा होने के कारण दूसरों की टाँगों के बीच से निकल कर सामने जाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। देखा, एक व्यक्ति धूल-मिट्टी से लिथड़ा ज़मीन पर बैठा है, तन पर टाट का बोरा लपेट रखा है। सिनेमा में दिखाए जाने वाले बूढ़े चीनियों जैसी दाढ़ी। उलझे हुए बाल। लगता है होश संभालने के बाद जिंदगी में कभी हजामत नहीं करवाई, धुले भी नहीं। अमरत्व प्राप्ति पर वृद्ध होते-होते थम जाने जैसी उम्र। तब भी कुछ समझ नहीं पाया। बहुत ध्यान से देख रहा था उस व्यक्ति को। टाँगों के पास एक थैला पड़ा था। नीचे से फटा हुआ, कुछ भी नहीं है, समझ ही रहा था।  झोले के एक कोने को कस कर पकड़ रखा था, पता नहीं इसीलिए झोले को पकड़ कर खींच-तान कर रहा था टोटन मामा। वह आदमी बहुत देर तक टिक कर बैठा नहीं रह पाया, टोटन मामा ने खींच कर छीन लिया झोला और दूर फेंक दिया। फेंकना ही था तो छीनने की क्या ज़रूरत थी? यह साधारण सा सवाल पूछने लायक लोग भी वहाँ नहीं थे। सभी खड़े मज़ा ले रहे थे।  पता नहीं कितने दिनों बाद कुछ देख कर वे लोग मज़ा ले पा रहे थे।  पहले गाँव में जात्रा हुआ करती थीं, अश्लीलता के अभियोग के कारण अब नहीं होतीं। बड़े भाईयों से स्कूल के मैदान में सर्कस होने की बातें सुनी हैं। वह भी सदा के लिए बंद हो गई हैं। जिस सर्कस को हमने कभी देखा नहीं, उस सर्कस की बातें सोच कर बहुत दिनों तक सिहर उठता रहा हूँ। ग्रामीण लोगों के मनोरंजन की जो बातें सुन रखी हैं आज साक्षात् देख रहा हूँ।

          फकीर हो सकता है। फजू चाचा ने कहा।

         आस-पास के गाँवों में देखा है ऐसा नहीं लगता। पीछे से हफी चाचा की आवाज़ सुनाई दी।

          आज जुम्मा नहीं है। अगर फकीर होता तो भीख रखने का थैला भी होता। ऐसे पड़ा न रहता। मबू भाई ने कहा। यहाँ जुम्मे को फकीर आते हैं। दूसरों दिनों में भी एकाध आते हैं। इस इलाके के फकीरों को तो हम नाम सहित पहचानते हैं, लेकिन इस आदमी को कोई नहीं पहचानता। अब्बा जैसे पुराने बंदे ने भी जब एलान कर दिया कि कभी नहीं देखा तो फिर दूसरे भला क्या कहेंगे।

          ओ बुड्ढ़े, तुम्हारा नाम क्या है?  कहाँ से आए हो?  किस गाँव के रहने वाले हो?  यहाँ किसलिए आए हो?  कैसे आए हो?  शोयब भाई ने हाथ में पकड़ी बाँस की टहनी से कचोटते हुए एक के बाद एक सवाल दाग दिए।

          मुँह से टूं तक तो बोल नहीं पाया, और तुम ख़बरनवीसों की तरह इंटरव्यू लेना चाहते हो। शोयब भाई को इंगित करते हुए हमारे गणित के मास्टर बिलू सर ने कहा।

          टहनी की कचोट से हाथ और पीठ पर खरोंचें लग गईं हैं। वृद्ध ख़ामोश है। पुराने दरख्त की भाँति ज़मीन की तरफ देखता रहता है। खुद में ही खोया हुआ पता नहीं ज़मीन पर क्या लिखता जा रहा है। कुछ थोड़ा सा समझ आता है कि एक और निशान लगा कर सब कुछ उलझा देता है।

          किसी ने आते हुए देखा है?’   

          सबसे पहले किसने देखा?   

          पैदल चल कर आया या किसी सवारी पर?

          एक के बाद एक सवाल आते जाते हैं। शाम की अजान का वक्त हो जाता है। कुछ लोग नमाज भी पढ़ आते हैं। एक आदमी जाता है, नया आदमी आ जाता है, भीड़ बिलकुल भी कम नहीं होती।  लोग एक बार तो झिंझोड़ते हैं, दूर होकर खड़े होते हैं। बहुत पास कोई नहीं जाता- अन्जान कुत्ते के साथ खेलने पर हम इतनी सजग दूरी बनाए रखते हैं। मुहल्ले के सहजन के पेड़ से जैसे खरोंच-खरोंच कर हम गोंद निकालते हैं, पेड़ हिलता-जुलता भी नहीं, उसी तरह यह अन्जान वृद्ध भी ज़िंदा होते हुए भी निर्जीव सा पड़ा है।  पेड़ की भाँति खुद से एक बार भी अपने प्राणों का प्रमाण नहीं देता। एक गुट हताश हो जाता है, दूसरा गुट नए सिरे से कोशिश करता है। उसके मुँह से अगर कोई एक परिपूर्ण शब्द भी निकाल पाएगा तो मानो उसे ग्रामवीर की उपाधी से नवाज़ा जाना हो।  

          एक जैसे दृश्य से जब हम ऊब गए, तभी हम में से किसी ने एक बम सा फोड़ा।

          जासूस। देखो, भारत का जासूस है। गूंगे-पागल का छद्म भेष धर कर जानकारियां जुटा कर भाग रहा है। भीड़ में कोई एक बोल उठा। तुरंत लोग सजग हो कर खड़े हो गए।  गाँव के पश्चिम की तरफ सीधे छह मील चलने पर भारत-बांग्लादेश की सीमा है। हमारी कोई गुप्त जानकारी ले कर सीमा से पलायन कर रहा था इसलिए हमने पकड़ लिया।

          जासूसों के मामले में गाँव में कई तरह की कहानियां गढ़ी जाती थीं। एक कहानी की बात तभी याद आई।  ये ऐसे कुशल और समर्पित देशभक्त होते हैं कि किसी भी देश में जासूसी के लिए जाकर घर-गृहस्थी तक बसा लेते हैं और मिशन पूरा होते ही बिना बताए पत्नी और बच्चों को छोड़ स्वदेश लौट जाते हैं। ऐसे प्रशिक्षित हैं कि छद्म भेष में उनका पकड़ा जाना भी संभव नहीं।

          हम में से कुछ लोगों ने परखना शुरू कर दिया। पहले किसी ने छड़ी के सिरे में बालों को लपेट कर ज़ोर से खींचा। नकली बाल होते तो निकल आते। लेकिन बस कुछेक बाल ही टूटे। वृद्ध का रंग असली है कि नहीं और कहीं चेहरे पर मेकअप तो नहीं कर रखा, यह परखने के लिए हबू भाई ने पीछे के एक गड्ढ़े से बाल्टी में गंदला पानी लेकर सिर पर उंडेल दिया। बदन का रंग जैसा था, वैसा ही रहा। सबकी आशंका जस की तस बनी रही।

                   कपड़े वगैरह खोल कर देखना चाहिए कि कोई कागज-पत्तर या चिरकुट वगैरह है या नहीं? हफिज्जुल भाई ने कहा। उसकी बात पर लोग उत्साहित हो उठे। कपड़ों के नाम पर वही टाट का चिपचिपा सा बोरा। वह भी शरीर के थोड़े से हिस्से को ढक पा रहा था।  उतना सा ही खोलने के लिए कुछ लोग तो वैसे ही मौक़े की तलाश में थे, इतने में उन्हें जनसम्मति मिल गई।  महिलाएं ओट में हो गईं। टाट के बोरे को तन से अलग करने में कठिनाई नहीं हुई। हाथ भी नहीं लगाना पड़ा। छड़ी के सिरे से खींच-तान करने में ही कुछ फट कर और कुछ खिसक कर बदन से अलग हो गया।  हमने चारों तरफ से घूम-फिर कर देखा। कागज़ का टुकड़ा तक भी न मिला। हम में से किसी ने एक ऐसा विषय खोज निकाला कि किसी को भी वृद्ध के हिंदुस्तानी जासूस होने पर कोई संदेह न रहा। हिंदु होने पर भारतीय जासूस होगा ऐसी एक प्रश्नहीन धारणा हवा में किसने कब फैला दी है, जो हमारी साँसों संग हमारे तन में रच-बस गई है।

          चूंकि कोई संदेह न रहा, लोग लगभग निश्चिंत हो गए कि कागज़ या चिरकुट उसके साथ नहीं था। ऐसी स्थिति में जो करना उचित होता है, वही किया होगा – निगल लिया। पेट चीर कर देखना संभव होता तो मिलता। लेकिन वह सब करना संभव नहीं था। किसी-किसी के चाहते हुए भी सिर्फ़ अनाभ्यास के कारण कोई पेट चीरने की बात नहीं सोच सकता। लोग चाहें तो पीट-पीट कर मार डाल सकते हैं। पेट चीरने की तुलना में भीड़ द्वारा पिटाई ज़्यादा सहज है, लेकिन उससे यह पता नहीं लग पाएगा कि वह क्या जानकारियां जुटा कर जा रहा है।

          थाने को सौंप देते हैं। पुलिस के हाथों में पड़ने पर पुलिस धुलाई से ही सारी जानकारियां निकाल लेगी। किसी ने कहा।

          हाँ, यही ठीक रहेगा। कुछ ख़बर मिलने पर देश के लोग हम पर हिंदुओं की जासूसी के बारे में जान पाएंगे। मार डालना सही नहीं होगा। कोई दूसरा बोल उठा। तब तक दिन का उजाला ख़त्म हो गया था। अंधेरे में इतने लोगों में कौन क्या कह रहा है, ठीक से समझ नहीं आ रहा था। जब यह अंतिम निर्णय तय हो गया तभी माँ आईं।

          जो भी करना है सुबह करना। तुम लोग अभी जाओ। सारा दिन कुछ नहीं खाया, खाने दो। मुहल्ले के लोग माँ से डरते थे या सम्मान करते थे, मालूम नहीं। माँ के ऐसा कहते ही हल्का सा विरोध तो हुआ परंतु टिक नहीं पाया। सुबह माँ से जान लेंगे इसी शर्त पर लोग चले गए। दो-तीन लोगों ने मिल कर उस आदमी को बैठक में ला रखा।  खाना खिलाकर बाहर से ताला लगा दिया जाएगा। माँ के साथ मैं आया, भात और तरकारी लेकर। लालटेन की रोशनी में माँ ने एक थाली में भात, दो कटोरियां में अलग-अलग तरकारी दी। मछली और दाल। वृद्ध की हालत हवा से पेड़ के पत्तों के हिलने जैसी थी। लालटेन की रोशनी में माँ की तरफ देखते हुए थाली में भात को सानने लगा। माँ दाल की कटोरी उठा कर मछली देने लगी तो इशारे से मना किया।

          पूछो तो कहाँ से आया है ? माँ से कहा मैंने। लग रहा था माँ अभी कुछ पूछेंगी। किंतु माँ ने कोई सवाल नहीं किया। पास बैठ कर खिलाया। जो दो-चार लोग खड़े थे वे भी हमारी तरह हट गए।

          उस दिन सोते समय बहुत उत्तेजना थी। थाने में सूचना दे दी गई है। सुबह पुलिस आएगी। जुम्मे को स्कूल नहीं होता। होता भी तो नहीं जाता।  ऐसी घटनाओं का साक्षी बनने का मौका ज़िंदगी में शायद ही दोबारा आता हो। मुझे लगता है उस दिन कोई भी ग्रामवासी उत्तेजना में चैन से सो भी नहीं पाया होगा।  मुझे नींद बहुत देर से आई, लगभग सुबह होने से कुछ देर पहले।  इसलिए समय से उठ नहीं पाया। बाहर शोर-गुल न होता तो शायद अभी कुछ देर और सोता। जल्दी-जल्दी उठ कर आ कर देखा कि लोग बेचैनी से दौड़-भाग कर रहे हैं। वह आदमी नहीं मिल रहा है। बाहर से ताला लगा ही हुआ है, लेकिन भीतर वह नहीं है। एक गिलास पानी रखा गया था, खाली गिलास पड़ा हुआ है। माँ ने एक ही बात में निपटा दिया – लोगों के सामने ही तो भीतर बंद करके ताला लगा कर सोई थी। अब कैसे क्या हुआ, मुझे क्या पता।

          तब तक आस-पास के गाँवों, सीमा की तरफ लोग ढूँढने चले गए थे। एक ने यह भी कहा, वह आदमी था या जिन्न। किसी दूसरे ने सवाल किया, जिन्न भला हिंदु होता है क्या?  इस सवाल का जवाब देने के लिए कोई सामने नहीं आया। शाम तक बहुत तलाश किए जाने के बावजूद कोई ख़बर नहीं मिली। मैंनें भी दूसरों के साथ ईख और गेंहूं के खेतों में लाठी मार-मार कर ढूँढा। एक आदमी कैसे आया और कैसे चला गया, कोई कुछ भी बता नहीं पाया। रात को बहुत उदास हो कर सोया। बदन में सिहरन हो रही थी। मन कह रहा था, आदमी गया नहीं, आस-पास ही है। साथ वाले कमरे से माता-पिता की नोंक-झोंक के दबे से स्वर सुनाई दे रहे थे।

          तुमने ठीक नहीं किया। पिता कह रहे थे।

          तुम लोगों ने ठीक किया था क्या? जासूस बता कर पुलिस को सौंप रहे थे?  माँ ने सवाल उछाला।

          जासूस था कि नहीं पुलिस देखती न। पिता ने जवाब दिया।

          तो क्या सब कुछ जानते-बूझते हुए भी ऐसा करोगे?

          इतने सालों बाद क्यों आया?

          यह उसका देश है। घर है। जन्मभूमि है। आ ही सकता है।

          सिर्फ़ कहने से ही नहीं होता। उसका घर-द्वार, ज़मीन-जायदाद है क्या?

          बच्चों सहित बीवी को घर में बंद करके जला डाला पाकिस्तानियों ने। देश स्वाधीन होने पर अकेले आदमी को पागल बना कर देशनिकाला दे दिया तुम लोगों ने। और अब जासूस बता कर पुलिस के हाथों में सौंपने जा रहे थे, और कितना अत्याचार करोगे उस पर? माँ ने अब ज़ोर से उत्तेजित स्वर में कहा।

          धीरे.....बच्चे सुन लेंगे। पिता ने डपट कर माँ को रोक दिया। पल भर में पूरे घर पर पुरानी निस्तब्धता पसर गई।

          आँखे मूंदे-मूंदे ही महसूस हुआ कि कोई सिरहाने आकर खड़ा हुआ है। उसकी गर्म साँसों से हवा में भारीपन आ गया है। मैं कहते हुए भी कह नहीं पाता, मुझे सब पता है।

          पिता की छाया पड़ती है मेरे बदन पर।




साभार - सन्मार्ग (कोलकाता) दीपावली विशेषांक - 2022 

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                        लेखक परिचय

                                  मुजफ्फर हुसैन

 

मुजफ्फर हुसैन बांग्लादेश के समकालीन साहित्य में एक चर्चित और लोकप्रिय कथकार हैं। अंग्रेजी भाषा और साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। वर्तमान में बांग्लादेश की राष्ट्रीय संस्था, बांग्ला अकादमी में अनुवाद अधिकारी के रूप में कार्यरत। मुख्य रूप से कथा साहित्यकार। अनुवाद और आलोचनात्मक साहित्य में विशेष रुचि।

उपन्यासों और कहानियों के लिए बांग्लादेश के राष्ट्रीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण पुरस्कार अर्जित। उपन्यास के लिए 'काली ओ कलाम साहित्य पुरस्कार' और कहानियों के लिए 'अन्योदिन हुमायूं अहमद कथा साहित्य पुरस्कार', 'अबुल हसन साहित्य पुरस्कार', 'बैशाखी टेलीविजन पुरस्कार' और 'अरनी कहानी पुरस्कार'   उनकी कहानियां अंग्रेजी, नेपाली, इतालवी और स्पेनिश में अनूदित। कहानी संग्रह, निबंध, अनुवाद और संपादन आदि विधाओं सहित कुल 25 पुस्तकें प्रकाशित।

संपर्क -  mjafor@gmail.com

 


 

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